अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति त्याग प्रधान है। आध्यात्मिकता में योग का विशेष महत्व है, और योगी को ही सच्चा शिव माना गया है।योगी भी कैलाश पर निवास करने वाला। पर्वत दृढ़ता का प्रतीक है, पर्वत व्रत का प्रतीक भी है। कैलाश परोक्ष रूप है, इसका प्रत्यक्ष रूप कीलाश है। संस्कृत में कीलाश अमृत और अश अर्थात भोजन को कहते हैं। योगी अमृत भोजी होते हैं। इस भोजन में वे चातक व्रती हैं। वे अमृत भोजन पर पर्वत के समान दृढ़ हैं। वे मृत्यु के रहस्य को उद्घाटित करना चाहते हैं। इसी दृढ़ता से योगी आगे बढ़ता है। उसकी साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, अनेकों सिद्धियॉं आगे आकर खड़ी हो जाती है। इन्द्रियों से सूक्ष्म इन्द्रियों के विषय हैं, उनसे भी सूक्ष्म मन है और मन से भी सूक्ष्म बुद्धि है तथा बुद्धि से भी सूक्ष्म काम है। इसलिए कामरूपी महान शत्रु से मोर्चा लेते हुए योगी अपने मस्तिष्क के विशुद्ध विचारों द्वारा कामरूपी महाशत्रु को भस्म कर देता है। योगी कामासक्त नहीं होता।
संसार में तीन प्रकार के दुःख हैं -आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक। इनके अंतर्गत समस्त दुःखों का समावेश होता है। इन दुःखों से छुटकारा पाने में योगी भरसक प्रयत्नशील और अत्यन्त पुरुषार्थी होता है।सांख्यदर्शन के अनुसार तीनों प्रकार के दुःखों को दूर करना ही अत्यन्त पुरुषार्थ है। वे तीनों दुःख योगी के शरीर, मन और आत्मा को छोड़ भाग जाते हैं। सच्चा योगी संसार को अभय कर देता है।नादिया नाद का अपभ्रंश रूप है। नाद ध्वनि को कहते हैं। नाद पर आरूढ़ योगी ओ3म नाद का प्रेमी होता है। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं - तस्य वाचकः प्रणवः, तज्जपतस्दर्थभावनम्। अर्थात् योगी प्रणव का जाप करता है। यही उसके पास वषभ हैं। वृषभो वर्षणात् अर्थात जो सुखों की वर्षा करता है।कुछ विद्वानों के अनुसार योगी अपने श्वास-निश्वास को अजपा-जाप के रूप में प्रयुक्त करता है। आत्मा को वेदों में हंस कहा है- हंसः शुचिषद्। अर्थात आत्मा के शुद्ध होने के कारण हंस है। उल्लेखनीय है कि हंसः हंसः हंसः इस प्रकार जाप करने से इसकी सन्धि हंसो हंसो हंसो होता है। इसका विपरीत रूप सोहं सोहं सोहं है। इसी विपरीत अर्थात उल्टा रूप का जाप कर वाल्मीकि ब्रह्म के समान हो गए- उल्टा नाम जपा जग जाना वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना। यह आत्मा अर्थात शिव श्वास-प्रश्वास प्रणाली में सोहं सोहं सोहं का जाप करते हुए इसी नाद पर स्थिरता को धारण करता है। इसी को ईशोपनिषद में अत्यंत सुन्दर ढंग से कहा गया है-
पुष्न्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य ब्यूह रश्मीन् समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोहमस्मि।
- ईशावास्योपनिषद, यजुर्वेद 40-16
अर्थात- जो प्राण में पुरुष है, वह मैं हूँ। यह सोहम् नाद आत्मा का अजपा जाप है, जो प्रतिक्षण निरन्तर चलता रहता है।
योगी अपने अतीत अर्थात पूर्व के जन्मों को जान लेता है कि मैंने कौन-कौन से शरीर धारण किये? बिना सिर का शरीर कभी पहचाना नहीं जा सकता। इसलिए शरीरमाल न कहकर मुण्डमाल कहा गया है। वह अनेक जन्मों की शरीर धारण क्रिया को पहचान लेता है, यही उसका मुण्डमाल धारण करना है। यही कारण है कि योगी विद्वतजन कहते हैं – मेरे, तुम्हारे और सभी के अनेक जन्म व्यतीत हो चुके हैं, जिसे कोई नहीं जानता, सिर्फ योगीजन ही इस गूढ़ रहस्य को जान पाते हैं। प्रत्येक योगी शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को भली प्रकार जान, पहचान लेता है कि अंततः इस शरीर का देह नाशवान है। यह जान वह इस शरीर का राग छोड़ देता है। वह अर्थात योगी भस्मान्तं शरीरम् का महत्व पहचान लेता है और इस शरीर को आत्मा के ऊपर लिपटी हुई भस्म ही समझता है, और भस्मयज्ञ को छोड़कर अध्यात्म यज्ञ प्रारम्भ कर देता है।योगी के मस्तिष्क में ज्ञान गंगा हिलोरें मारती हैं। वह परमगुरु परमात्मा से सम्बन्ध जोड़कर उसके ज्ञान को धारण करता है तथा सम्पूर्ण जल-थल को आप्लावित व आप्यापित करता हुआ उसका ज्ञान अन्ततः अनन्त सागर में लीन हो जाता है। वह समझ जाता है कि महान से महान और लघु से लघु, विशाल से विशाल और तुच्छ से तुच्छ वस्तु में परमात्मा का ही निवास है। इसलिए उसका ज्ञान सर्वत्र प्रसृत होता है। वह भेद-भाव को भूलकर सबका भला करता है।
चन्द्र आह्लाद का प्रतीक है। चन्द्रमा को देखकर मन में स्वाभाविक प्रसाद उत्पन्न होता है। चन्द्रमा को मनसो जातः कहा गया है। इसीलिए चन्द्रमा को देखकर मन प्रसन्न होता है। चन्द्रमा का दूसरा नाम सोम है। सोम के कारण योगी में सौम्यता का गुण उत्पन्न होता है। योगी सोमरस का पान करता है। द्वितीया का चन्द्र पूर्णिमा के चाँद से ज्यादा प्यारा लगने का कारण पूर्णिमा के पश्चात निराशा का आगमन होने और द्वितीया के पश्चात आशा का उत्तरोत्तर बलवती होना ही है। योगी के काम, क्रोध, मद, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विषधर अन्तर को छोड़कर बाहर आ बैठते हैं। उसका अन्तःकरण विशुद्ध हो जाता है। उसको ये दुर्भाव सता नहीं पाते। वह समस्त संसार के विषधरों को अपने यहॉं आमन्त्रित कर लेता है। संसार को इनसे मोक्ष दिला देता है। ये ही विषधर उसके आभूषणों का काम देने लगते हैं।
उल्लेखनीय है कि देवासुर संग्राम में देव और असुर शक्ति ने मिलकर समुद्रमन्थन किया और उसमें से विष सहित चौदह रत्न निकले। अन्य सभी रत्नों को लेने के लिए तो सभी तैयार थे, लेकिन विष को लेने अर्थात पान करने के लिए कोई तैयार नहीं था। इस प्रकार की समस्या देवताओं के समक्ष आ उत्पन्न होने पर शिव ने देवताओं के इस समस्या का हल किया। शिव ने गरल गल में पान कर लिया और देवताओं से नीलकण्ठ की उपाधि पाई।योगी विद्वतजन लोगों पर पड़ने वाली आपत्ति को दूर करने के लिए बड़ी से बड़ी कठिनाईयों, विपत्तियों का सामना करते हैं, उनको झेलते हैं। उन्हें विष दिया जाता है, पर वे उसको अमृत समझकर उसका पान कर लेते हैं, और समाज को तनिक भी क्षति-ग्रस्त नहीं होने देते। शिव के समान स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी आधुनिक युग में यही किया और शत्रु के द्वारा दिए गए विष को पान कर उसको झेलते हुए विष देने वाले की जान बचा उसे भगाकर समाज को क्षतिग्रस्त होने से बचाया और आधुनिक शिव हो गए। योगीजन हिंसक जन्तुओं से परिपूर्ण वन में बाघ आदि हिस्र प्राणियों की खालों को अपना परिधान और आसन बनाते हैं। अपनी इन्द्रियों को भी दमन करके रखते हैं, तथा उनके समस्त अघ अर्थात पाप भीतर से निकलकर बाहर भागते -फिरते हैं। उन्हीं से अपने आपको ढक कर आत्माराम रूप में मस्त विचरते हैं।
हिम आच्छादने। आच्छादन शब्द अन्धकार का द्योतक है। अन्धकार जगत का प्रतीक है, और प्रकाश पररमात्मा का। मध्यस्थित यह जीवात्मा अन्धकार के द्वारा प्रकाश को प्राप्त होता है। इसी से पार्वती प्रकाशवती बुद्धि मेना मेरा नहीं से उत्पन्न होती है।इदं न मम भी इसी का विशदार्थ है। उपनिषदीय उक्ति-इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि में भी सत्य की प्राप्ति अनृत से होने की ही बात कही गई है। केनोपनिषद् में वर्णन है-
स तस्मिन्ननेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्षमिति।
-केनोपनिषद 3-12
उस आकाश में एक स्त्री दिखलाई पड़ी जिसका नाम उमा था, जो हैमवती थी। मन को उमा का दर्शन उसी प्रकाशवती प्रवृत्ति का परिचायक है।
उ अर्थात ब्रह्म मीयते यया सा, उमा अर्थात ब्रह्म विद्या को कहते हैं। वह योगी ब्रह्म विद्या को प्राप्त कर लेता है फिर उसका समस्त जीवन महायोगी कृष्ण के शब्द में- ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना हो जाता है।वह फिर डमरू बजाता है। अपनी भावना का डिण्डिमघोष करता है। डमरू शब्द भी परोक्ष रूप में है, प्रत्यक्ष रूप में तो दमरू है। परोक्षप्रिया हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः। विद्वान परोक्ष से ही प्रेम करते हैं प्रत्यक्ष से नहीं।दमरूः शब्द में दम और रूः दो शब्द हैं। दमरुः दमन को, और रूः शब्द को कहते हैं अर्थात उसके प्रत्येक कार्य से दमनात्मक ध्वनि व्यक्त होती है। वह इन्द्रियदमन का पाठ पढ़ाता है। वह भोग के रोग से छुड़ाकर त्रिशूल (त्रिविध ताप) के संकट से मानव मात्र को मुक्त करता है। शव और शिव में इकार का अन्तर है। इकार शक्ति का प्रतीक है। शव मुर्दे को कहते हैं। मुर्दे में यदि जीवनी शक्ति हो तो शिव हो जाता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी शिवतर बनकर शवों में शक्ति संचार कर सोई हुई जाति को जगाया। भारतवर्ष प्राचीन काल से ही योगियों के लिए प्रसिद्ध रहा है। प्राचीन समय में भारतीयों का तीन चौथाई समय योग साधन में ही व्यतीत होता था। रघुवंशियों में तो अन्त में योग द्वारा ही प्राण-विसर्जन की प्रथा थी।वेद के अनुसार पर्वतों की गुफाओें में, नदियों के संगम पर, विप्र-उत्पत्ति बुद्धि द्वारा होती है। अस्थियों के भीतर हृदयाकाश में इडा, पिंगला और सुषुम्णा के संगम में बुद्धि से विप्रत्व उत्पन्न होता है। ब्राह्मी बुद्धि उपलब्ध होती है।ये सब परम्पराएं योग साधन की परिचायिका हैं। प्राचीन काल में यहॉं प्रत्येक व्यक्ति को शिव बनाया जाता था। वह देश-जाति एवं प्राणिमात्र के लिए सच्चा शिव प्रमाणित होता था। प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य था कि वह शिव बने और अपनी सन्तान को शिव बनावे।आज वह कला हमारे हाथ से निकल गई। आज हम हस्तकला-कुशल रह गए। पर मन से शिवनिर्माण की भावना दूर न हुई और इसी आधार पर उस योगी निर्मात्री हिमालय की प्रत्येक प्रस्तरकृति को शिव मान बैठे। शिव का सच्चा स्वरूप भूल गए और एक दिन फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी की महाशिवरात्रि अथवा श्रावण सोमवारी को शिवपूजा कर अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु शिवलिंग से प्रार्थना करने लगे हैं। ऐसे शिव से सम्बन्धित अवसरों पर शिव नाम्नी परमात्मा से संसार के कल्याण के लिए शिव बनाने वाली शिक्षा पद्धति वैदिक सत्य ज्ञान से स्वयं पारंगत हो भवसागर से स्वयं पार होने वाले शिव, दूसरों को पार कराने वाले शिवतर सिद्ध होने वाली प्रवृति उत्पन्न करने के लिए प्रार्थना करते हुए लक्ष्य शिवतम रखने की संकल्प लेने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
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