साढ़े चार घंटे के दिन व रात वाले ग्रह

साढ़े चार घंटे के दिन व रात वाले ग्रह

(श्रेष्ठा स्वामी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अंतरिक्ष में आश्चर्य ही आश्चर्य है। अभी हाल में नासा के एक यान ने एक क्षुद्र ग्रह की तस्वीर भेजी है जहां साढ़े चार घंटे के दिन और रात होते हैं। क्षुद्र ग्रह एक प्रकार के खगोलीय पिंड होते हैं जो ब्रह्माण्ड में विचरण करते रहते हैं। ये अपने आकार में ग्रहों से छोटे और उल्का पिंडों से बड़े होते हैं। इनको अप्रधान ग्रह या ऐस्टराॅयड भी कहा जाता है। इनकी स्थिति मंगल और वृहस्पति के बीच पायी जाती है। इन क्षुद्र ग्रहों के लम्बे काल तक पृथ्वी से टकराने के कारण ही पृथ्वी का यह स्वरूप बना है। इसी प्रकार धूमकेतु अपेक्षाकृत छोटे और अनिश्चित आकार के पिंड होते हैं जो सौर प्रणाली के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान निर्मित हुए थे और आज भी विद्यमान हैं।
धरती पर नमूने लाने के लिए भेजा गया अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का ओसारस रेक्स यान क्षुद्र ग्रह बेनु की सतह पर उतरने के बाद से लगातार वैज्ञानिकों को चैंका रहा है। नासा के वैज्ञानिकों ने ओसारस रेक्स यान से भेजें गए डाटा से पता लगाया है कि पृथ्वी के मुकाबले इस क्षुद्र ग्रह पर सूर्य की गर्मी से महज 10,000 से 100,000 वर्षों में ही चट्टानों पर क्रैक आ जाते हैं। सटीक जानकारी के लिए वैज्ञानिकों ने यान से भेजें गए हाई रिजॉल्यूशन फोटोज का विश्लेषण किया हैं। इन फोटोज से क्षुद्रग्रह बेनु पर दिख रहें रॉक फ्रैक्चर का अध्ययन किया गया। प्राप्त जानकारी वैज्ञानिकों को यह अनुमान लगाने में मदद करेगी कि बेनु जैसे क्षुद्रग्रहों पर चट्टानों को छोटे कणों में टूटने में कितना समय लगता है। यूनिवर्सिटी कोटे डी’जूर फ्रांस के वरिष्ठ वैज्ञानिक मार्को डेल्बो ने कहा कि सुनने में दस हजार साल एक बहुत लंबा समय लग सकता है, लेकिन भूवैज्ञानिक रूप से यह बहुत कम समय है। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि क्षुद्रग्रहों पर इतनी जल्दी कोई चट्टान टूट और फिर से बन सकती है। तेजी से तापमान में होने वाले परिवर्तन के कारण ऐसा होता है। जैसे एक समय में ग्लास को ठंडा और गर्म करने से उसमे क्रैक आ जाते हैं। बेनु पर हर 4.3 घंटों में रात दिन की प्रक्रिया चलती है। दिन में तापमान करीब 127 सेल्सियस पहुंच जाता है, तो रात में माइनस 23 रह जाता है। इतनी जल्दी तापमान में होने वाले बदलाव के कारण बेनु की चट्टानों पर ऐसे बदलाव देखे जाते हैं। डेल्बो और उनके सहयोगियों ने 1500 से अधिक कोण से इन फैक्चर्स का विश्लेषण किया हैं। यह फ्रैक्चर टेनिस रैकेट से लेकर टेनिस कोर्ट जितने विशाल थे।

क्षुद्र ग्रह या अवांतर ग्रह पथरीले और धातुओं के ऐसे पिंड है जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं लेकिन इतने लघु हैं कि इन्हें ग्रह नहीं कहा जा सकता। इन्हें लघु ग्रह या क्षुद्र ग्रह या ग्रहिका कहते हैं। हमारी सौर प्रणाली में लगभग 100,000 क्षुद्रग्रह हैं लेकिन उनमें से अधिकतर इतने छोटे हैं कि उन्हें पृथ्वी से नहीं देखा जा सकता।

प्रत्येक क्षुद्रग्रह की अपनी कक्षा होती है, जिसमें ये सूर्य के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। सबसे बड़ा क्षुद्र ग्रह हैं सेरेस होता हैं। सेरेस 1819 में ग्यूसेप पियाजी द्वारा पाया गया था और इसे मूल रूप से एक नया ग्रह माना जाता था।

वेस्टाल एक ऐसा क्षुद्रग्रह है जिसे नंगी आंखों से देखा जा सकता है। सौर मण्डल के बाहरी हिस्सों में भी कुछ क्षुद्र ग्रह है जिन्हें सेन्टारस कहते हैं, इनमे से एक 2060 शीरॉन है जो शनि और यूरेनस के बीच सूर्य की परिक्रमा करता है। ऐरोस एक छोटा क्षुद्रग्रह है जो क्षुद्रग्रहों की कक्षा से भटक गया है तथा प्रत्येक सात वर्षों के बाद पृथ्वी से 256 लाख किलोमीटर की दूरी पर आ जाता है। अधिकतर क्षुद्रग्रह उन्हीं पदार्थों से बने हैं, जिनमें पृथ्वी पर पाए जाने वाले पत्थर बने हैं, हालांकि उनकी सतह के तापमान भिन्न हैं। क्षुद्र ग्रह, सौर मंडल के जन्म के समय से ही मौजूद है, इसलिये वैज्ञानिक इनके अध्ययन के लिये उत्सुक रहते हैं।

वैज्ञानिकों का एक वर्ग यह विश्वास करता है कि ये क्षुद्रग्रह गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही इन ग्रहों के बीच आज भी चक्कर लगा रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि अतीत में इन क्षुद्रग्रहों के लम्बे काल तक पृथ्वी से टक्कर के कारण पृथ्वी के निर्माण में मदद मिली है। उल्लेखनीय है कि यह टक्कर आज भी हो रहे हैं जैसा कि अभी हाल ही में रूस में इस तरह की घटना हुई है जिसमे काफी मात्रा में नुकसान भी हुआ है।

इसके विपरीत धूमकेतु अपेक्षाकृत छोटे एवं अनिश्चित आकार के पिंड होते हैं। ये सौर प्रणाली के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान ही निर्मित हुए थे और आज भी विद्यमान हैं। ये वे सौर मंडलीय निकाय हैं जो पत्थर, धूल, बर्फ और गैस के बने हुए छोटे-छोटे खंड होते हैं। धूमकेतु की नाभि का विस्तार 100 मीटर से लेकर 40 किलोमीटर से अधिक तक माना जाता है। धुमकेतू में विभिन्न प्रकार के कार्बनिक यौगिक भी होते है। इनमे मिथेनोल, हाइड्रोजन साइनाइड, फोर्मेलड़ेहाइड, इथेनोल और इथेन जैसे कार्बनिक यौगिकों के साथ कुछ अम्ल भी पाए जाते हैं। जब धूमकेतु सूर्य के नजदीक आता है तो सौर-विकिरण के प्रभाव से इसके उपरी सतह की गैसों का वाष्पीकरण हो जाता है। धूमकेतु के तीन मुख्य भाग होते हैं अर्थात नाभि,कोमा और पूंछ। इनकी यह विशेषता होती है जब ये सूर्य से दूर होते हैं तो ठन्डे होते हैं लेकिन जैसे ही सूर्य के नजदीक आते है वाष्पीकृत हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप बहुत बड़ी मात्रा में निकलने वाली धूल और गैस की यह धारा धूमकेतू के चारों ओर अत्यंत कमजोर वातावरण बनाती है जिसे कोमा कहा जाता है। आकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए जपिंड दिखाई देते हैं उन्हें, उल्का और साधारण बोलचाल में टूटते हुए तारे अथवा लूका कहते हैं। अंतरिक्ष में भ्रमण करते समय क्षुद्रग्रह अक्सर एक दूसरे से टक्कर करते रहते हैं और टक्कर के दौरान ही छोटे-छोटे अवशेषों में टूट जाते हैं। ये इस रूप में भ्रमण करते हैं जैसे कि सौर प्रणाली के अंग हों। उल्लेखनीय है की उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुँचता है उसे उल्कापिंड कहते हैं। अधिकांश उल्कापिंड चट्टानी संरचना के बने होते हैं और आकर में अत्यंत छोटे होते हैं। अधिकांशतः लोहे, निकल या मिश्रधातुओं से बने होते हैं और कुछ सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर सदृश होते हैं। कभी-कभी इनका आकार एक बास्केटबॉल से भी बड़ा होता है।
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