वैशाली: जहाँ इतिहास, संस्कृति और अध्यात्म मिलते हैं - मेरा यात्रा वृत्तांत
सत्येन्द्र कुमार पाठक
2022 में मैंने बिहार के अरवल जिले के करपी से वैशाली की ओर अपनी यात्रा शुरू की। यह सिर्फ़ एक स्थान से दूसरे स्थान का सफ़र नहीं था, बल्कि समय के गलियारों में एक सांस्कृतिक और पुरातात्विक गोता लगाने जैसा था। जहानाबाद तक बस और फिर पटना तक ट्रेन का सफ़र तय करने के बाद, मैं मुजफ्फरपुर पहुँचा। वहाँ से एक निजी वाहन ने मुझे वैशाली के उस प्राचीन भूभाग तक पहुँचाया, जहाँ इतिहास की परतें आज भी जीवंत महसूस होती हैं।
वैशाली, जो 12 अक्टूबर 1972 को मुजफ्फरपुर से अलग होकर एक स्वतंत्र जिले के रूप में अस्तित्व में आया, तिरहुत प्रमंडल का एक गौरवशाली हिस्सा है। 2011 की जनगणना के अनुसार 3,495,201 की आबादी और 2036 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल वाला यह जिला, अपनी बज्जिका और हिंदी भाषाओं की मिठास समेटे हुए है। वैशाली का मुख्यालय, हाजीपुर, गंगा और गंडक नदियों के पवित्र संगम पर स्थित है, जो इस क्षेत्र को एक अनूठा भौगोलिक महत्व प्रदान करता है। वैशाली का नाम सुनते ही सबसे पहले विश्व के प्रथम गणतंत्र की अवधारणा मन में आती है। पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि यहीं पर सर्वप्रथम "रिपब्लिक" की स्थापना हुई थी। यह वह पवित्र भूमि भी है जहाँ भगवान महावीर का जन्म हुआ और भगवान बुद्ध ने तीन बार आगमन कर इसे पावन किया। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान ही महत्वपूर्ण था, जो उस युग में इसकी शक्ति और प्रभाव को दर्शाता है।
वैशाली की यात्रा ने मुझे इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से रूबरू कराया। यह सिर्फ़ ऐतिहासिक स्थलों का समूह नहीं, बल्कि एक ऐसा स्थान है जहाँ धर्म, कला और परंपराएँ सदियों से एक साथ विकसित हुई हैं।बौद्ध और जैन धर्म का केंद्र: वैशाली का सबसे बड़ा सांस्कृतिक पहलू इसका बौद्ध और जैन धर्मों का संगम होना है। यह धरती भगवान महावीर की जन्मस्थली है, जहाँ जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर का जन्म 599 ईसा पूर्व में वसंतकुंड में हुआ था। कुंडलपुर में स्थित भगवान महावीर का मंदिर और बसाढ़ गाँव में प्राकृत जैन शास्त्र एवं अहिंसा संस्थान, जैन अनुयायियों के लिए महत्वपूर्ण केंद्र हैं।दूसरी ओर, भगवान बुद्ध का वैशाली से गहरा संबंध है। ज्ञान प्राप्ति के पाँच वर्ष बाद भगवान बुद्ध का वैशाली आगमन हुआ, जहाँ उन्होंने अपना अंतिम संबोधन दिया। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद, वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। इन घटनाओं ने वैशाली को बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल बना दिया। वैशाली की बज्जिका और हिंदी भाषा यहाँ की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं। यहाँ के स्थानीय लोकगीत और लोकनृत्य इस क्षेत्र की जीवंत परंपरा को दर्शाते हैं। प्रतिवर्ष बैसाख पूर्णिमा को भगवान महावीर के जन्मदिवस पर आयोजित होने वाला वैशाली महोत्सव, देशभर के संगीत और कला प्रेमियों को आकर्षित करता है, जो इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करता है।
मेरी वैशाली यात्रा ने मुझे इसके पुरातात्विक और पर्यटन स्थलों के माध्यम से समय में एक अद्भुत यात्रा का अनुभव कराया। अशोक स्तंभ (कोलुआ): वैशाली में महात्मा बुद्ध के अंतिम उपदेश की याद में सम्राट अशोक ने नगर के समीप कोलुआ में लाल बलुआ पत्थर के एकाश्म सिंह-स्तंभ की स्थापना की थी। लगभग 18.3 मीटर ऊँचा यह स्तंभ, जिसके ऊपर घंटी के आकार की बनावट है, अत्यंत आकर्षक है। इसके साथ ही एक बड़ा पार्क भी है, जिसमें कई तरह के पेड़-पौधे और फूल लगे हैं। यहाँ प्रवेश के लिए टिकट लेना पड़ता है, हालाँकि स्कूली बच्चों को छूट मिलती है।
बौद्ध स्तूप: दूसरे बौद्ध परिषद की याद में यहाँ पर दो बौद्ध स्तूपों का निर्माण किया गया था। पहले और दूसरे स्तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियाँ मिली हैं, जो इन स्थानों को बौद्ध अनुयायियों के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बनाती हैं। मैंने इन स्तूपों को देखकर इतिहास की गहराई को महसूस किया। अभिषेक पुष्करणी: यह वह पवित्र सरोवर है, जहाँ वैशाली में नव निर्वाचित शासक को स्नान के बाद अपने पद, गोपनीयता और गणराज्य के प्रति निष्ठा की शपथ दिलाई जाती थी। इसके नजदीक लिच्छवी स्तूप और विश्व शांति स्तूप स्थित हैं। राजा विशाल का गढ़: लगभग एक किलोमीटर परिधि में फैली दो मीटर ऊँची दीवार और 43 मीटर चौड़ी खाई से घिरा यह स्थल, माना जाता है कि राजा विशाल का राजमहल या लिच्छवी काल का संसद था। इसकी विशालता से मैं लिच्छवियों की प्रशासनिक दक्षता की कल्पना कर रहा था। कुंडलपुर: यह जगह जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मस्थान होने के कारण काफी पवित्र माना जाता है। वैशाली से इसकी दूरी लगभग 4 किलोमीटर है। यहीं बसाढ़ गाँव में प्राकृत जैन शास्त्र एवं अहिंसा संस्थान भी स्थित है। यहाँ पर भगवान महावीर का एक मंदिर भी बनाया गया है।
चेचर (श्वेतपुर): हाजीपुर से लगभग 18 किलोमीटर पूरब स्थित गंगा नदी के किनारे का चेचर गाँव पुरातात्विक धरोहरों से सम्पन्न है। इसका पुराना नाम श्वेतपुर है। यहाँ गुप्त एवं पालवंश के शासनकाल की मूर्तियाँ एवं सिक्के मिले हैं, जो इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।
विश्व शांति स्तूप: जापान के निप्पोणजी समुदाय द्वारा बनवाया गया यह विश्व शांति स्तूप, शांति और सद्भाव का प्रतीक है। यहाँ प्रवेश निःशुल्क है, और इसकी शांतिपूर्ण आभा मुझे बहुत पसंद आई। चौमुखी महादेव मंदिर और बावन पोखर मंदिर: ये स्थानीय मंदिर हैं, जो यहाँ की धार्मिक आस्था और वास्तुकला को दर्शाते हैं। वैशाली संग्रहालय: वैशाली संग्रहालय में इस क्षेत्र से प्राप्त पुरातात्विक अवशेष और कलाकृतियाँ संरक्षित हैं, जो वैशाली के समृद्ध इतिहास को जानने का एक बेहतरीन स्रोत है। हसनपुर काली मंदिर: वैशाली जिले के पूर्वी भाग में स्थित यह मंदिर, स्थानीय लोगों के बीच काफी पूजनीय है। बाबा गणीनाथ धर्मस्थली (पलवैया धाम): विश्व प्रसिद्ध बाबा गणीनाथ धाम वैशाली की पावन भूमि पर ही स्थित है। यहाँ हर साल भारत और विदेशों से भी भक्त आते हैं, जो इसकी व्यापक मान्यता को दर्शाता है। हाजीपुर, जो वैशाली जिले का मुख्यालय है, स्वयं भी कई महत्वपूर्ण स्थलों का केंद्र है:कौनहारा घाट: गंगा और गंडक के पवित्र संगम पर बसे कौनहारा घाट की महिमा हिंदू धर्म में अन्यतम है। भागवत पुराण में वर्णित गज-ग्राह की लड़ाई में स्वयं भगवान विष्णु ने यहाँ आकर अपने भक्त गजराज को जीवनदान दिया था। यहाँ की आध्यात्मिक शांति अविस्मरणीय है।नेपाली छावनी मंदिर: 18वीं सदी में पैगोडा शैली में निर्मित यह अद्वितीय शिव मंदिर, नेपाली वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। इसकी अनूठी बनावट मुझे बेहद पसंद आई।रामचौरा मंदिर: अयोध्या से जनकपुर जाने के क्रम में भगवान श्रीराम ने यहाँ विश्राम किया था। उनके चरण चिह्न प्रतीक रूप में यहाँ मौजूद हैं, जो इस स्थान को एक धार्मिक महत्व प्रदान करते हैं।महात्मा गांधी सेतु: प्रबलित कंक्रीट से गंगा नदी पर बना यह दुनिया में एक ही नदी पर बना सबसे बड़ा पुल है। इस पुल से गंगा को पार करते हुए वैशाली में आम और केले की खेती तथा पटना महानगर के विभिन्न घाटों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। गंगा-गंडक के संगम पर बसे हरिहरक्षेत्र में कौनहारा घाट के सामने सोनपुर में विश्वप्रसिद्ध मेला लगता है। यह मेला बाबा हरिहरनाथ (शिव मंदिर) तथा काली मंदिर के अलावे अन्य मंदिरों के कारण भी जाना जाता है। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को पवित्र गंडक-स्नान से शुरू होने वाला यह मेला पक्ष भर चलता है। सोनपुर मेला एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में प्रसिद्ध है।भुइयाँ स्थान: हाजीपुर से 10 किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में बाबा भुइयाँ स्थान है, जहाँ पशुपालकों द्वारा देवता को दूध अर्पित किया जाता है। वैशाली तथा आसपास के जिले में कृषि एवं पशुपालन से जुड़े लोगों के लिए यह स्थान अति पवित्र है। बुढ़ीमाई का मंदिर और बाबा बटेश्वर नाथ का मेला: ये भी स्थानीय धार्मिक स्थल हैं, जहाँ मैंने भ्रमण किया।
वैशाली की मेरी यात्रा ने मुझे इस क्षेत्र की समृद्ध भाषाई और सांस्कृतिक विरासत, साथ ही इसके गहरे ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व को समझने का अवसर दिया। मैंने महसूस किया कि वैशाली केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक ऐसा प्रवेश द्वार है जो हमें प्राचीन भारत के गौरवशाली इतिहास और विश्व को दिए गए इसके अद्वितीय योगदान से जोड़ता है। सड़क और रेल मार्ग से यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है। हाजीपुर पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय है और यहाँ से देश के प्रमुख शहरों के लिए सीधी ट्रेन सेवाएँ उपलब्ध हैं। पटना हवाई अड्डा सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा है।
वैशाली की भूमि, जिसने विश्व को गणतंत्र का पहला पाठ पढ़ाया, आज भी अपनी ऐतिहासिक कहानियों, सांस्कृतिक धरोहरों और प्राकृतिक सौंदर्य से पर्यटकों और विद्वानों को आकर्षित करती है। यह यात्रा मेरे स्मृति पटल पर एक अमिट छाप छोड़ गई है, जो मुझे बार-बार इस अद्भुत भूमि पर लौटने के लिए प्रेरित करती है।
मेरी वैशाली यात्रा का एक और यादगार पहलू यहाँ के स्थानीय व्यंजन थे। बज्जिका और हिंदी भाषी इस क्षेत्र में भोजन का स्वाद भी यहाँ की संस्कृति की तरह ही सरल और स्वादिष्ट है। आम और केले का स्वाद: वैशाली केले और आम के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। मैंने खेतों से ताज़ी तोड़ी गई केले की एक किस्म का स्वाद चखा, जो अपनी मिठास और सुगंध के लिए जानी जाती है। आम का मौसम न होने के कारण मैं ताज़े आमों का स्वाद नहीं ले पाया, लेकिन यह कल्पना कर सकता था कि गर्मियों में यहाँ के आम कितने स्वादिष्ट होते होंगे। स्थानीय बाजारों में केले से बने कई उत्पाद, जैसे चिप्स और मिठाइयाँ भी उपलब्ध थीं। मुजफ्फरपुर के करीब होने के कारण, वैशाली में भी लीची का उत्पादन होता है। लीची के मौसम में यह क्षेत्र अपनी रसभरी लीची के लिए प्रसिद्ध हो जाता है। हालाँकि मेरी यात्रा का समय लीची के मौसम का नहीं था, पर मैंने कई लीची के बाग देखे, और सोच रहा था कि गर्मियों में यहाँ की हवा में लीची की कितनी मीठी सुगंध घुलती होगी। बिहार की पहचान, लिट्टी-चोखा, मैंने वैशाली में भी खूब खाया। गरमागरम लिट्टी, भुने चने के सत्तू से बनी, घी में डुबोई हुई और बैगन, आलू व टमाटर के स्वादिष्ट चोखे के साथ, मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था। इसके साथ मैंने सत्तू का शरबत भी पिया, जो गर्मी में ताज़गी देने वाला और पौष्टिक पेय है। छठ पूजा के दौरान बनने वाली पारंपरिक मिठाई ठेकुआ मैंने यहाँ की कुछ दुकानों में भी देखी। इसके अलावा, खाजा, बालूशाही और विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ भी स्थानीय बाज़ारों में उपलब्ध थीं, जो स्वाद में लाजवाब थीं । मैंने एक स्थानीय ढाबे पर भोजन किया, जहाँ मुझे दाल, चावल, रोटी, मौसमी सब्जी और अचार के साथ एक साधारण लेकिन स्वादिष्ट स्थानीय थाली परोसी गई। यहाँ के भोजन में ताज़गी और घर का स्वाद था, जो मुझे बहुत पसंद आया ।
वैशाली की मेरी यात्रा ने मुझे इस ऐतिहासिक भूमि के केवल पुरातात्विक अवशेषों से ही नहीं, बल्कि इसकी जीवंत सांस्कृतिक विरासत और समृद्ध परंपराओं से भी परिचित कराया। यह सिर्फ़ ईंट-पत्थर का इतिहास नहीं, बल्कि लोगों के जीवन में रची-बसी एक सतत धारा है। वैशाली की सांस्कृतिक पहचान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसका धार्मिक सौहार्द है। यह भूमि न केवल भगवान महावीर की जन्मस्थली है, बल्कि भगवान बुद्ध के उपदेशों का भी केंद्र रही है। जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायी समान श्रद्धा से यहाँ आते हैं, जो विभिन्न आस्थाओं के प्रति वैशाली के खुलेपन को दर्शाता है। कुंडलपुर में भगवान महावीर का जन्मस्थान जैन धर्मावलंबियों के लिए एक पवित्र तीर्थ है। यहाँ वर्ष भर जैन धर्म से संबंधित आयोजन होते रहते हैं, और वैशाली महोत्सव का मुख्य आकर्षण भी भगवान महावीर का जन्मदिवस ही है, जो बैसाख पूर्णिमा पर मनाया जाता है। यह उत्सव संगीत, कला और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक अद्भुत संगम होता है, जहाँ देश भर से लोग हिस्सा लेते हैं। भगवान बुद्ध के अंतिम उपदेश स्थल कोलुआ में बने अशोक स्तंभ और बौद्ध स्तूप बौद्ध अनुयायियों के लिए गहरी आस्था का केंद्र हैं। यहाँ शांति और ध्यान का माहौल मुझे एक अलग ही आध्यात्मिक अनुभव दे रहा था। इन स्थलों पर नियमित रूप से बौद्ध भिक्षु और श्रद्धालु आते हैं, जो बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को जीवंत रखते हैं।
गंगा और गंडक के संगम पर स्थित हाजीपुर का कौनहारा घाट हिंदू धर्म में एक विशेष स्थान रखता है। यहाँ की गज-ग्राह की पौराणिक कथा और कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला सोनपुर मेला (हरिहरक्षेत्र मेला) हिंदुओं की गहरी आस्था और परंपरा को दर्शाता है। मेले के दौरान होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम और लोक कलाओं का प्रदर्शन वैशाली की ग्रामीण संस्कृति का आइना होते हैं। वैशाली की सांस्कृतिक विरासत उसकी लोक कलाओं और हस्तशिल्प में भी झलकती है, जो यहाँ के ग्रामीण जीवन का अभिन्न अंग हैं: वैशाली में भी सिक्की घास से बने उत्पादों की उपलब्धता देखी जा सकती है। टोकरियाँ, खिलौने और सजावटी सामान बनाते हुए स्थानीय कारीगरों को देखना उनके हुनर और धैर्य का प्रमाण था। यह कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है, जो वैशाली की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी एक हिस्सा है। गाँव के कुम्हार आज भी पारंपरिक तरीकों से मिट्टी के बर्तन बनाते हैं। बांस से बने दैनिक उपयोग के सामान और सजावटी वस्तुएँ भी यहाँ की पारंपरिक कला का हिस्सा हैं। ये कलाएँ न केवल कार्यात्मक हैं, बल्कि इनमें वैशाली की माटी की खुशबू भी रची-बसी है। वैशाली के ग्रामीण अंचलों में बज्जिका भाषा के साथ-साथ हिंदी में भी पारंपरिक लोकगीत गाए जाते हैं। विवाह, फसल कटाई, और त्योहारों जैसे अवसरों पर गाए जाने वाले सोहर, बिरहा और चैता जैसे गीत यहाँ की ग्रामीण संस्कृति को जीवंत रखते हैं। लोकनृत्य भी यहाँ की परंपरा का हिस्सा हैं, जो सामूहिक उत्सवों में देखने को मिलते हैं। ये गीत और नृत्य यहाँ के लोगों की खुशी, दुख और दैनिक जीवन के अनुभवों को बयां करते है। वैशाली की सामाजिक संरचना पारंपरिक है, जहाँ संयुक्त परिवार प्रणाली और सामुदायिक भावना आज भी प्रबल है। यहाँ के लोग मेहमान नवाजी के लिए जाने जाते हैं। छठ पूजा, दिवाली, होली और ईद जैसे प्रमुख त्योहार यहाँ धूमधाम से मनाए जाते हैं, जहाँ लोग बिना किसी भेदभाव के एक-दूसरे की खुशियों में शरीक होते हैं। छठ पूजा विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिसमें सूर्य देव की आराधना की जाती है और यह यहाँ की गहरी आध्यात्मिक परंपरा को दर्शाता है ।वैशाली के व्यंजन भी इसकी संस्कृति का हिस्सा हैं। लिट्टी-चोखा, सत्तू, और केले व लीची से बने उत्पाद यहाँ की पाक परंपरा को दर्शाते हैं। भोजन यहाँ केवल पोषण का साधन नहीं, बल्कि परिवार और समुदाय को जोड़ने का एक माध्यम भी है।
, वैशाली की मेरी यात्रा ने मुझे सिर्फ़ प्राचीन खंडहरों का दीदार नहीं कराया, बल्कि एक ऐसी भूमि से परिचित कराया जहाँ इतिहास, संस्कृति और परंपराएँ आज भी जीवंत रूप से साँस ले रही हैं। यह एक ऐसा अनुभव था जिसने मुझे बिहार के हृदय में स्थित इस अनमोल है।
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