ईर्ष्या द्वेष डाह जलन है पीड़ा ,
सीधे तन को बनाता है अपंग ।निज काम वह कर नहीं पाता ,
दूसरे को करने में रहता तंग ।।
जीवन तो रहता स्वयं तंगी में ,
अपने आप में ही करता जंग ।
मन को न किए जो नियंत्रित
स्वयं भी पीसते उसके संग ।।
देखने में तन जितना है सीधा ,
अंदर से अंग रहते सारे भंग ।
ईर्ष्या प्रेम में खलल है डालता ,
व्यवहार देख सब होते दंग ।।
आगे बढ़नेवाला होते परिश्रमी ,
स्वयं होता अपने आप मतंग ।
आगे बढ़ता सदा देखकर राहें ,
फींका पड़ता ईर्ष्या का रंग ।।
अपना कर नहीं पाता निदान ,
दूसरे को पहुॅंचाता व्यवधान ।
परिणाम सदा ही बुरा होता ,
छीन जाता उसका सम्मान ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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