वैचारिक मतभेदों का चक्रव्यूह

वैचारिक मतभेदों का चक्रव्यूह

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
महाराष्ट्र में राजनीतिक तूफान का नतीजा सभी को मालूम था लेकिन ऐसा कोई सियासी मौसम विज्ञानी नहीं था जो पहले से आगाह करता। इससे पहले भी शिवसेना में सियासी तूफान आए लेकिन तब पतवार महाराष्ट्र के शेर कहे जाने वाले बाला साहब ठाकरे के हाथ में थी। इस समय उनके बेटे उद्धव ठाकरे मतभेदों के चक्रव्यूह में घिर गये हैं। शिवसेना के नेता एकनाथ शिंदे ने चालीस से ऊपर विधायकों को अपने पाले में खड़ा करने का दावा किया है। इस बगावत के पीछे सुनियोजित साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन एकनाथ शिंदे ने वैचारिक मतभेद का भी मुद्दा उठाया है। शिवसेना जैसी कट्टर हिन्दुत्ववादी पार्टी के साथ कथित धर्मनिरपेक्ष दलों का गठबंधन चलाना अटल बिहारी बाजपेयी जैसे अजात शत्रु नेता का ही करिश्मा था। उनको भी अंत में धोखा ही मिला। हालांकि अटल जी ने सत्ता के सामने पार्टी को ही महत्व दिया। इसीलिए उन्होंने पूरे देश में कमल खिलने का जो सपना देखा था, वो पूरा हुआ। भाजपा दिन प्रतिदिन मजबूत होती गयी। इसके विपरीत सत्ता के लिए समझौते में शिवसेना बिखर गयी है। इसलिए वैचारिक मतभेदों के चक्रव्यूह से राजनेताओं को बचना चाहिए।

महाराष्ट्र में शिवसेना विधायकों में पड़ी फूट के बाद सीएम उद्धव ठाकरे ने पार्टी एमएलए की इमरजेंसी बैठक बुलाई और उन्हें फेसबुक लाइव के जरिए संबोधित किया। इस दौरान उद्धव ठाकरे का दर्द सामने आया। उन्होंने कहा कि, मेरे अपने विधायक मुझ पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। अगर उन्हें लगता है कि मुझे मुख्यमंत्री नहीं रहना चाहिए तो सामने आकर बोलें, मैं तुरंत इस्तीफा दे दूंगा। उधर, बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे ने अपनी नई पार्टी शिवसेना बाला साहेब रखने की घोषणा की है।

महाराष्ट्र में तेजी से बदलते सियासी घटनाक्रम के बीच सीएम उद्धव ठाकरे ने विधायकों को संबोधित किया और अपना पक्ष रखा। उद्धव ठाकरे ने कहा कि, शिवसेना और हिंदुत्व बिल्कुल भी अलग नही है। हिंदुत्व शिवसेना की सांस है। बालासाहेब के जो विचार हिंदुत्व का रास्ता दिखाया मैं उसी को आगे ले जा रहा हूँ। यह जो कहा जा रहा है कि उनका शिवसेना असली नहीं वो नकली है। यह क्या हो रहा है। मैं बाला साहेब ठाकरे का बेटा हूँ। मैं तुरंत कुर्सी छोड़ देता हूँ मुझे सत्ता का लालच नहीं।

उन्हांेने कहा सूरत में या कहीं और जाकर बोलने की क्या जरूरत है। मेरे सामने आकर बोलो कि आप सीएम बनने के लायक नही तो मैं कुर्सी खुद छोड़ देता हूँ। तुम सामने आओ। बोलो मैं पद छोड़ने को तैयार हूं। लेकिन अगला मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा तो मुझे दिक्कत नहीं, बहुत खुशी होगी।

उद्धव ठाकरे हालांकि पहली बार पार्टी में बगावत का सामना कर रहे हैं, जबकि इससे पहले 3 बार शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के सामने बगावत हुई है। ताजा बगावत शिवसेना नेता और उद्धव के करीबी माने जाने वाले एकनाथ शिंदे ने की है। शिंदे की बगावत इसलिए खास है क्योंकि इससे राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में चल रही महा विकास अघाड़ी की सरकार गिरने के साथ शिवसेना के दूसरी बार बिखरने का खतरा पैदा हो गया है। इससे पहले शिवसेना में जब भी बगावत हुई थी, पार्टी सत्ता में नहीं थी महाराष्ट्र की 288 सदस्यीय विधानसभा में शिवसेना के पास फिलहाल 55 सीटें है, जबकि एनसीपी के पास 53 और कांग्रेस के पास 44 विधायक हैं। ये तीनों एमवीए गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टियां हैं। वहीं, विधानसभा में विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के पास 106 सीटें हैं। शिंदे ने दावा किया है कि शिवसेना के 46 विधायक उनके साथ हैं। दलबदल रोधी कानून के तहत अयोग्यता से बचने के लिए शिंदे को 37 विधायकों के समर्थन की जरूरत है। शिवसेना में पहली बड़ी बगावत 1991 में हुई थी। उस समय शिवसेना की कमान बाल ठाकरे के हाथों में थी। पार्टी का ओबीसी चेहरा रहे छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़ने का फैसला कर लिया था। वह भुजबल ही थे जिन्होंने ग्रामीण इलाकों में शिवसेना का विस्तार किया था। उन्होंने कहा था कि पार्टी नेतृत्व ने उनके काम की तारीफ नहीं की, इसलिए वह शिवसेना छोड़ रहे हैं। भुजबल ने शिवसेना को महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में बड़ी संख्या में सीटें जीतने में मदद की थी, लेकिन उसके बावजूद बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी को विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में नियुक्त कर दिया था।भुजबल ने नागपुर में चल रहे शीतकालीन सत्र के दौरान शिवसेना के 18 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी थी। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस को अपना समर्थन देने की घोषणा की थी, जो उस समय राज्य में शासन कर रही थी। हालांकि जिन 18 विधायकों ने भुजबल के साथ पार्टी छोड़ी थी, उनमें से 12 बागी विधायक उसी दिन शिवसेना में लौट आए थे। भुजबल और बाकी के बागी विधायकों को तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने एक अलग गुट के रूप में मान्यता दे दी थी और उन्हें किसी भी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा था।भुजबल इसके बाद 1995 का विधानसभा चुनाव लड़े और उन्हें मुंबई से तत्कालीन शिवसेना नेता बाला नंदगांवकर ने हरा दिया था। महाराष्ट्र की सियासत का यह दिग्गज खिलाड़ी बाद में शरद पवार की अगुवाई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गया। पवार ने 1999 में कांग्रेस से अलग होने के बाद अपनी पार्टी बनाई थी। भुजबल फिलहाल शिवसेना के नेतृत्व वाली एमवीए सरकार में मंत्री और शिंदे के कैबिनेट सहयोगी हैं।

भुजबल के बाद शिवसेना को अगला बड़ा झटका 2005 में लगा था। उस समय पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे ने शिवसेना का साथ छोड़ दिया था और कांग्रेस में शामिल हो गए थे। राणे ने बाद में कांग्रेस भी छोड़ दी और इस समय वह न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी से राज्यसभा सदस्य हैं बल्कि केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं। राणे को भी महाराष्ट्र की सियासत का पक्का खिलाड़ी माना जाता है, और पिछले कुछ समय से वह शिवसेना पर लगातार हमला बोलते आए हैं। शिवसेना को तीसरा झटका 2006 में लगा जब उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई राज ठाकरे ने पार्टी छोड़कर खुद का दल बनाने का फैसला किया। इस नई पार्टी का नाम उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना रखा। राज ठाकरे ने तब कहा था कि उनकी लड़ाई शिवसेना नेतृत्व के साथ नहीं, बल्कि पार्टी नेतृत्व के आसपास के अन्य लोगों के साथ है। 2009 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने महाराष्ट्र विधानसभा की 288 में से 13 सीटें जीती थीं, जबकि मुंबई में इसकी संख्या शिवसेना से एक अधिक थी। हालांकि बाद में उनकी पार्टी अपना असर खोती गई। शिवसेना इस समय राज्य के वरिष्ठ मंत्री, ठाणे जिले से 4 बार विधायक रहे और संगठन में लोकप्रिय एकनाथ शिंदे की बगावत का सामना कर रही है। शिंदे की बगावत इसलिए भी बड़ी है क्योंकि पार्टी के अधिकांश विधायक उद्धव ठाकरे के साथ न होकर उनके साथ नजर आ रहे हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक, शिंदे के साथ कुल मिलाकर 42 विधायक हैं और इसमें अभी इजाफा होने की संभावना है। निर्दलीय विधायक भी उनके साथ हैं और शिवसेना बाला साहेब के नाम से नयी पार्टी बनाने की घोषणा की जा रही है।
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