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नारी तू अपना मोल समझ

नारी तू अपना मोल समझ

(पुष्पा पाण्डेय)

हम कौन थे क्या हो गये और क्या होंगे अभी,

आओ विचारे आज मिलकर ये  समस्यायें सभी...



कविवर मैथिलीशरण गुप्तजी की ये कालजयी पंक्तियाँ सदा समीचीन ही रहेंगी । कहा तो था उन्होंने बहुत पहले ही — राजा भरत वाले भारतवर्ष के संदर्भ में, किन्तु इसी तर्ज पर यदि हम कहें— तूँ कौन थी क्या हो गयी... आओ विचारे बैठ कर हम समस्यायें सभी...तो इसमें जरा भी अतिशयोक्ति न होगी ।
लक्ष्मी, काली और दुर्गा की प्रतीक भारतीय नारी की तुलना पश्चिमी नारी से कतई नहीं की जा सकती । इसे अतुलनीय कहना अधिक अच्छा होगा । थोड़ा और साफ से कहें तो ये कहना ज्यादा अच्छा होगा कि तुलना किसी दो समान सी चीजों के बीच होनी चाहिए । दो बिलकुल विपरीत धर्मी, दो विपरीत कर्मी, दो विपरीत स्वभाव, दो विपरीत परिवेश की क्या तुलना ? भारत की तुलना पश्चिम से करना ही फ़िजूल है । भारत भारत है और पश्चिम पश्चिम । वो है ही कितने दिनों का ! इसका इतिहास ही कितना है ! अब किसी बड़े-बूढ़े का किसी नादान बच्चे से क्या तुलना ? मगर अफसोस कि हम तुलना करने में व्यस्त हैं । तुलना ही नहीं, बल्कि वैसा ही बनने में मस्त हैं ।
यहाँ मैं खास करके नारियों के बारे में कहना चाहती हूँ और वो भी भारतीय नारियों के बारे में । तू तो लक्ष्मी स्वरुपा है, काली और दुर्गा स्वरुपा, सती स्वरुपा, मदालसा स्वरुपा, माण्डवी स्वरुपा, सीता स्वरुपा है । तू तो शक्ति का पुंज हो । तुम्हें धारण कर कोई अपने को शक्तिमान कहता है । तुम न रहो तो सृष्टि में तिनका भी न हिले ।
मगर तुम आज परेशान हो किसी की बराबरी करने में, किसी से खुद की तुलना करने में । जरा सोचो – पुरुष से बराबरी का दर्जा मिलना क्या तुम्हारी उन्नति है ? गौर से देखोगी तो पता चलेगा कि इसमें तुम्हारी अवन्नति है । एक पहाड़ को राई बनने की होड़ बाली अवन्नति जैसी ।
और एक खास बात जिस पर तुम ध्यान नहीं दे रही हो, वो ये है कि पुरुष नाम का जो चतुर जीव है न तुम्हें व्यर्थ में उलझा रखा है बराबरी वाली इन बातों में । ठीक उसी तरह जिस तरह कोई नेता जनता को देश की मुख्य समस्या से अलग-थलग करने के लिए किसी दूसरी-तीसरी बातों में उलझा देता है । और भोली जनता को वही समस्या बड़ी लगने लगती है । उसी को लेकर हो-हंगामा शुरु कर देती है जनता और इधर चालाक नेता अपनी गोटी लाल करने में लग जाता है ।
इन पुरुषों ने भी तुम्हें उसी तरह से धोखे में उलझा दिया है । क्यों कि उसे तुम्हारी असली शक्ति का अंदाजा लग गया है । वह डरने लगा है तुमसे । वह जान गया है कि तुम्हारी बराबरी कभी नहीं कर सकता । शारीरिक रुप से तुम जरा कमजोर भले दीखती हो, किन्तु बौद्धिक रुप से तुम बहुत मजबूत हो और ये बताने की जरुरत नहीं है कि अक्ल बड़ी कि भैंस । तुम्हारे पास प्रखर बुद्धि है और इसके बदौलत बड़ी सी शक्ति को भी मात दे सकती हो । पहले के लोगों ने भी इस बात को समझा था - भली भाँति समझा था । तभी तो स्लोगन दिया था कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता रमण करते हैं—यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।
उन्होंने नारी को जानबूझकर या कहो मजबूरी में पूजना शुरु किया था । डर कर पूजना शुरु किया था । तुम्हें आदर देकर, सम्मान देकर, सुख-सुविधायें देकर धीरे-धीरे कर्महीन, ज्ञानहीन बनाने का दुष्प्रयास किया था । ठीक वैसे ही जैसे स्वतन्त्र भारत में आरक्षण और मुआवजा की लत लगा कर लोगों को अकर्मण्य बनाया गया । उसी तरह तुम इस धोखे को, इस कुटिल योजना को समझ न पायी ।
तुम जो हो वही रहो । तुम्हारे अन्दर जो शक्ति छिपी है, उसे पहचानों । उसे उजागर करो । खुद को पहचानों । अपनी शक्ति का, अपनी ऊर्जा का प्रमाणपत्र पुरुष से न मांगो । पुरुष को अपनी वैशाखी न बनाओ । तुम उसकी वैशाखी भले बन जाओ ।
और ये सब हासिल करने के लिए, हालाकि हासिल क्या करना है, जो है उसे ही ठीक से बूझ-समझ लेना है । तुम्हें अपना आत्मबल जगाना है । तुम्हें अपने चारित्रिक बल को सुदृढ़ रखना है । कहा भी जाता है कि खोया हुआ धन पाया जा सकता है फिर से, खोया हुआ स्वास्थ्य पाया जा सकता है फिर से, किन्तु खोये हुए चरित्र को कतई वापस नहीं लाया जा सकता ।
हालाँकि यहाँ भी एक बात गौर करने जैसी है— तुम्हारे धवल चरित्र पर आखिर धब्बा लगता कैसे है, लगाता कौन है— ये पुरुष कहे जाने वाले स्वार्थी प्राणी द्वारा ही तो । ये तुम्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर, बहला-फुसलाकर अपने कब्जे में करना चाहता है । किसी बेशकीमती चीज को अपने कब्जे में रखना इस पुरुष की पुरानी आदत है । वह स्वार्थ का जीता जागता पुतला है । वस तुम्हें उसकी हुकूमत से आजाद होने की जरुरत है । तुम उसके लिए भोग की कोई वस्तु नहीं हो । असल में तो तुम वस्तु ही नहीं हो, तुम तो व्यक्ति हो, अभिव्यक्ति हो । तुम कवि नहीं, तुम कविता हो । तुम शक्ति ही नहीं महाशक्ति हो । अतः उसके झाँसे में न आओ । वह तुम पर कवितायें लिखता है, तुम्हारे रुप-सौन्दर्य का गुनगान करता है - ये सब इसलिए नहीं कि वह सौन्दर्य का उपासक है । पुरुष क्या जानने गया सौन्दर्य कहते किसे हैं । तुम्हारी सुन्दरता का बखान करके वह तुमको बेवकूफ बनाता है । अपनी ओर खींचने के लिए वंशी में चेरा नाथता है । और तुम उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाती हो । तुम्हारे अन्दर सोया हुआ वात्सल्य है न, वो तुम्हें पिघला देता है । और फिर वह धीरे-धीरे तुम्हें अपने आगोश में खींचने लगता है । तुम्हारे ऊपर कब्जा जमाने लगता है। हुकूमत चलाने लगता है।
और फिर तुम्हारी स्थिति एक कुल्हड़ सी बना डालता है । उसके लिए इससे अधिक मायने नहीं रखती तुम । खुद को वो भौंरा समझता है और तुझे वस एक फूल । फूल भी वो नहीं जिसे देवों के सिर पर स्थान मिले, बल्कि फूल जिसे एक बार नथुनों से लगा कर, फिर सरेआम परे कर दे । उसे न तो तुमसे प्रेम है और न मोह । ममता का तो सवाल ही नहीं है । वो स्वार्थी भला क्या जानने गया कि प्रेम कितना उत्कृष्ट भाव है हृदय का । वह तो हृदयहीन ठहरा । हृदय रहे तब न वहाँ कोमल सुन्दर भाव पनपें । और जिसे वह प्रेम कहता है, जिसे वह प्रेम समझता है— वो तो केवल और केवल मन की भूख है, वासना है, घिनौनी वासना । इससे अधिक कुछ नहीं । वह खुद वासना का कीड़ा है और तुम्हें भी वासना के कीचड़ में ढकेलने को विवश करता है ।
और जिस पश्चिम की बात तुम सोच रही हो, जो पश्चिम तुम्हें अपनी ओर खींच रहा है वो कितना घिनौना है शायद तुम्हें नहीं मालूम । स्वामी विवेकानन्द से किसी ने पूछा था कभी पूरब और पश्चिम का फर्क । जानती हो क्या कहा था स्वामी जी ने ? स्वामी जी ने पहाड़ जैसे शब्द पटक दिये थे उसके सिर पर — ‘ पूरब वो है जहाँ एक पत्नी होती है और शेष सभी माँयें । और पश्चिम वो है जहाँ एक माँ होती है, बाकी के सब पत्नियाँ ।’— यही है पूरब और पश्चिम के सोच का गहरा राज । हमारे यहाँ विवाह के बाद पुरुष से प्रेम की बात की जाती है और वहाँ लव के बाद मैरेज की बात की जाती है । प्रेम और लव के बीच गहरी खाई है, जिसे लोग प्रायः एक दूजे का अनुवाद समझ लेते हैं, जबकि बात ऐसी है नहीं। । तुम भी देखा-देखी इसी अनुवाद के धोखे में आ गयी हो । पश्चिम में लव की बात होती है, वो सड़क चलते कभी भी कहीं भी हो जा सकता है । विवाह के जोड़े में, वाहों में वाहें डाले, चर्च की सीढ़ियाँ उतरने में जितना समय लगता है, उतनी देर में तो वहाँ हसबेंड और वाइफ बदल भी जाते हैं । वह यूज एन थ्रो वाला देश है । सात जन्मों की तो वहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
किन्तु अपने इस व्यवहार से वो भी उब चुका है । धीरे-धीरे हमारी देखा-देखी कर रहा है । हमारी संस्कृति को अपना रहा है । और हम हैं कि अपनी भली-चंगी अनमोल सनातन संस्कृति से उब रहे हैं या कहें इसे समझ नहीं पा रहे हैं । और उसकी ओर मुखातिब हैं ।
हमें अपने पुराने गौरव को समझना होगा । अपना इतिहास यानी कि पुराणों को टटोलना होगा । उसमें लिखी, छिपी रहस्यमय उपदेशों और कथानकों को आत्मसात करना होगा । अपनी आन्तरिक ऊर्जा को जगाना होगा, जिस पर पुरुष की गंदी मानसिकता और सोच ने मिट्टी डाल रखा है । पढ़ना होगा । समझना होगा । आगे बढ़ना होगा । पुरुष के हाथ की कठपुतली बनने से बचना होगा । तो मेरी बहनों जागो और खुद को पहचानों ।
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