बहुत बड़ी समस्या है अशांति

बहुत बड़ी समस्या है अशांति

(हृदयनारायण दीक्षित-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अशान्ति के कारण ढेर सारी पृथ्वी घायल है। पर्यावरण का नाश है। हिंसा है। उपद्रव है। वन कट रहे है। वनस्पतियां नष्ट हो रही हैं। काल निर्मम होता है लेकिन प्रशान्त चित्त में समय दुखी नहीं करता। यजुर्वेद के ऋषि की प्रार्थना है, ‘‘जहाँ कभी न क्षीण होने वाली मधुधाराएँ प्रवाहमान है, हमें वहां ले चलो।‘‘ मधुधाराओं की अनुभूति वाली चित्त दशा शान्त अंतःकरण में ही प्राप्त होती है। अशान्ति सर्वदा दुखदाई है। इसका प्रमुख कारण भय है। भयभीत चित्त अशान्त होते हैं। मानसिक अपराध भी अशांत करते है। मन में गलत काम का चिन्तन भी अशान्त कार्य है।
अशान्त चित्त रचनात्मक नही होता। शान्त चित्त में सृजन के फूल खिलते हैंैं लेकिन शान्ति व्यक्तिगत प्रयासों का ही परिणाम नहीं होती। अशान्ति के कारण संसार मे होते हैंैं। वे व्यक्ति के अंतःकरण को प्रभावित करते हैं। शान्त वातायन आनंदित करते हैं। वन उपवन शान्ति देते हैंैंै। जल आपूरित वेगवान नदियां शान्ति देती हैं। तारों भरा आकाश सुखद अनुभूति देता है। अशान्त अंतरिक्ष भी हमारे भीतर की शान्ति छीन लेता है। हम सब पृथ्वी ग्रह पर हैं। पूर्वजों ने पृथ्वी को माता कहा है। पृथ्वी की अशान्ति हम सबको अशान्त करती है। पूर्वज सर्वत्र शान्ति चाहते थे। शान्ति संपूर्ण मानवता की प्यास है। अशान्त चित्त विध्वंसक होता है और शान्तिपूर्ण चित्त में सृजन लहकते हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र (36.17) में अस्तित्व के शान्ति के सभी घटकों से शान्ति की प्रार्थना है। यहां धुलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी से शान्ति की भावुक स्तुति है। कहते हैं ’औषधियां वनस्पतियां शान्ति दंे। विश्व के सभी देवता शान्ति दंे। ब्रहम् शान्ति दें। शान्ति भी हम सबको शान्ति दंे।’’ शान्ति अनिवार्य है। शान्ति विधायी उपलब्धि है। यह अशान्ति का अभाव नहीं है। शान्त चित्त में काव्य उगते हैं। कर्म संकल्प पूरे करने की ऊर्जा जागती है। शान्ति उपास्य है।

विश्व अशान्त है। राष्ट्र-राज्य तनावग्रस्त है। हमारा पड़ोसी पाकिस्तान अशान्त है, श्रीलंका अशान्त है। चीन अशान्त है। यह अशान्ति का जन्मदाता है। भारत-चीन सीमा अशान्त हैं। रूस अशान्त है। यह यूक्रेन से युद्धरत है। पड़ोसी नाटो देश अशान्त है। अमेरिका अशान्त है। स्थिति भयावह है। परमाणु युद्ध की आशंका है। तीसरे विश्व युद्ध का खतरा है। युद्ध मानव सभ्यता का सबसे मूर्खतापूर्ण कार्य है। यह सभ्यता के पिछड़ेपन का साक्ष्य है। मतभेद सुलझाने के अनेक विकल्प है। परस्पर संवाद सबसे बड़ा विकल्प है। मध्यस्थों के साथ बैठकर वार्ता से ही मतभेद दूर करना सर्वोत्तम मार्ग है लेकिन अशान्त विश्व में संवाद की वरीयता नहीं। सम्प्रति अशान्ति सत्य है। हिंसा और रक्तपात के आधुनिक हथियार बढ़ रहे है। नई मिसाइलें तैयार है। भारत के अलावा तमाम देशों के शासक युद्ध और धमकी की भाषा बोल रहे हैं। शासकों के मन अशान्त है। मानव मन उद्विग्न है। निद्रा घटी है। अनिद्रा के रोगी बढ़ें हैं। पृथ्वी की अशान्ति ने आकाश को भी बमों, गोली के धुएं से भर दिया है। आकाश अशान्त है और जल समुद्र भी।

अशान्ति के कारण ढेर सारी पृथ्वी घायल है। पर्यावरण का नाश है। हिंसा है। उपद्रव है। वन कट रहे है। वनस्पतियां नष्ट हो रही हैं। काल निर्मम होता है लेकिन प्रशान्त चित्त में समय दुखी नहीं करता। यजुर्वेद के ऋषि की प्रार्थना है, ‘‘जहाँ कभी न क्षीण होने वाली मधुधाराएँ प्रवाहमान है, हमें वहां ले चलो।‘‘ मधुधाराओं की अनुभूति वाली चित्त दशा शान्त अंतःकरण में ही प्राप्त होती है। अशान्ति सर्वदा दुखदाई है। इसका प्रमुख कारण भय है। भयभीत चित्त अशान्त होते हैं। मानसिक अपराध भी अशांत करते है। मन में गलत काम का चिन्तन भी अशान्त कार्य है। अथर्ववेद (19.9) में कहते है ‘‘मन से उत्पन्न दुष्कर्म के प्रभाव वाली अशान्ति हमसे दूर रहे। मन के साथ 5 ज्ञानेंद्रियों से उत्पन्न अपराधजनित अशान्ति भी शान्तिप्रद हो।‘‘ उल्कापात और भूकंप के बारे में कहते है ‘‘कम्पन से हिलने वाली धरती भी हमे शान्ति दे।‘‘ अपशब्द अशान्ति पैदा करते है। सम्प्रति दशांे दिशाओं में शब्द अराजकता है। शब्द संयम टूट रहे है। सोशल मीडिया पर करोड़ो शब्दों की महाभीड़ है। शब्द अपशब्द हो रहे हैं। वाणी की अधिष्ठात्री सरस्वती हैं। उनसे प्रार्थना है, ‘‘हमारे द्वारा बोले गए अपशब्दों से हमारी रक्षा करें। शब्द शान्ति दें।‘‘ अशान्त चित्त कर्तव्य पालन में बाधा है। कर्तव्यपालन के लिए शान्त चित्त चाहिए। समाज में भी शान्ति चाहिए। वनस्पतियां पृथ्वी का आभूषण है। हमारा उनका रिश्ता स्वाभाविक है। चरक ने बताया है सभी वनस्पतियां औषधियां हैं। तुलसी की पूजा होती हैं। यह तमाम रोगों की औषधि हैं। आमला की भी पूजा होती हैं। आयुर्वेद में यह शक्तिवर्धक रसायन हैं। पीपल पूजनीय हैं। पूर्वजों ने इसे अश्वथ कहा हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में बताया कि मैं वृक्षों में अश्वथ हूँ। वैज्ञानिक भी इसकी महत्ता स्वीकार करतें हैं। बरगद की पूजा होती है। गिलोय के औषधिगुण मान्य है। उसे अमृता कहते है। नीम के औषधिगुण़ विख्यात है। बचपन में नीम, तुलसी, बरगद, पीपल, और आमले के प्रति हमारे संरक्षक प्रेमभाव सिखाते थे। वनस्पतियां हमारी परिजन थी। पेड़ लगाना धर्म था। वनस्पतियां, वन उपवन हमारे आत्मीय थे। ग्रीष्म ऋतु में वे शीतल करते थे। इनका संरक्षण संवर्धन राष्ट्रीय कर्तव्य था। यह भारतीय सभ्यता का मार्ग था। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के प्रभाव में अंधाधुंध वन कटान चल रही है। पक्षी अपना घर घोषला कहां बनाएं। गौरैया अब नहीं दिखाई पड़ती। कोयल अपने गीत कहां गाए? तमाम प्रजातियां नष्ट हो रही है। प्रकृति का छंद टूट रहा है। अशान्ति के उपकरण बढे हैं ।शान्ति की प्यास बढ़ी है।
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