महर्षि परशुराम की शिक्षा

महर्षि परशुराम की शिक्षा

डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
महर्षि भृगु के पौत्र और भगवान शिव के शिष्य रहे महर्षि परशुराम के शौर्य को कौन नहीं जानता जिन्होंने अपने बाहुबल से अपने पिता महर्षि जमदग्नि को सप्त ऋषियों में स्थापित किया था । महर्षि परशुराम के अंग अंग से शिक्षा झरती थी । सात चिरंजीवी प्रतिष्ठाओं में एक उनका भी नाम आता है-
अश्वत्थामा वलिर्ब्यासो हनूमानश्च विभिषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीवन:॥
इन्होंने महर्षि कश्यप से वैष्णव मंत्र लिया था। समुद्र के बढ़ते अतिक्रमण को रोकते हुए उन्होंने गुजरात से केरल तक समुद्र को पीछे धकेल दिया था जो आज कोंकण, गोवा, केरल के रूप में विद्यमान है। पिता की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का वध करने का अपजस इन्हें मिलता है, परंतु पिता ने खुश होकर इनसे आशीर्वाद मांगने को कहा। इन्होंने अपनी माता के जीवन का आशीर्वाद मांगा और माता जी जीवित हो गईं। इस तरह परशुराम मातृ- पितृ और गुरु भक्त भी दिखाई देते हैं। गुरु भक्त के रूप में इन्हें जब ज्ञात हुआ कि शिवजी का धनुष पिनाक टूट गया, तो एक क्षण भी बिना रुके धनुष यज्ञ स्थल पर पहुंच जाते हैं। उस समय राजा जनक के संकल्प का प्रतिरक्षण करते हुए श्री राम प्रभु ने तोड़ा नहीं, श्री राम प्रभु के द्वारा छूने से ही धनुष टूट गया था। उन्होंने तोड़ा नहीं था, स्वत ही टूट गया था -
छुवतहि टूट पिनाक पुराना।
मैं केहि भांति करौं अभिमाना॥
उस धनुषयज्ञ स्थल पर परशुराम का आगमन उस परिस्थिति में होता है जब वहां उपस्थित चतुर्विध हारे सभी राजा बगावत छेड़ देते हैं और कहते हैं-
धनुष तोड़ने से क्या होगा, सीता का वरण मैं करूंगा, ऐसा सभी राजाओं का कहना था। -
टूटे धनुष चाँड़ नहिं सरई।
हमही अक्षत कुँअरि को बरई॥
आगे भीषण युद्ध की मात्र आशंका ही नहीं थी, युद्ध संन्निकट भी था। मिथिला में  बिखरती खुशी सिमटने लगी थी । महर्षि परशुराम का आगमन उसी समय होता है।
वस्तुतः परशुराम का अवतरण उसी समय होता है जब किसी की खुशी क्रोध में बदल दी जाती है ,सत्य पर असत्य का बलाघात दिखने लगता है ,समाज उछृंखल हो जाता है ,अनुशासन के दुश्मन अनुसासन के सेवक को हम तुझते कछु घाटि कहकर आँख देखावहिं डाटी जैसी क्रिया करने लगते हैं । गोस्वामी जी लिखते हैं -
जब परशुराम जी पहुंचते हैं, उस समय जनकपुर की नारियां विकल हो खुशी को क्रोध में बदल कर सभी उच्छृंखल राजाओं को गाली बक रही थीं। परशुराम जी का आगमन ऊसी अवसर पर उसी समय होता है -
तेहि अवसर सुनि सिवधनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥
महर्षि परशुराम ने किसी से कुछ कहा नहीं, वे उछृंखल राजा अपने आप डर गए।
देखी महिप सकल सकुचाने।
बाज झपट जनु लबा लुकाने॥
परशुराम जी का वेष -भूषा, उनकी मुखाकृति और वृति को देखने की शक्ति और समय किसमे था? सिर्फ श्री राम और लक्ष्मण ही परशुराम जी में राजा, ब्राह्मण और मुनि का समन्वित रूप देख रहे थे -
गौर सरीर भूति भल भ्राजा।
भाल विसाल त्रिपुंड बिराजा॥
सीस जटा ससि बदन सुहावा।
रिसवस कछक अरुन होइ आबा
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते।
सहजहूँ चितवत मनहूँ रिसाते॥
बृषभ कंध उर वाहु विसाला।
चारु जनेऊ माल मृगछाला॥
कटि मुनि बसन तून दुइ बांधे।
धनु सर कर कुठारु खल कांधे॥
सांत बेस करनी कठिन,
बरनी न जाइ सरूप।
धरी मुनि तनु जनु वीर
रसु, आयउ जँह सब भूप॥
देखत भृगुपति बेसु कराला।
उठे सकल भय विकल भुआला॥
पितु समेत कही-कही निज नामा।
लगे करन सब दंड परनामा॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी।
सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
महर्षि परशुराम का आगमन जिस तरह ध्वनि सुनकर, धनुष की टंकार सुनकर होता है, आज दुनिया के वैज्ञानिक उस गति से कहीं पहुंचकर दिखा तो दें! अगर यह सम्भव नहीं है तो वे भारत को आदर के साथ प्रणाम तो करें। इसलिए हमारे विद्यार्थियों को, युवाओं को परशुराम के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए। परशुराम किसी से कुछ कह नहीं रहे हैं उनके डर से सभी राजा अपने- अपने आसन के नीचे छिप रहे हैं और गर्दन निकाल- निकाल कर कान पकड़ कर साष्टांग दंड प्रणाम कर रहे हैं। 
पितु समेत कही-कही निज नामा।
लगे करन सब दंड प्रणामा॥
अपने पिता के प्रतिशोध में वहुवार पृथ्वी को क्षत्रि बिहीन करने वाले महर्षि परशुराम अन्त में एक क्षत्रीय को ही अपना शारङ्ग देकर महेन्द्रगिरि पर तपस्या करने चले जाते हैं ।
कहि जय जय जय रघुकुल केतू।
भृगुपति गए वनहिं तप हेतू॥
उनके हाव-भाव से उनके बॉडी लैंग्वेज से शिक्षा मिल रही है। हमारे युवाओं को इससे सीख लेनी चाहिए कि हम किस भारत की संतान हैं। संतान जब सत्य संत एवं निर्दिष्ट लक्ष्य के साथ होती है तो वह संतान है अन्यथा संतान शैतान हो जाती है। संतान बनने-बनाने की प्रवृत्ति सिर्फ भारत में ही है। इसीलिए हम अपने देश भारत को माँ कहते हैं। आज भी हमारे राष्ट्र को , समाज को और राष्ट्र के युवाओं को,जिनके फौलादी नसों मे तूफानी रक्त प्रवाहित हो रहा है ,महर्षि परशुराम की आवश्यकता है ।उनकी जयन्ती पर ञह कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें प्रणाम करता है ।

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1 टिप्पणियाँ

  1. वन्दे मातरम्
    हिन्द, हिन्दू ,हिन्दुस्तान,के रक्षण ,संबर्द्धन एवं जन-जन तक संचरण हेतु समर्पित सहित्य संस्कृति और संस्कार को युवाओं की नसों में ठूंस-ठूंस कर ज्वाला फूंकने वाली पत्रिका "दिव्य रश्मि"के माध्यम से राष्ट्र के महा नायक महर्षि परशुराम के जीवन चरित्र पढ़कर बहत्तर वर्षों की नसों में गरम खून का सैलाव उमड़ आया ।इसके लिए इसके कुशल ,कर्मठ एवं ज्ञानवान संपादक डॉ राकेश दत्त जी को बहुत-बहुत बधाई !

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