
प्रेम का प्रतीक
-- वेद प्रकाश तिवारी
सम्राट चाहे कितना ही बूढ़ा हो जाये
वह इस भ्रांति को रखना चाहता है सदा जिंदा कि मैं अभी जवान हूँ
आखिरी क्षण तक वह चाहता है
किसी युवती से देह का सुख पाना
तमाम उम्र कई स्त्रियों को
भोगने के बाद
अंत में वह बन जाता है
प्रेम का प्रतीक
इतिहास के पन्नों में
अपना नाम दर्ज कर
हो जाता है अमर
जिन स्त्रियों को उसने बार-बार भोगा
उन स्त्रियों में से कोई एक
जब हो जाती है
सम्राट के ज्यादा करीब
तो वह भी बन जाती है
प्रेम का प्रतीक
ऐसे प्रतीकों को नवाजा गया है
निश्छल, पवित्र,
अमर प्रेम जैसे शब्दों से
आज के युगल प्रेमी
अपने सफल प्रेम की
मन्नते मांग रहे हैं उन प्रतीकों से
ढूंढ रहे हैं उनमें अपनी छवि
आज भी प्रेम की इस परंपरा को
बढ़ावा देने वाले प्रेम को समझते हैं
अपनी मालकियत
षड्यंत्र या प्रतिशोध जैसे भावों से
उसे करते हैं परिभाषित
बना रहे हैं
सियासी दांव पेंच का हिस्सा
इस कुत्सित चेष्टा से
वे मिटा देना चाहते हैं
उन प्रेम के प्रतीकों को
जो खड़े हैं सत्य, त्याग, समर्पण
की बुनियाद पर
काश ! कि वे जान पाते
किसी स्त्री के
शारीरिक आकर्षण को देखकर
उसे हासिल कर लेना
प्रेम नहीं,
प्रेम जीवन की पराकाष्ठा है
जो समर्पण भाव की
अंतरिम घटना है
जिसने स्त्री को भोग की वस्तु बनाया
वह प्रेम को कहां जान पाया ।
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