जातियों की उत्पत्ति: ऐतिहासिक, शास्त्रीय और सामाजिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
डॉ राकेश दत्त मिश्र
भारतीय समाज का एक प्रमुख और जटिल पहलू "जाति व्यवस्था" है। यद्यपि आज यह एक विवादास्पद और बहस का विषय है, परंतु इसका उद्भव और विकास एक सुव्यवस्थित सामाजिक तंत्र के रूप में हुआ था। जाति व्यवस्था की जड़ें वेद, उपनिषद, स्मृतियों और पुराणों में पाई जाती हैं, जहाँ इसे 'वर्ण व्यवस्था' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस आलेख में हम जातियों की उत्पत्ति, विकास, शास्त्रीय आधार, सामाजिक परिवर्तन, तथा आधुनिक संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता पर विस्तृत चर्चा करेंगे।
1. आदिकाल में मानव जाति: एकता का युग
आदि में सभी मानव एक समान थे। मानव जाति का आरंभ ब्रह्मा द्वारा सृष्टि के निर्माण से हुआ, जहाँ से सभी मनुष्यों का उद्भव हुआ। ब्रह्मा के मानस पुत्रों – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, वसिष्ठ, दक्ष, भृगु आदि ऋषियों के वंशजों से विभिन्न मानव समुदायों का निर्माण हुआ। यह काल जातिविहीन था, जहाँ सभी लोग समान रूप से जीवन जीते थे।
2. कार्य-विभाजन की आवश्यकता और वर्ण व्यवस्था की स्थापना
जनसंख्या वृद्धि के साथ समाज में विभिन्न कार्यों का विकास हुआ – शिक्षा, युद्ध, कृषि, व्यापार, सेवा आदि। इन कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए समाज को वर्गीकृत करना पड़ा। इस समय 'गुण, कर्म और स्वभाव' के आधार पर समाज को चार प्रमुख वर्णों में विभाजित किया गया:
ब्राह्मण – शिक्षा, ज्ञान, यज्ञ, वेद-अध्ययन, उपदेश आदि कार्य
क्षत्रिय – शासन, सुरक्षा, युद्ध, प्रजा की रक्षा
वैश्य – कृषि, व्यापार, पशुपालन
शूद्र – सेवा, हस्तकला, निर्माण आदि
यह विभाजन स्थूल नहीं था, बल्कि लचीलापन लिए हुए था। श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 4, श्लोक 13) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
अर्थात् मैंने चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है।
3. विवाह और सामाजिक शुद्धता के नियम
प्राचीन ऋषियों ने समाज की मर्यादा और संतुलन बनाए रखने हेतु विवाह के नियम भी बनाए। उन्होंने वर्णों के भीतर विवाह को प्राथमिकता दी, जिससे सामाजिक शुद्धता बनी रहे। किंतु जब कोई व्यक्ति वर्ण के बाहर विवाह करता था, तो उसे 'वर्णच्युत' माना जाता था। विवाह के दो प्रमुख प्रकार माने गए:
अनुलोम विवाह – उच्च वर्ण का पुरुष निम्न वर्ण की स्त्री से विवाह करता है। यह यद्यपि अधम माना गया, परंतु सामाजिक रूप से स्वीकार्य रहा।
प्रतिलोम विवाह – निम्न वर्ण का पुरुष उच्च वर्ण की स्त्री से विवाह करता है। इसे सामाजिक रूप से अस्वीकार्य माना गया और इससे उत्पन्न संतानों को वर्ण से बाहर कर दिया गया।
4. वर्णच्युतों से जातियों की उत्पत्ति
जब वर्ण व्यवस्था से हटकर विवाह हुए और उनसे उत्पन्न संतानें सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं रहीं, तब ऋषियों ने उन्हें अलग जातियों में वर्गीकृत कर दिया। मनुस्मृति के 10वें अध्याय में ऐसे 40 से अधिक जातियों का वर्णन मिलता है, जो प्रतिलोम या अनुलोम विवाहों से उत्पन्न मानी गई हैं।
उदाहरणतः:
ब्राह्मण पिता + क्षत्रिया माता = सूत (रथसंचालक, इतिहासकार)
क्षत्रिय पिता + वैश्य माता = मागध (घोषक)
वैश्य पिता + शूद्र माता = वैदेहक (दूत, संदेशवाहक)
शूद्र पिता + ब्राह्मणी माता = चांडाल (श्मशान कर्म, अस्पृश्य)
इस प्रकार समाज में अनेक जातियाँ जन्म लेने लगीं, जिनके लिए आजीविका के विशेष कार्य निर्धारित किए गए।
5. जातीय पहचान और रीति-रिवाज
प्राचीनकाल में प्रत्येक जाति की अपनी विशेष रीति-रिवाज, वस्त्र, आहार-विहार, भाषा, पूजा-पद्धति आदि होती थी। यही उनकी पहचान थी। उदाहरणतः:
चर्मकारों के पास चमड़े का काम,
लोहारों के पास धातु निर्माण,
कुम्हारों के पास मिट्टी के बर्तन,
ब्राह्मणों के पास वेदपाठ और पूजा,
क्षत्रियों के पास शस्त्र और शासन।
इनकी पहचान उनके कार्य, वस्त्र और व्यवहार से हो जाती थी। किंतु जैसे-जैसे समय बीता, औद्योगीकरण, शिक्षा और सामाजिक समता की प्रक्रिया में सबका रहन-सहन और जीवनशैली एक जैसी होती गई। इससे जातीय पहचान कमजोर होती गई।
6. जातिवाद का परवर्ती रूप: सामाजिक विकृति
जहाँ वर्ण व्यवस्था एक लचीली और गुण-कर्म आधारित व्यवस्था थी, वहीं जाति व्यवस्था एक कठोर जन्म आधारित व्यवस्था बनती गई। धीरे-धीरे:
जातियों में ऊँच-नीच का भाव आया,
अस्पृश्यता और भेदभाव फैला,
सामाजिक गतिशीलता बंद हो गई,
ज्ञान और अधिकार सीमित वर्गों तक सिमट गया।
इसी विकृति के कारण समाज में विद्रोह, आंदोलनों और पुनर्जागरण की लहरें आईं।
7. जाति पर शास्त्रीय प्रमाण
जाति व्यवस्था पर मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पराशर स्मृति, महाभारत, रामायण, तथा पुराणों में वर्णन मिलता है। विशेष रूप से:
मनुस्मृति – अध्याय 10: वर्णसंकर, अनुलोम-प्रतिलोम विवाह, और उनकी संतान से उत्पन्न जातियों का वर्गीकरण।
दक्षस्मृति – अध्याय 5: जाति विशेष के कार्य, अधिकार और विवाह नियमों का उल्लेख।
महाभारत – शांति पर्व: वर्णाश्रम धर्म और जाति की मर्यादा पर बल।
भागवत पुराण: गुण और कर्म के अनुसार समाज का विभाजन।
8. आधुनिक भारत और जातिवाद
आज जातिव्यवस्था भारतीय समाज में संवेदनशील विषय है। भारत का संविधान जाति के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव को निषेध करता है। आधुनिक भारत में:
समानता का अधिकार,
आरक्षण व्यवस्था,
जाति आधारित जनगणना,
जातीय राजनीति ने जाति को एक नया आयाम दिया है। यह न तो पूर्णतः समाप्त हो सकी, न ही यथावत् बनी रह सकी।
9. जाति व्यवस्था: सामाजिक समरसता की दिशा में
आज आवश्यकता है कि हम जाति को विभाजन का नहीं, बल्कि विविधता का प्रतीक मानें। प्रत्येक जाति, उपजाति, और समुदाय के पास अपनी संस्कृति, कला, कौशल और परंपरा है। इसे संरक्षित करते हुए समता, न्याय और बंधुत्व की भावना को बढ़ावा देना ही समय की मांग है।
निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते है कि जातियों की उत्पत्ति कोई सामाजिक षड्यंत्र नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आवश्यकता थी। यह व्यवस्था समाज के समुचित संचालन हेतु विकसित हुई थी, किंतु कालांतर में विकृत हो गई। यदि हम इसके मूल उद्देश्य – गुण, कर्म, और मर्यादा – को समझें, तो यह आज भी समाज के लिए मार्गदर्शक बन सकती है। जाति का सम्मान उसकी संस्कृति और कौशल के लिए हो, न कि जन्म के आधार पर भेदभाव हेतु – यही इस विषय की सार्थकता है।
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