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तुम्हारे कान बहरे हैं

तुम्हारे  कान  बहरे हैं

प्रगति के पाँव ठहरे हैं
दिलों में घाव  गहरे हैं  

सुना कब आपने,लगता
तुम्हारे  कान   बहरे हैं 

आप जब से  यहाँ आए
झूठ के  'फ्लैग'  फहरे हैं 

पढ़ाओ मत  हमें ज्यादा 
पढ़ा  हमने    ककहरे हैं 

असल चेहरा नहीं दिखता 
लगे  चेहरे पे  चहरे हैं 

सूख कर हो गए काॅटा
बदन  सबके  इकहरे हैं 

तुम्हारे  राज में  देखा
सिरफ सपने  सुनहरे हैं 

छांट दी  डालियाँ, सारे
पेड दिखते   छरहरे हैं 

नहीं  विश्वास है  जय पे
लगाए  खूब   पहरे  हैं
           *
-जयराम जय
'पर्णिका',बी-11/1,कृष्ण विहार,आ.वि.
कल्याणपुर,कानपुर-208017 (उ०प्र०)
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