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विवाहों के विविध प्रकार

विवाहों के विविध प्रकार

प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज
ब्राह्म विवाह वह विवाह है जिसमें वेद पढ़े हुये सदाचारी वर को अनुरोध पूर्वक बुलाकर वस्त्रभूषाणादि सहित अलंकृता कन्या का दान किया जाता है। इस विवाह में किसी भी प्रकार की कोई याचना नहीं की जाती है। इसीलिये इसे विशेषकर धर्ममय विवाह कहा गया है। स्मृतिमुक्ताफल में कहा गया है कि विवाह का उद्देश्य ही धर्म की साधना करना है। इसीलिये तो विवाह के साथ धर्म शब्द जुड़ा हुआ है। मनु ने कहा है -
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम्।। आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः।
(मनुस्मृति, अध्याय 3, श्लोक 27)
जब कन्या पिता के द्वारा यज्ञ आदि करने वाले अविवाहित ऋत्विज अथवा अध्वर्यु युवक को दी जाती है तो उसे दैव विवाह कहते हैं। जब कन्या को शास्त्र विधि से एक या दो गाय उपहार स्वरूप देकर विवाह सम्पन्न कराते हुये योग्य वर को दान दिया जाता है, तब उसे आर्ष विवाह कहते हैं। जब पिता भलीभांति अलंकृता तथा अर्चिता अर्थात् सम्मानित कन्या को शास्त्र विधि से विवाह क्रिया सम्पन्न होने के उपरांत इस आशीर्वचन के साथ विदा करते हैं कि तुम दोनों धर्म का आचरण करते हुये साथ रहो, तब उसे प्राजापत्य विवाह कहा जाता है। टीकाकारों ने व्याख्या की है कि यह जो धर्माचरण करने का वचन कहा गया है उसमें अर्थ और काम सम्मिलित है। वर व वधु दोनों विवाह के समय यह वचन देते हैं कि वे धर्माचरण करेंगे। शंखस्मृति के अनुसार जब धर्माचरण का वचन देने वाले वर को कन्या दी जाती है, तब उसे प्राजापत्य विवाह कहा जाता है।
आसुर विवाह के विषय में मनु का कहना है कि जब ज्ञातिजनों को अर्थात् कन्या के पिता, चाचा इत्यादि को धन देकर कोई विवाह यज्ञ सम्पन्न किया जाता है तब उसे आसुर विवाह कहते हैं-
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।
कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते।। (मनुस्मृति अध्याय 3, श्लोक 31)
इस श्लोक का कतिपय टीकाकारों ने यह भाष्य किया है कि वर के ज्ञाती जनों को तथा कन्या को धन आदि देकर विवाह करना आसुर विवाह है। इस प्रकार दहेज देकर या लेकर विवाह करना आसुर विवाह की श्रेणी में आता है। विशेषकर याज्ञवल्क्य स्मृति ने कन्या पक्ष के द्वारा वर पक्ष को धन देकर विदा करने को ही आसुर विवाह कहा है।
गान्धर्व विवाह के विषय में मनु का कथन है -
इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च।
गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः।। (मनुस्मृति अध्याय 3, श्लोक 32)
अर्थात् जब कन्या और वर यानी अविवाहित कन्या और अविवाहित युवक अपनी इच्छा से परस्पर संयोग करते हैं और कामभाव से भरकर जोड़ी बनाते हैं यानी मिथुनकर्म करते हैं तो उसे गांधर्व विवाह कहा जाता है। इस पर मेधातिथि की टीका है -
इच्छया च वरस्य कुमार्याश्च प्रीत्या परस्परसंयोग एकप्रदेशे संगमनम्। तस्येयं निन्दा मैथुन्यः कामसम्भवः। मिथुन प्रयोजनो मैथुनः, तस्मै हितो मैथुन्यः एष एवार्थो विस्पष्टीकृतः कामसम्भव इति। सम्भवत्यस्मादिति सम्भवः, कामः सम्भवोऽस्येति।
अर्थात् वर और कुमारी कन्या जब परस्पर प्रीति पूर्वक किसी एक स्थान में एकांत में संगम करें तो इसे ही कामसंभव कहा गया है। लोग इसकी निन्दा करते हैं परंतु निंदा का कारण यह संगम नहीं है। अपितु यह है कि इसमें धर्म की अपेक्षा नहीं है।
याज्ञवल्क्य स्मृति का कहना है - ‘गान्धर्वः समयान्मिथः’। (आचाराध्याय 61)
इस पर शिलाहार राजा की अपरार्क टीका है -
कन्यावरयोरन्योन्यसमयात्त्वं मे भार्या त्वं मे पतिरित्येवंरूपाद्दाननिरपेक्षाद्यः कन्यास्वीकारः स गान्धर्वो विवाहः।।
(कन्या और वर जब एक-दूसरे से एकान्त में मिलते हुये पति और भार्या होने का वचन देते-लेते हैं, अर्थात् कन्या से वर कहता है कि तुम मेरी भार्या हो और कन्या वर से कहती है - त्वं मे पतिः - तुम मेरे पति हो, इस प्रकार रूप से परस्पर आकर्षित होकर बनने वाले संबंध को वचन पूर्वक विवाह का स्वरूप देना गन्धर्व विवाह है। इसमें किसी प्रकार का दान आदि नहीं होता।)
इसीलिये कहा गया है कि इस तरह का संगम करते ही गंधर्व विवाह सम्पन्न तो हो जाता है परंतु इसके उपरांत होम, सप्तपदी आदि शास्त्रोक्त विधि से सम्पन्न करने पर वह विवाह धर्म पूर्ण हो जाता है। अग्नि के समक्ष परिणय होने पर ही इस संगम को धर्ममय विवाह का स्थान प्राप्त होता है। स्त्री को धर्मशास्त्रों ने स्वयंवर की स्वतंत्रता दी है। अतः अपना वर चुनने की स्त्री को पूर्ण स्वतंत्रता है। परंतु उसकी सामाजिक मान्यता और धार्मिक मान्यता दोनों के लिये बाद में विधिपूर्वक शास्त्रविधि से अग्नि के समक्ष प्रदक्षिणा अर्थात् सप्तपदी आदि एवं होम सम्पादित होना आवश्यक है।
वस्तुतः राक्षस विवाह और पिशाच विवाह की निंदा ही इसीलिये की जाती है कि इसमें धर्मशास्त्रों द्वारा स्त्री को दी गई स्वयंवर की स्वतंत्रता का हरण होता है। ब्राह्मण के लिये राक्षस विवाह का स्पष्ट निषेध है। क्योंकि इसमें वर पक्ष का कन्या पक्ष से संघर्ष होता है जिसमें किसी भी पक्ष को चोट लग सकती है। ऐसी स्थिति में दोनों ही पक्षों में ब्राह्मण रहने के कारण ब्रह्महत्या जैसे महापाप की संभावना बनी रहती है। इसलिये इसको ब्राह्मणों के लिये पूर्णतः वर्जित किया गया है।
प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज
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