प्राचीन कालीन भारतीय अग्नि वर्षक यंत्र व अग्निक्रीड़ाएँ :-अशोक “प्रवृद्ध”
विगत कुछ वर्षों से भारत के बहुसंख्यकों के पर्व दीपावली के आने के पूर्व पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाने की बात जोर - शोर से उठती रही है, और कुछ राज्यें भी इस अवसर पर पटाखों की खरीद- बिक्री व पटाखा चालन पर रोक लगाती रही हैं, लेकिन यही बात आंग्ल नववर्ष, क्रिसमस आदि अल्पसंख्यकों के पर्वों पर नहीं दिखाई देती। अल्पसंख्यकों के पर्वों पर पटाखों के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की मुंह बंद ही रहती है। इस वर्ष भी दीवाली पर पटाखों के सम्बन्ध में दिल्ली सरकार के द्वारा पर्यावरण की दलील देकर इस सम्बन्ध में दिए जा रहे निर्देश आदि को लेकर देश भर में बहस चल रही है। कई प्रतिष्ठित लोग इसे बहुसंख्यकों के प्रति अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप बता रहे हैं। इस प्रकार के आदेश से देश का बहुसंख्यक वर्ग जहां खुश नजर नहीं आता, वहीं छद्म धर्मनिरपेक्ष वर्ग इसका स्वागत करते हुए कह रहा है कि पटाखों, अग्निक्रीड़ाओं अर्थात आतिशबाजी का रामायण में कहीं भी उल्लेख नहीं है। आतिशबाजी का भारतीय संस्कृति से कोई लेना -देना नहीं है, और न ही आतिशबाज़ी का संस्कृत पाली या हिंदी में कोई जिक्र है। लेकिन सत्य इसके ठीक विपरीत है, और भारतीय पुरातन ग्रन्थों में इसका वृहत अंकन हुआ है । यह सर्वविदित है कि आतिशबाजी फारसी शब्द है, यह संस्कृत, पाली अथवा हिंदी भाषा का शब्द नहीं है। फारसी भाषा में आतिशबाजी में आतिश का अर्थ है आग और बाजी का अर्थ है खेल अथवा तमाशा अर्थात आग का खेल अथवा तमाशा। इस शब्द के लिए भारतीय पुरातन ग्रन्थों में आग्नेयास्त्र शब्द का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ है आग बरसाने वाला अस्त्र। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेद से लेकर पुराण, निबन्ध और महाकाव्य ग्रन्थों तक में आग और अग्निवर्षक अस्त्र- शस्त्रों, प्रक्षेपास्त्रों का वृहत वर्णन प्राप्य है। भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अग्नि, अग्निवर्षक यंत्र , बन्दूक, तोपों और इन यंत्रों, अस्त्र- शस्त्रों के निर्माण व संचालन की प्रक्रिया का वर्णन वृहत रूप में अंकित हुआ है । और तनिक भी बुद्धि रखने वाले यह जानते ही हैं कि बन्दूक, तोप, आग्नेयास्त्र, प्रक्षेपास्त्र आदि यंत्र ध्वनि के साथ ही अग्नि वर्षा करते हैं ।भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अंकित इन प्राचीन भारतीय अस्त्र- शस्त्र तकनीकी विवरणियों से यह भी कपोलकल्पित कथन ही लगता है कि अग्नि के करतब और पटाखों का आगमन चीन से हुआ।
भारतीय पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के आग्नेयादि अस्त्रों और शस्त्रों का ज्ञान अन्तर्निहित है। यद्यपि आज धनुर्वेद के साथ ही युद्धविद्या से सम्बन्धित ग्रन्थों के मूल ग्रन्थ लुप्त हैं तथापि विभिन्न भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अंकित विवरणियों से प्राचीन काल की अस्त्र- शस्त्र विद्या के सन्दर्भ में अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीनकाल में बन्दूकों और तोपों का तथा अन्य प्रक्षेपास्त्रों का प्रयोग होता था। वेदों के उत्कट विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में इस विषय पर प्रकाश ड़ालते हुए कहा है कि प्राचीन काल में बन्दूक, तोप, आग्नेयास्त्र, प्रक्षेपास्त्र आदि शस्त्र भी थे, क्योंकि पदार्थविद्या से इन सब बातों का सिद्ध होना सम्भव है। ये सब बातें जिन से अस्त्र -शस्त्रों को सिद्ध करते थे वे मन्त्र अर्थात विचार से सिद्ध करते और चलाते थे। मन्त्र नाम है विचार का जैसा राजमन्त्री अर्थात राजकर्मों का विचार करने वाला कहाता है, वैसा मन्त्र अर्थात विचार से सब सृष्टि के पदार्थों का प्रथम ज्ञान और पश्चात क्रिया करने से अनेक प्रकार के पदार्थ और क्रियाकौशल उत्पन्न होते हैं। जैसे कोई एक लोहे का बाण वा गोला बनाकर उस में ऐसे पदार्थ रक्खे कि जो अग्नि के लगाने से वायु में धुआं फैलने और सूर्य की किरण वा वायु के स्पर्श होने से अग्नि जल उठे इसी का नाम आग्नेयास्त्र है। जब दूसरा इस का निवारण करना चाहै तो उसी पर वारुणास्त्र छोड़ दे। अर्थात जैसे शत्रु ने शत्रु की सेना पर आग्नेयास्त्र छोड़कर नष्ट करना चाहा वैसे ही अपनी सेना की रक्षार्थ सेनापति वारुणास्त्र से आग्नेयास्त्र का निवारण करे। वह ऐसे द्रव्यों के योग से होता है जिस का धुआं वायु के स्पर्श होते ही बादल होके झट वर्षने लग जावे, अग्नि को बुझा देवे। ऐसे ही नागपाश अर्थात जो शत्रु पर छोड़ने से उस के अंगों को जकड़ के बांध लेता है। वैसे ही एक मोहनास्त्र अर्थात जिस में नशे की चीज डालने से जिस के धुएं के लगने से सब शत्रु की सेना निद्रास्थ अर्थात् मूर्छित हो जाय। इसी प्रकार सब शास्त्राशस्त्र होते थे। और एक तार से वा शीशे से अथवा किसी और पदार्थ से विद्युत उत्पन्न करके शत्रुओं का नाश करते थे उसको भी आग्नेयास्त्र तथा पाशुपतास्त्र कहते हैं। तोप और बन्दूक ये नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आर्य्यावर्त्तीय भाषा के नहीं किन्तु जिस को विदेशी जन तोप कहते हैं संस्कृत और भाषा में उस का नाम शतघ्नी और जिस को बन्दूक कहते हैं उस को संस्कृत और आर्य्यभाषा में भुशुण्डी कहते हैं। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े वे भ्रम में पड़ कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ बकते हैं। उस का बुद्धिमान लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्र वालों, उन से यूनानी, उन से रोम और उन से यूरोप देश में, उन से अमेरिका आदि देशों में फैली है।
महर्षि दयानन्द के मन्तव्य से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में बन्दूकें और तोपों का प्रयोग होता था। इस तथ्य को इसलिए भी बल मिलता है क्योंकि महर्षि दयानन्द के कथन की पुष्टि विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेद के साथ ही अन्य ग्रन्थों से भी होती है। विश्व के प्रथम ग्रन्थ वेदों में तथा उसकी तैत्तिरीय शाखा में ही बन्दूक की गोली और तोप का वर्णन प्राप्त होता है –
यदि॑ नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पुरु॑षम्।
तं त्वा सीसे॑न विध्यामो यथा नोऽसो अवी॑रहा।।
– अथर्ववेद 1-16-4
अर्थात- यदि कोई दुष्ट हमारी गायों की, घोड़ों की और मनुष्यों की हिंसा करता है तो हम उसको शीशे की गोली से बींध देते हैं।
शीशे की गोली से बिंध देने का तात्पर्य दूर से फेंककर अर्थात बन्दूक से गोली चलाकर बींधना ही है। तैत्तिरीय संहिता में स्पष्ट रूप से तोप का सूर्मी और शतघ्नी नाम से प्रयोग किया गया है –
सखा वै सूर्मी कर्णिकावती। एतया हस्म वै देवा असुराञ्शतबर्हास्तृहन्ति। य एतया समिधमादधाति। वज्रमेवैतच्छतघनीयं जनान् भ्रातृव्याय प्रहरति।
- तैतिरीय संहिता 1-5-7
इसका भाष्य करते हुए सायणाचार्य कहते हैं –
ज्वलन्ती लोहमयी स्थूला सूर्मी। सा च कर्णिकावती छिद्रवती। अतएव ज्वलन्तीत्यर्थः। एकेन प्रहारेण शतसङ्ख्यकान् मारयन्तः शूरा शतवर्हाः। असुराणां मध्ये तादृशान् (सूयोद्धन्) एतया ऋचा देवा हिंसन्ति। अनया समिधादानेन शतघ्नीमेनां ऋच वज्र कृत्वा वैरिणं हन्तुं प्रहरति।।
अर्थात -यह लोहे का बना हुआ जलता हुआ स्थूल यन्त्र हैं। इसके बीच में छिद्र होता है। इस छिद्र में अग्नि रहती है, वह अग्नि बाहर निकलती है। जो असुर सूर्मी के द्वारा युद्ध करते थे वे एक ही बार में सैकड़ों लोगों को आहत कर देते थे। देवता भी उनको मारने के लिये शतघ्नी का प्रयोग करते थे।
इसी शतघ्नी और नलिका अर्थात बन्दूक का कुछ विस्तार के साथ वर्णन दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य रचित शुक्रनीति नामक ग्रन्थ में अंकित प्राप्य है –
नालिकं दिविधं ज्ञेयं बृहत् क्षुद्र विभेवत:।
तिर्यगूर्ध्वच्छिद्रमूलं नालं पच्ञवितस्तिकम्।।
मूलाग्रयोर्लक्ष्यभेदि – तिलबिंदुयुतं सदा।
यंत्राघाताग्निकृद् द्रावचूर्णमूलककर्णकम्।।
सुकाष्ठोपांगबुध्नं च मध्यांगुलबिलांतरम्।
स्वान्तेsग्निचूर्णसं¬धात्री शलाका संयुतं दृढम्।।
लघु नालिका मप्येतत्प्रधायँ पत्तिसादिभि:।
यथा यथा तु त्वक्सारं यथा स्थूल बिलान्तरम्।।
यथा दीघँ बृहद्गोलं दूरभेदि तथा तथा।
मूलकीलोद्गमाल्लक्ष्य¬समसंधानभाजि यत्।।
बृहन्नालिकसंज्ञं तत्काष्ठबुध्नविवर्जि¬तम्।
प्रवाह्मं शकटाघैस्तुसुयुक्तं विजयप्रदम्।।
-शुक्रनीति 4/1028-1033
शुक्र नीति में दावचूर्ण में पाँच पल शोरा, एक पल गन्धक और आग से पके अर्क, स्नुही कोयला लगभग एक पल होता था। इन सबको अलग-अलग पीस लिया जाता था। फिर इनमें केले या स्नुही के रस की भावना देते थे और धूप में सूखा लेते थे। यह अग्निचूर्ण पिसने पर शक्कर जैसा हो जाता था। भिन्न- भिन्न बारूदों में शोरा भिन्न - भिन्न भागों में मिलाया जाता था, किसी में छः भाग तो किसी में चार भाग, और कोयला तथा गन्धक ऊपर बताए परिमाण में ही तोप में लौह के बड़े गोले और छोटे - छोटे छर्रे भी भरे जाते थे। लघुनालिका के लिए सीसा अथवा किसी दुसरी धातु की गोली ली जाती थी और नालास्त्र या तोप के लिए लोहसार अथवा अन्य उचित धातु की और तोप की सफाई पर उचित ध्यान रखा जाता था। इन्हें संमाजित करके स्वच्छ रखते थे। बारूद तैयार करने के लिए अंगार, गन्धक, सुवर्चि लवण, मन:सिला, हरताल, सी¬स किट्ट, हिंगुल, कान्तलोह की रज, खपरिया, लाख, नील्य, रोजिन इन सब द्रव्यों की बराबर अथवा न्यूनाधिक उचित मात्रा ली जाती थी। अग्निसंयोग द्वारा बारूद के ये गोले लक्ष्य तक फेकें जाते थे।
इसी तथ्य को निरुपित करते हुए शुक्रनीति में कहा गया है –
सुवचिलवणात् पञ्चपलानि गंधकात्पलम्।
अन्तर्धूमविपक्वार्कस्नुह्माघंगारत: पलम्॥
शुद्धात्संग्राह्म संचूर्ण्य संमील्य प्रपुटेद्रसै:।
स्नुह्मर्काणां रसे तच्च शोषयेदातपे तथा॥
पिष्ट्वा शर्करवच्चैतदग्निचूर्णं भवेत्खलु।
सुवर्चिलवणाद् भागा: षड् वा चत्वार एव वा॥
नालास्त्रार्थाग्निचू¬र्णे तु गंधागारौ तु पूर्ववत्।
गोलो लोहमयो गर्भ: गुटिक: केवलोSपि वा॥
सीसस्य लघुनालार्थे ह्मन्यधातुभवोsपि वा।
लोहसारमयं वापि नालास्त्रं त्वन्यधातुजम्॥
नित्यसंमार्जनस्वच्छम¬स्त्रपातिभिरावृतम्।
अंगारस्यैव गंधस्य सुवचिलवणस्य च॥
शिलाया हरितालस्य तथा सीसमलस्य च
हिंगुलस्य यथा कातरजस: कर्परस्य च॥
-शुक्र नीति 1034-1040
आकाशभैरवकल्प नामक ग्रन्थ में भी अग्निक्रीड़ाओं व बन्दूकों का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में एक अत्यंत उच्च कोटि के आतिशबाजी का वर्णन किया गया है। इसमें बाण वृक्षों का निर्देश है, जो बांस के बने पिंजर होते थे, जिन पर से अग्निबाण अन्तरिक्ष में छोडे जाते थे। इन पिंजरों पर से ऐसी चिन्गारियां निकलती थी कि वे चामर के तुल्य मालूम होती थी। इन बाणों के छूटने पर अन्त में एक विशेष ध्वनि भी निकलती थी।
स्पष्ट है यह एक उच्च किस्म की आतिशबाजी का उल्लेख है -
तत: पश्येद्दारूयंत्रविशे फान् स्यन्दनाकृतीन्। दिवाभ्रान्त्या कल्पयत: केनचित्तेजसा निशि॥ उच्चावचान् बाणवृक्षान् तत: पश्येज्जनेश्वर:। स्पुलिंगान् चामराकारान् तिर्यगुदगिरतो बहून्॥ तत: प्रलयकालोघद्घनगर्जित भीषणम्। श्रृणुयाद् बाणनिनदं विनोदावधिसूचकम्।।
-आकाशभैरवकल्प
अग्नि चूर्ण और अग्निक्रीड़ा के ऐतिहासिक प्रमाण भी प्राप्य हैं । उडीसा के गजपति प्रतापरूद्रदेव की 1417-1539 ईस्वी में रचित एक पुस्तक कौतुक चिन्तामणि में अग्नि क्रीड़ाओं अर्थात आतिशबाजियों तथा उनके बारूद का उल्लेख है।
इसमें कल्पवृक्ष, चामर बाण, चंद्रज्योति, चंपाबाण, पुष्पवर्ति, छुछंदरी रस बाण, तीक्ष्ण नाल ओर पुष्प बाण नाम की आतिशबाजियों के वर्णन हैं। इन आतिशबाजियों के बारूद में गंधक, शोरा, कोयला, इस्पात चूर्ण, लोह चूर्ण, मरकत सी छवि वाला जांगल नामक ताम्र से उत्पन्न द्रव्य, तालक, गैरिक, खादिर दारू, बांस की नाल, पंच लवण, चुम्बक - पत्तर, चिन्नुकात्रय, एरंडीयबीज, अर्कागार, गोमूत्र, हिंगुल, हरिताक आदि पदार्थ उपयोग मे आते थे। उल्लेखनीय है कि राजा भोज ने अपने समराङ्गण सूत्रधार में भी एक विस्फोटक शस्त्र का उल्लेख किया है। जिसे सिंहनाद यन्त्र कहा है।
वृत्तसन्धितमथायसयन्त्रं तद् विधाय रसपूरितमन्तः।
उच्चदेशविनिधापिततप्तं सिंहनादमुरजं विदधाति।।
– समराङ्गण सूत्रधार 31.99
अर्थात- एक ऐसा यंत्र बनाया जाए जो अयस का हो। इसमें गोलाई वाले पात्रों के सन्धिकृत किया जाएगा। उसके अन्दर रस अर्थात पारा या अन्य विस्फोटक सामग्री को भरा जाता है। इसे किसी ऊँचे स्थान से छोड़ा जाए तो यह तप्त होकर सिंह के समान गर्जना करता है।
इस यंत्र के लाभ का वर्णन करते हुए राजा भोज अपने समराङ्गण सूत्रधार में लिखते हैं –
स कोऽप्यस्य स्फारः स्फुरति नरसिंहस्य महिमा
पुरस्ताद् यस्यैता मदजलमुचोऽपि द्विपघटाः।
मुहुः श्रुत्वा श्रुत्वा निनदमपि गम्भीरविषमं
पलायन्ते भीतास्त्वरितमवधूयाङ्कुशमपि।।
– समराङ्गण सूत्रधार 31.100
अर्थात - इस यंत्र के प्रताप को कौन नहीं जानता है? इसकी महिमा नरसिंह के समान है। इसके विस्फोटन से मद एवं जल छोड़ने वाले हाथियों के समूह भी व्याकुल होकर भड़क उठते हैं। उनको चाहे कैसे भी अंकुश में रखने का यत्न हो, सिंहनाद – यन्त्र के विस्फोट से उत्पन्न गम्भीर एवं विषम गड़गड़ाहट से भयाक्रान्त होकर वे पलायन पर विवश हो जाते हैं।
विजयनगर के दरबार में देवराय द्वितीय के समय 1443 ईस्वी में सुल्तान शाह रूख का दूत अब्दुर्र रज्जाक रहता था इसने लिखा है कि रामनवमी के अवसर पर उसने वहां आतिशबाजियाँ देखी। सुमात्रा देश के वरमीथा नामक एक विदेशी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि उसने 1442 ईस्वी में विजयनगर में बहुत सारी आतिशबाजियाँ देखी थी। चौदहवीं सदी के आस-पास में ये बारूद की विद्या विजयनगर से सुमात्रा द्वीपों में पहुँची। बारबोसा ने अपनी 1518 ईस्वी की यात्रा में गुजरात के एक विवाहोत्सव का उल्लेख किया है जिसमे अग्निबाण छोड़े गए थे।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अथर्ववेद, तैतरीय संहिता, शुक्रनीति आदि प्राचीन ग्रन्थों में तोपों अर्थात नलिका और शतघ्नी और बन्दूकों अर्थात भुशुण्डी का उल्लेख तो है ही आग्नेयास्त्रों का वर्णन भी कि रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों में वर्णित है। रामायण में बहुत सारे अस्त्र – शस्त्र का वर्णन अंकित मिलता है। वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 17 में भी आग्नेयास्त्र का वर्णन है। वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 17 /4-17 के अनुसार जब श्रीराम विश्वामित्रजी के आश्रम में गये थें तो उन्हें विश्वामित्र ने महादिव्य दण्डचक्र,धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र और अति प्रचण्ड ऐन्द्रास्त्र,वज्रास्त्र, महादेवास्त्र, ब्रह्मशिर और ऐषीक, सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मास्त्र, मोदकी व शिखरी नामक गदाएँ, अत्यंत उग्र धर्मपाश व कालपाश अस्त्र, वरुण का वरुणास्त्र और शुष्क व आर्द्र दो अशनियाँ,पैनाक व नारायणास्त्र, शिखर नामक आग्नेयास्त्र, प्रथम नामक वायव्यास्त्र, ह्यशिरास्त्र और क्रौञ्चास्त्र नामक दो शक्तियाँ, भयंकर कङ्काल, मुसल, कपाल और कङ्कण नाम के अस्त्र,राक्षसों को मारने के लिए उपयोगी विद्याधर और नन्दन नामवाले अस्त्र सहित कई अन्य अस्त्र-शस्त्र व आग्नेयास्त्र प्रदान किये। इस तरह अनेकों अस्त्र और शस्त्र विश्वामित्र मुनि ने श्रीराम को प्रदान किये थे, जिनसे अग्नि क्रीड़ा के साथ ही शत्रुओं को भीषण प्रज्वल्यमान अग्नि वर्षा से दग्ध किया जा सकता था । इस विषय में रामायण. महाभारत और पुराणादि ग्रन्थों में विस्तृत विवरण अंकित हैं । महाभारत में भी अनेक अस्त्र-शस्त्र का वर्णन है और महाभारत के कई वीर इन अस्त्र- शस्त्रों का धारण व उपयोग करते थे ।
दीपावली पर पटाखे जलाने का पौराणिक आधार भी है। स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, कार्तिकमास महात्म्य, दीपोत्सव कृत्य, भविष्यपुराण, उत्तरपर्व, अध्याय 140 व पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय 122 में दीपावली उत्सव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि असुर राजा बलि के कार्तिक अमावस्या के दिन पाताल जाने के उपलक्ष्य में दीपावली का पालन होता है, सन्ध्या को स्त्रियों द्वारा लक्ष्मी पूजा के बाद दीप जलाने तथा उल्का अर्थात आतिशबाजी किया जाना उत्तम होता है । उल्का तारा गणों के प्रकाश का प्रतीक है। आधी रात को लोगों के सो जाने पर पटाखादि का जोर से शब्द होना चाहिये जिससे अलक्ष्मी भाग जाये। भविष्य पुराण के अनुसार विस्फोटक को बाण कहते थे और इनकी उपाधि ओड़िशा में बाणुआ तथा महाबाणुआ है। स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, भविष्यपुराण में दीपमाला प्रज्ज्वलित करने के साथ ही अनेक प्रकार के दीपवृक्ष खड़े करने का विधान है। आतिशबाजी दीपवृक्ष का ही एक रूप है। अनार, रॉकेट आदि से वृक्ष की तरह प्रकाश प्रज्ज्वलन होता है। मान्यता है कि कार्तिक अमावस्या को पृथ्वी पर दैत्य व राक्षस आ जाते हैं, उन्हें दूर रखने व उनसे भय को नष्ट करने हेतु ही अधिकाधिक प्रकाश करने का विधान पुरातन शास्त्रों में किया गया है। तेज शब्दों से राक्षस डरते हैं और दूर रहते हैं। निर्णयसिन्धु में भी शक्तिपूर्वक दीपवृक्ष बनाने व तेज डिंडिम घोष द्वारा दारिद्र्य भगाने का वर्णन है। पौराणिक मान्यतानुसार अर्धरात्रि में राजा नगर की शोभा और ऐश्वर्य देखने मंत्रियों के साथ पैदल नगर में चले। और राजकर्मचारी भी हाथ में दीपक रखें। नगर का पूर्ण प्रकाश, ऐश्वर्य, शोभा, दीपवृक्ष अर्थात आतिशबाजी देखकर राजा समझे कि राजा बलि मुझपर आज प्रसन्न होंगे। इससे इस मान्यता को बल मिलती है कि शहर में आतिशबाजी, प्रकाश,शोभा कम देखना राजा के लिए उचित लक्षण नहीं। इसलिए राजा विशेषरूप से आतिशबाजी का इंतज़ाम कराए। पुराण द्वारा अर्धरात्रि में स्त्रियों को विशेष रूप से पटाखे आदि द्वारा तेज ध्वनि करने का अधिकार दिया है। अतः आतिशबाजी पर प्रतिबंध स्त्री अधिकारों का हनन है। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में आग्नेय और दिव्यास्त्र आदि विद्याऐं थी। भारत प्राचीन काल से ही विशेष रोशनी और आवाज़ के साथ फटने वाले यंत्रों से परिचित था। सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व भारत के पुरातन ग्रन्थों में इस तरह के यंत्रों का वर्णन है। ईसा पूर्व काल में रचे गए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी एक ऐसे चूर्ण का विवरण है जो तेज़ी से जलता था, तेज़ लपटें पैदा करता था और यदि इसे एक नालिका में ठूंस दिया जाए तो पटाख़ा बन जाता था। बंगाल के इलाक़े में बारिश के मौसम में बाद कई इलाक़ों में सूखती हुई ज़मीन पर ही लवण की एक परत बन जाती थी। इस लवण को बारीक पीस लेने पर तेज़ी से जलने वाला चूर्ण बन जाता था। यदि इसमें गंधक और कोयले के बुरादे की उचित मात्रा मिला दी जाए तो इसकी ज्वलनशीलता भी बढ़ जाती थी। जहाँ ज़मीन पर यह लवण नहीं मिलता था वहाँ इसे उचित क़िस्म की लकड़ी की राख की धोवन से बनाया जाता था। वैद्य भी इस लवण का इस्तेमाल अनेक बीमारियों के लिए करते थे। लगभग सारे देश में ही यह चूर्ण और इससे बनने वाला बारूद मिल जाता था, और ख़ुशियां मनाने के लिए, उल्लास जताने के लिए घर- द्वार पर रौशनी की जाती थी।
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