प्रणय स्वीकार
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र"अणु"
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बैठकर निश्चिंत मानव,
है उतरता कल्पना में।
क्यों होता आबद्ध मन-
कुछ और की संभावना में।।
मादक नयन को देखकर,
होता है क्यों मन विह्वल।
बढता बहुत अनुराग तब,
और वह बनती है चंचल।।
केश का विन्यास नव-नव,
और अधर की लालिमा।
अंत:करण को खोल देती,
बंकिम नयन की भंगिमा।।
बढ रही कामना रोज-रोज,
मन अनायास होता कामी।
कहने में कुछ संकोच नहीं,
कि बना ले मुझको अनुगामी।।
हूँ अनुगामी मैं एक तेरा,
करना मेरे उपर उपकार।
और-और की चाह नहीं-
कर लो मेरा प्रणय स्वीकार।।
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