
श्री दुर्गा सप्तशती में छुपे गूढ़ अर्थ और चरित्रों के नामों के प्रतीक
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
“अजी नाम में क्या रखा है?”, कुछ बड़े लोग कहते हैं। सनातनी संस्कृति के हिसाब से देखें तो ऐसा होता नहीं दिखता। यहाँ नाम के प्रकट और गूढ़, कई अर्थ निकलते हैं। उदाहरण के रूप में श्री दुर्गा सप्तशती में कुछ ही नाम देख लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है।
मार्कंडेय पुराण के एक भाग से निकले इस ग्रंथ के पहले ही अध्याय में आपको तीन पात्रों के नाम मिल जाएँगे। इनमें से पहले पात्र सुरथ नाम के एक राजा हैं, दूसरे समाधि नामक एक वैश्य (व्यापारी) और तीसरे मेधा नाम के एक ऋषि हैं।
इनमें से दो, सुरथ एवं समाधि, अपनी स्थिति से परेशान होकर वन में आ गए होते हैं। उनकी चिंता, मन का उद्वेग शांत नहीं हुआ था इसलिए वे मेधा ऋषि के पास जाते हैं। अगर सुरथ नाम को देखें तो शरीर की तुलना कई बार रथ से होती मिल जाएगी।
ऐसा माना जाता है कि मन अश्वों की भाँति इस शरीर रूपी रथ को इधर-उधर ले जाता है और बुद्धि (मेधा) एक कुशल सारथि की भाँति मन रूपी अश्वों पर नियंत्रण करके रथ का सही तरीके से संचालन करे, यह मनुष्य के धर्म-पथ पर रहने के लिए आवश्यक है।
आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्,
बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।
(कठोपनिषद्, अध्याय 1, वल्ली 3, मंत्र 3)
अर्थ- इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथि, रथ हाँकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
धर्म अंततः अर्थ अथवा काम के उपार्जन हेतु, उचित पथ पर ले जाए इसलिए राजा का नाम सुरथ, अर्थात अच्छे रथ वाला है। समाधि भी धर्म की प्रवृत्ति ही दर्शाता हुआ नाम है लेकिन समाधि की स्थिति में चार पुरुषार्थों में से काम और अर्थ को छोड़कर केवल धर्म और मोक्ष की और झुकाव स्पष्ट है।
यानी कि इन नामों से हमें शुरू में ही पता चल जाता है कि जब कथा के अंत में हम पहुँचेंगे, तो राजा सुरथ को राज्य-वैभव इत्यादि मिलेंगे और समाधि को मोक्ष! थोड़ा और आगे चलें तो जब भगवान् विष्णु निद्रा में होते हैं, उनके कान के मैल से दो राक्षस मधु-कैटभ जन्म लेते हैं।
इन दोनों राक्षसों का वध करने के ही कारण विष्णु ‘मधुसूदन’ और ‘कैटभजित्’ कहलाए। यहाँ अगर फिर से प्रतीकों की ओर ध्यान दें तो विष्णु निद्रा में हैं, अर्थात् उनका ध्यान नहीं है, तब इन राक्षसों का जन्म हुआ है।
कान के मैल से जन्म हुआ है तो कहा जा सकता है कि आपके कानों में जो बातें जा रही हैं, उनकी बात प्रतीकों में हो रही है। मधु से ऐसा लगता है कि सुनने में अच्छी बातें की जा रही होंगी, जिनसे अक्सर अहंकार का जन्म होता है। अहंकार वश गलतियाँ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
कैटभ का नाम कटु जैसा सुनाई देता है। निंदा या नीचा दिखाए जाने से जो स्थिति होगी इसे उसका द्योतक कहा जा सकता है। आत्मविश्वास के न होने, निराशा की स्थिति में होने से जो होगा यह राक्षस कुछ वैसा ही है।
अगर महाभारत के अनुसार, दुखों के कारण देखें तो वहाँ भी अहंकार और आत्मविश्वास की कमी, दोनों ही दुखों के कारणों में से दिख जाते हैं। अगर अपनी क्षमता इत्यादि को आँके बिना, कौशल-बुद्धि न होने पर भी कोई कार्य करना आरंभ किया जाए तो उससे असफलता मिलेगी और दुःख होगा।
इसके विपरीत लगातार निंदा सुनता व्यक्ति, जिसमें कमियाँ निकाली जा रही हों, हताशा की स्थिति में होगा और वह भी असफल हो, ऐसा संभव है। जिस मानसिक स्थिति में राजा सुरथ और समाधी दोनों, ऋषि मेधा के पास जाते हैं, उसे अवसाद की सी स्थिति कहा जा सकता है।
हाल के कोविड काल से जुड़े लॉकडाउन, नौकरियों के जाने की चिंता, उद्वेग जैसी स्थितियों में मानसिक स्वास्थ्य की चर्चाएँ भी होती रही हैं। हाल ही में यूनिसेफ की मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित रिपोर्ट भी जारी की गई है। इनके आलोक में सोचा जाए तो अवसाद, मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक बुरी परिस्थिति है।
वापस श्री दुर्गा सप्तशती पर आएँ तो यह भी दिखता है कि ये दोनों राक्षस ब्रह्मा को मारने के प्रयास में थे। ब्रह्मा जन्म से वैसे ही जुड़े हैं, जैसे विष्णु पालन से। इसे प्रतीक मानें तो कहा जा सकता है कि अवसाद जैसी स्थितियाँ या मानसिक स्वास्थ्य का सही न होना, नई संभावनाओं को जन्म देने की क्षमता को रोकता है।
यह सृजन का ही अंत कर देने पर तुला होगा। भगवान् विष्णु का इनसे युद्ध को देखें तो वह लंबे समय तक चला युद्ध था। यह भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं में होता है। इनसे जीतना आसान नहीं है।
अंततः जब उनके ही अहंकार के प्रयोग से उत्पत्ति-विनाश के कारणों को पहचानकर प्रयास किया जाता है, तब मधु-कैटभ पर विजय प्राप्त होती है। सीधे-सीधे अध्यात्म, तंत्र या फिर धार्मिक दृष्टिकोण को छोड़कर अगर काफी नीचे के मनुष्यों के स्वास्थ्य के स्तर पर आएँ तो भी श्री दुर्गा सप्तशती के केवल पहले ही अध्याय से सीखने के लिए इतना कुछ है!
अंत में यह याद दिला देना भी आवश्यक है कि जो प्रतीक एक व्यक्ति को दिखे, वही आपको भी दिखें यह आवश्यक नहीं। जिसे आदिशंकराचारी विवर्तवाद की दृष्टि से देखते हैं, उसे ही श्री भास्कराचार्य की गुप्तवती जैसी टीका परिणामवाद की दृष्टि से देखती है। आपकी दृष्टि से क्या दिखता है यह आप स्वयं पढ़कर तय करें!
पर्वत की ऊँची चोटी के लिए संस्कृत में "शिखर", और उसे धारण करने वाले, यानी पर्वत के लिए “शिखरि” शब्द प्रयुक्त होता है। इसी का स्त्रीलिंग “शिखरिणी” हो जाएगा। इसी शब्द “शिखरिणी” का एक और उपयोग “सुन्दर कन्या” के लिए भी होता है। शिखरिणी संस्कृत काव्य का एक छन्द भी है। इसी शिखरिणी छन्द में आदि शंकराचार्य ने सौंदर्यलहरी की रचना की थी। संस्कृत जानने वालों के लिए, शाक्त उपासकों के लिए या तंत्र की साधना करने वालों के लिए सौन्दर्यलहरी कितना महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी पैंतीस से अधिक टीकाएँ, केवल संस्कृत में हैं। हिन्दी-अंग्रेजी भी जोड़ें तो पता नहीं गिनती कहाँ तक जाएगी।
आदि शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी की रचना के साथ भी एक किम्वदंती जुड़ी हुई है। कहते हैं वो एक बार कैलाश पर्वत पर गए और वहां भगवान शिव ने उन्हें सौ श्लोकों वाला एक ग्रन्थ दिया। देवी के अनेक रूपों के वर्णन वाले ग्रन्थ को उपहार में पाकर प्रसन्न आदि शंकराचार्य लौट ही रहे थे कि रास्ते में उन्हें नन्दी मिले। नन्दी ने उनसे ग्रन्थ छीन लेना चाहा और इस क्रम में ग्रन्थ आधा फट गया! आदि शंकराचार्य के पास शुरू के 41 श्लोक रहे और बाकी लेकर नन्दी भाग गए। आदि शंकराचार्य ने वापस जाकर भगवान शंकर को ये बात बताई तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं, 41वें से आगे के श्लोकों को देवी की स्तुति में तुम स्वयं ही रच दो!
तो इस तरह तंत्र के साधकों का ये प्रिय ग्रन्थ दो भागों में बंटा हुआ है। पहले 41 श्लोक देवी के महात्म्य से जुड़े हैं और आनन्दलहरी के नाम से जाने जाते हैं। जहाँ से देवी के सौन्दर्य का बखान है उस 42वें से लेकर सौवें श्लोक को सौन्दर्यलहरी कहते हैं। अब जिस छन्द में ये रचा गया है उस “शिखरिणी” पर वापस चलें तो उसका पहला अर्थ पहाड़ की चोटी बताया जाता है। नन्दा देवी या वैष्णो देवी जैसी जगहों के बारे में सुना हो तो याद आ जायेगा कि देवी को पर्वत की चोटी पर रहने वाली भी बताया जाता है। दूसरे हिस्से के लिए अगर “शिखरिणी” का दूसरा अर्थ सुन्दर कन्या लें, तो नवरात्र में कन्या पूजन भी याद आ जायेगा।
एंथ्रोपोलॉजिस्ट यानि मानवविज्ञानी जब धर्म का अध्ययन करते हैं तो उसे दो भागों में बांटने की कोशिश करते हैं। रिलिजन या मजहब के लिए संभवतः ये तरीका आसान होगा। वृहत (ग्रेटर) धारा में वो उस हिस्से को डालते हैं जिसमें सब कुछ लिखित हो और उस लिखे हुए को पढ़ने, समझने और समझाने के लिए कुछ ख़ास लोग नियुक्त हों। छोटी (लिटिल) धारा उसे कहते हैं जो लोकव्यवहार में हो, उसके लिखित ग्रन्थ नहीं होते और कोई शिक्षक भी नियुक्त नहीं किये जाते। भारत में धर्म की शाक्त परम्पराओं में ये वर्गीकरण काम नहीं करता क्योंकि आदि शंकराचार्य को किसी ने “नियुक्त” नहीं किया था। रामकृष्ण परमहंस या बाम-खेपा जैसे शाक्त उपासकों को देखें तो बांग्ला में “खेपा” का मतलब पागल होता है। इससे उनके सम्मान में कोई कमी भी नहीं आती, ना ही उनकी उपासना पद्दति कमतर या छोटी होती है।
तंत्र में कई यंत्र भी प्रयोग में आते हैं। ऐसे यंत्रों में सबसे आसानी से शायद श्री यंत्र को पहचाना जा सकता है। सौन्दर्यलहरी के 32-33वें श्लोक इसी श्री यंत्र से जुड़े हैं। साधकों के लिए इस ग्रन्थ का हर श्लोक किसी न किसी यंत्र से जुड़ा है, जिसमें से कुछ आम लोगों के लिए भी परिचित हैं, कुछ विशेष हैं, सबको मालूम नहीं होते। शिव और शक्ति के बीच कोई भेद न होने के कारण ये अद्वैत का ग्रन्थ भी होता है। ये त्रिपुर-सुंदरी रूप की उपासना का ग्रन्थ है इसलिए भी सौन्दर्य लहरी है। कई श्लोकों में माता श्रृष्टि और विनाश का आदेश देने की क्षमता के रूप में विद्यमान हैं।
इसके अंतिम के तीन-चार श्लोक (सौवें के बाद के) जो आज मिलते हैं, उन्हें बाद के विद्वानों का जोड़ा हुआ माना जाता है। उत्तर भारत में जैसे दुर्गा-सप्तशती का पाठ होता है वैसे ही दक्षिण में सौन्दर्यलहरी का पाठ होता है। शायद यही वजह होगी कि इसपर हिन्दी में कम लिखा गया है। इसपर दो अच्छे (अंग्रेजी) प्रचलित ग्रन्थ जो हाल के समय में लिखे गए हैं उनमें से एक रामकृष्ण मिशन के प्रकाशन से आता है और दूसरा बिहार योग केंद्र (मुंगेर) का है। दक्षिण और उत्तर में एक अंतर समझना हो तो ये भी दिखेगा कि सौन्दर्यलहरी में श्लोकों की व्याख्या और सम्बन्ध बताया जाता है। श्लोक का स्वरुप, उसके प्रयोग या अर्थ से जुड़ी ऐसी व्याख्या वाले ग्रन्थ दुर्गा सप्तशती के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं हैं।
बाकी आस पास के रामकृष्ण मिशन या दूसरे जो भी योग अथवा संस्कृत विद्यालय हों, वहां तक जाकर भी देखिये। संस्कृति को जीवित रखना समाज का ही कर्तव्य है।
#नवरात्र
✍🏻 आनन्द कुमार
नवरात्र में पठनीय देवीपुराण
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यह पुराण अति विशिष्ट है। देवी की लीलाओं और जनोपयोगी विषयों का सुंदर समन्वय है। मार्कंडेय पुराण में यदि सप्तशती को प्रतिष्ठा मिली तो देवी पुराण में लोक हितकारी विषयों को।
यह पुराण इतना प्रमाणिक माना गया कि अनेकों स्मृति निबंधकारों और टीकाकारों ने इसके श्लोक प्रमाण के लिए उद्धृत किए। हालांकि इसका पाठ संपादित होना शेष है! इसी कारण अच्छा अनुवाद शेष है। भगवती कृपा करे और कोई संस्कृत मित्र आगे आए तो पाठ प्रमाणिक हो सकता है।
नवरात्र में पारायण योग्य : महाभागवत
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भगवती की लीलाओं और स्तुति, साधना के उद्देश्य से संकल्प सहित पारायण के योग्य उप पुराण है : महा भागवत। दोनों ही नवरात्र और गुप्त नवरात्र में इसका पाठ बंगाल क्षेत्र में विशेष रूप से होता आया है।
महाभागवत शक्ति मतमान्य उपपुराण है और इसमें सीता, गंगा आदि अनेक देवियों के प्राकट्य तथा कृपा अनुग्रह के अनेक सुंदर प्रसंग शिव नारद संवाद रूप में है। इस पुराण को गोरखपुर से देवीपुराण का नाम देकर हाल ही प्रकाशित किया गया है जबकि डेढ़ सदी पहले, 1886 में कोलकाता से इसका पहला प्रकाशन मूल रूप में हुआ।
नवशक्ति प्रकाशन, वाराणसी ने इसको सुंदर अनुवाद और भूमिका सहित प्रकाशित किया है। डॉ. प्रेमा खुल्लर ने अनुवाद किया और संपादन आचार्य श्री मृत्युंजय त्रिपाठी ने किया है।
कालिका पुराण : नवरात्र पाठ
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देवी चरित्र विषयक पुराणों में "कालिका पुराण" मूलत: उप पुराण की कोटि का सुंदर ग्रंथ है। मार्कंडेय और देवी पुराण आदि में भगवती के ध्यान के जो जो स्वरूप प्रसंग आए हैं, उनमें कालिका देवी के माहात्म्य का विस्तृत विवरण इस पुराण में प्राप्त है।
यह कुल 90 अध्याय का है और इसमें कालिका, सती और योगमाया का चित्रण पूर्वार्द्ध (कालिका खण्ड) और उत्तरार्द्ध ( कालिकेय) में विस्तार से मिलता है। शाक्त और तांत्रिक उपासना, अरुंधती, नरकासुर, वैताल भैरव, चंद्रभागा नदी, चंद्रमा चरित आदि अनेक प्रसंग विश्वकोश की तरह भी मिल जाते हैं। शब्द और मूर्ति विषयक कोश निर्माण में यह सहायक रहा है। आराधक वशिष्ठ, वक्ता मार्कण्डेय और श्रोता मुनिगण हैं।
संस्कृत मूल का प्रकाशन पिछले डेढ़ सौ सालों में बंगला, उड़िया और देवनागरी में हुआ है। मेरे संग्रह में इसके कुछ पाठ हैं। आचार्य मृत्युंजय त्रिपाठी का सुंदर हिंदी अनुवाद मेरे पास है जिसको नवशक्ति प्रकाशन ने 2006 में प्रकाशित किया है। राष्ट्रीय कला केंद्र का "कालिका पुराण में मूर्ति विनिर्देश" नामक एक अंशात्मक प्रकाशन (अंग्रेजी अनुवाद सहित) भी हमारे लिए उपयोगी है।
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सरस्वती पुराण : नवरात्र में पठनीय
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स्थल पुराणों में माहात्म्य प्रधान "सरस्वती पुराण" स्मरणीय है। यह गुजरात में संपादित हुआ और सिद्धराज जयसिंह और अन्य चालुक्य वंशी नरेशों के साथ साथ सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों की महत्ता लिए है। सरस्वती नदी लुप्त क्या हुई, सरोवर से जुड़ी हर शिरा और सर भी सरस्वती हो गई :
अथ ज्ञानेन सा तत्र जीवनमुक्ता बभूव ह।
चिरकालेन देहोऽस्या जलरूपोऽ भवत्तदा।। (२०, ६२)
कितनी बड़ी बात है कि मार्कंडेय पुराण, जिसमें देवी पाठ है, के मार्कंडेय ऋषि ही सभी शाक्त पुराणों के प्रवक्ता है : श्री मार्कण्डेयोक्ते सरस्वती पुराणे।
इसमें कुल 32 अध्याय है और संस्कृत मूल पाठ ही उपलब्ध है। कुछ समय पहले श्रीकन्हैयालालजी जोशी (परिमल प्रकाशन, दिल्ली) ने इसके अनुवाद और प्रकाशन का संकल्प हमारे सामने रखा लेकिन उनके नित्यलीलास्थ हो जाने से काम रुक गया। मेरे पास इस पुराण का कोलकाता पाठ है और कुछ समय पहले पिंपरी पूना के श्री पी. आर. अहीरराव ने भी हमें अपनी अंग्रेजी भूमिका वाली छाया प्रति भेजी है।
नवरात्रि में मुझे देवी दर्शन के साथ पुस्तक दर्शन के क्रम में यह पुराण सदा स्मरण होता है। नवरात्र पारायण के व्याज से पुस्तक दर्शन का अनुपम अवसर है। कभी अवसर मिला तो इसके अनुवाद को पाठकों को समर्पित करूंगा...
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू
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