शक्ति : व्युत्पत्ति एवं अर्थ
१. परिचय
शक् अर्थात समर्थ होना, इस
धातु से क्तिन् प्रत्यय के जुडने पर शक्ति यह नाम बना है । सामर्थ्य, पराक्रम
और प्राण, ये शक्ति शब्द के प्रमुख अर्थ हैं
। प्रत्येक पदार्थ में कार्योत्पादन हेतु (कार्य करने के लिए) उपयोगी
और उस पदार्थ से कभी भी भिन्न न होनेवाला, ऐसा
जो विशिष्ट धर्म होता है, उसे शक्ति कहते हैं, जैसे
– अग्नि शक्तिमान है और दाहकता उसकी
शक्ति है । दाहकता अग्नि से कभी भी अलग नहीं होती । प्रत्येक पदार्थ में उसकी
अभिन्न एक शक्ति होती है । पदार्थ अनंत हैं, अतएव
शक्तियां भी अनंत हैं ।
२. शक्ति
के उद्गम एवं प्रवाह का स्वरूप
शिव के मुख्यतः दो रूप बताए जातेे
हैं । शिव का पहला रूप अर्थात सर्वव्यापी, पवित्र, ज्ञानमयी, आनंदमयी, चैतन्यस्वरूप
अविकारी अर्थात निरंतर स्थिर परब्रह्म रूप । शिव का दूसरा रूप अर्थात निरंतर
क्रियाशील शक्तितत्त्व । यह तत्त्व सृष्टि के सर्व सजीव-निर्जीव
वस्तुओं के रूप में प्रकट होता रहता है । शक्ति का उद्गम स्पंदनों के रूपमें होता
है । शक्ति शिव से भिन्न नहीं; अपितु वह शिव का ही अंग है । शक्ति
अचेतन शिव को कार्यान्वित करती रहती है । उत्पत्ति-स्थिति-लय
यह शक्ति का गुणधर्म है । उत्पत्ति,
स्थिति एवं
लय, तत्पश्चात पुनः उत्पत्ति, स्थिति
एवं लय, इस प्रकार यह चक्र निरंतर चलता
रहता है ।
३. शक्ति
का दैवीकरण
प्रत्येक देवता में उसकी शक्ति वास
करती है इसी शक्ति को दैवी रूप देकर उसे
शक्तिस्वरूपा देवी मानने लगे । शाक्त संप्रदाय के अर्थात शक्ति की उपासना करनेवाले
संप्रदाय के अनुयाइयों ने आदिमाया,
जगदंबा (संपूर्ण
जगत्की माता) इन नामों से उसे आदरसहित संबोधित
किया । सामान्य लोग भी शक्ति को मांके रूपमें ही स्वीकारते हैं । ब्रह्मा, विष्णुु, महेशसहित
अन्य सर्व देवताओं से किसी न किसी रूप में जगदंबा का संबंध रहा है ।
४. शक्तियों के नाम, सामर्थ्य
तथा गुणों का संभ्रम
४ अ. सर्व भक्त अपनी देवी को श्रेष्ठ
मानते हैं । इसलिए वे कहते हैं कि उनकी देवी से ही अन्य देवियों की निर्मिति हुई, उदाहरणार्थ
१. त्रिपुरसुंदरी सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि
उनमें सरस्वती, श्री लक्ष्मी एवं कालीमाता का
सम्मिलित रूप है ।
२. श्री दुर्गासप्तशती के अनुसार
महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती, ये
दुर्गा के प्रमुख रूप हैं ।
४ आ. श्री लक्ष्मी यह नाम श्रेष्ठ और
कनिष्ठ दो प्रकार की देवियों का है । (इस लेख में दी जानकारी श्रेष्ठ
प्रकार की श्री लक्ष्मी की है ।)
४ इ. मत्स्यपुराण के अनुसार
महिषासुरमर्दिनी देवी की उत्पत्ति ब्रह्मा-विष्णुु-महेश
की संगठित शक्ति से हुई; परंतु मार्कंडेयपुराण कहता है कि
वे सर्व देवताओं के अंशों से उत्पन्न हुई हैं ।
४ ई. देवी का नाम, गुण
एवं कार्य
नाम प्रधान गुण कार्य
१. महासरस्वती सत्त्व-रज सृष्टिनिर्मिति
२. महालक्ष्मी रज-सत्त्व पालन-पोषण
एवं ऐश्वर्य
३. महाकाली तम-तम संकटनिवारण, शत्रुका
नाश
५. शक्तियों की निर्मिति
५ अ. किसी देवता द्वारा निर्मिति
अंधकासुर देवताओं को कष्ट देता था । एक बार तो उसने शिवपत्नी पार्वती का ही हरण कर
लिया । तदुपरांत शिव ने उससे युद्ध आरंभ
किया । युद्ध में अंधकासुर के घावों से धरती पर गिरनेवाले रक्त की प्रत्येक
बूंद से नए अंधकासुर उत्पन्न होने लगे । इस कारण देवसेना असमंजस में पड गई । उस
समय शिव ने माहेश्वरी एवं एक प्रकार की मातृकाओं का निर्माण किया । उन मातृकाओं
ने अंधकासुर के रक्त की बूंद धरती पर गिरने से पूर्व ही उसे जिह्वासे चाटना आरंभ
किया । अतएव नए अंधकासुर की निर्मिति रुक गई । तदुपरांत शिव ने अंधकासुर का सहजता
से वध किया ।
५ आ. देवताओं की शक्तियों के एकत्रीकरण
से निर्मिति होना
१. एक बार महिषासुर नामक दैत्य महाबली
बन बैठा । उसने देवताओं से युद्ध आरंभ किया । इंद्र को परास्त कर वह स्वयं इंद्र
बन गया । इस पर ब्रह्मदेव की अगुआई में सर्व देवता विष्णुु एवं भगवान शंकर के पास
गए । महिषासुर संबंधी वृत्तांत सुनकर उन दोनों के साथ ही अन्य देवताओं की भौंहें
भी वक्र हो गईं । तत्क्षण सर्व देवताओं की देह से तेज का स्रोत प्रवाहित होने लगा
। वह सर्व तेज पुंजीभूत हुआ और उससे एक देवी उत्पन्न हुईं । वह थीं महालक्ष्मी ।
देवताओं ने उनकी स्तुति की, उन्हें अपनेे शस्त्र दिए और
महिषासुर का वध करनेकी प्रार्थना की ।
२. श्री दुर्गादेवी के अवयवों की
निर्मिति कैसे हुई, इसका वर्णन मार्कंडेयपुराण में इस
प्रकार किया है – शंकर के तेज से श्री दुर्गादेवी का
मुख, यम के तेज से देवीके केश, श्रीविष्णु
के तेजसे उसके हाथ, चंद्र के तेजसे स्तन, इंद्र
के तेजसे कटि, वरुण के तेज से जंघाएं एवं
पिंडलियां, भूमि के तेज से नितंबभाग, ब्रह्मा
के तेजसे पैर, सूर्य के तेजसे पादांगुलियां, वसुओं
के तेजसे करांगुलियां, कुबेर के तेज से नासिका, प्रजापति
के तेज से देवीके दांत, अग्नि के तेज से तीन नेत्र, सांध्यतेज
से उसकी भौंहें एवं वायु के तेज से देवीके कर्ण निर्मित हुए । इसके अतिरिक्त अन्य
देवताओं के तेज का भी उनकी रूपयोजना में उपयोग हुआ । इस देवी को प्रत्येक देवता ने
एक-एक आयुध भी प्रदान किया, उदा. शिव
ने त्रिशूल, श्रीविष्णु ने चक्र, इंद्र
ने वज्र एवं कालदेवता ने खड्ग दिया । इस प्रकार बीस आयुधों से देवी सुसज्ज हुईं ।
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, शक्ति (भाग १)
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com