जिंदा बेकार हो तुम

जिंदा बेकार हो तुम

        ~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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कहता है नरश्रेष्ठ हूँ
         आदमी बड़ा महान.. । 

 दे नहीं सकते प्यार किसी को, 
 करते नहीं सम्मान किसी का, 
आ नहीं सकते काम किसी का, 
मौकापरस्ती बेईमानी कर्म तुम्हारा ! 
 वो नफरत की दीवार हो तुम। 

         आईना तो देख, 
       नर भी नहीं हो तुम, 
       शायद पशु भी नहीं ? 
     मानवता की प्रवल शत्रु ! 
       राक्षस, आदम खोर, 
   अथवा रंगा सियार हो तुम। 

    अहंकार की अग्नि में तप्त, 
       बैठकबाजी में सशक्त, 
   दगाबाजी में तत्पर हरवख्त, 
     कुकर्मों में  लिप्त सदा! 
दुराचार का बहता वयार हो तुम। 

    न जाने कब किस रूप में, 
     वृक्षों के छाँव या धूप में, 
    प्रकाश में या अंधेरे कुप में, 
     कहाँ कब घात कर बैठे! 
नर नहीं, जानवर खूंखार हो तुम। 

   सिर्फ सोंच सोंच मे फर्क है, 
    यहीं स्वर्ग है यहीं नर्क है, 
    रे मूर्ख!अब तो सुधार जा! 
   करले गुनाह कुबूल या फिर , 
         चुल्लू भर पानी में, 
  डूब मर जिंदा बेकार हो तुम । 
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