जय श्री कृष्णा
बह रहा था भवसागर में तृण सा,
धूल कण इस धरा पर व्यर्थ सा।
था नहीं लक्ष्य जीवन का भी कुछ,
धरा पर आ गया बारिश की बूंद सा।
था नहीं कोई ठौर रहने के लिए,
दर्द का दरिया था सहने के लिए।
बस पकड़ ली कान्हा ने अंगुली,
बूंद से दरिया बना बहने के लिए।
मिल गया लक्ष्य प्यास बुझाऊंगा,
सहरा से समन्दर बहता जाऊंगा।
पशु पक्षी मानव धरा तृप्त होगी,
जो बचूंगा सागर में जा समाऊंगा।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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