
भगवान् गोविन्द का तेज अनन्त है।
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
अनन्ततेजा गोविन्द: शत्रुपूगेषु निव्यर्थ:।
पुरुष: सनातनमयो यत: कृष्णस्ततो जय:।।
(*महाभारत, भीष्म पर्व 21/13-14)
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भगवान् गोविन्द का तेज अनन्त है। वे वैरियों के समुदाय में भी कभी व्यथित नहीं होते क्योंकि वे सनातन पुरुष अर्थात् परमात्मा हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।
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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव की बधाई...।
नगरी - जहां श्रीकृष्ण की पूजा का प्राचीनतम प्रमाण है
#Nagri_madhyamika
चित्तौड़गढ़ का इलाका तब शिबियों के अधिकार में था और चारों ही ओर गोचारकों की बहुलता थी। ये गोठां कहे जाते थे, इनके बीच जो क्षेत्र था वह 'माध्यमिका' कहा जाता था। देशज भाषा में मज्झमिका। यही वह क्षेत्र था जहां चांदी की उपलब्धता को देखकर यवनों की सेना ने सेनापति अपोलोडोटस के नेतृत्व में हमला किया। स्वयं पतंजलि ने उस घेरे को देखा और अपने 'महाभाष्य' में उसका जिक्र किया। यह वह दौर था जबकि मिनेण्डर ने भारत पर हमला किया था और बौद्ध मत को स्वीकार किया था। यह स्थान वही है जिसको पाण्डवों ने विजित किया और उस विजय की याद को व्यासजी ने 'महाभारत' में लिखा। इस माध्यमिका के नष्ट होने का प्रमाण सर्वप्रथम वराहमिहिर ने दिया है। ह्वेनसांग ने इस इलाके का वर्णन किया है, खासकर यहां की उपज निपज का। यह मुख्यमार्ग पर था और विदिशा, मथुरा से जुड़ा हुआ था। गुजरात के वस्त्रापथ-जूनागढ़ से लगा हुआ।
नगरी तक उत्तरी भारत के कई यात्रियों का आना जाना लगा रहता था। इनमें समुद्रतटीय लोग भी थे तो बाहर से आने वाले भी। यहां से वैष्णव मत के प्रचार का श्रीगण्ोश हुआ और संकर्षण या बलदेव के साथ ही वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा के लिए स्थण्डिल जैसे स्थान का प्रयोग किया गया जो वर्तमान के मंदिर का प्रारंभिक रूप था। यह स्थण्डिल वाटिका के भीतर होता था। यह बाड़ी नारायण वाटिका के नाम से ख्यात हुई। दूसरी सदी ईसापूर्व में अश्वमेध यज्ञ करने वाले पराशरी पुत्र सर्वतात ने इस नारायण वाटिका के लिए परकोटा बनवाया और उस पर दो शिलालेख एक ही पाठ वाले लगाए। यह शिलालेख आज तक मौजूद है, ब्राह्मीलिपि वाला। उदयपुर के राजकीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में देखा जा सकता है। प्रो. भांडारकर को इस शिलालेख को पढ़ने का श्रेय है।
उन्होंने जब इस मान्यता को उठाया तो वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्वीकारा कि यही वह स्थान है जहां विदिशा के हेलियोदोरस के गरुडस्तंभ के निर्माण से पूर्व वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा आरंभ हो चुकी थी। इस प्रकार यहां श्रीकृष्ण की पूजा का प्राचीनतम प्रमाण मिलता है, अब वह नारायणवाटिका नहीं रही, मगर वहां लगा प्रकाशस्तंभ आज भी इस तथ्य को अपने हृदय में संजोये हुए है। बार बार मुझे यह नगरी गांव याद आता है जिसने दुनिया के लिए वासुदेव काे पहली बार प्रतिष्ठा के योग्य समझा और उसकी सशक्त शुरुआत पराशरी पुत्र महाराजा सर्वतात ने की थी।
श्रीकृष्ण और यूनान के प्रसंग...
#जन्माष्टमी
भारत में धर्म और आस्था के मूलाधार श्रीकृष्ण को माना गया है। उनके गीता में कहे गए वचनों पर कौन विश्वास नहीं करता। भारत में छपने ज्यादा छपने और बिकने वाला ग्रंथ ही श्रीमद़भगवदगीता है। किंतु, यूनान की माइथोलॉजी बताती है कि श्रीकृष्ण का यूनान के साथ गहरा संबंध रहा है। सबसे पहले प्रो. भांडारकर और जेकोबी ने इस संबंध में अपने मत दिए थे।
हाल ही मेरे परम सहयोगी इंडोलॉजी के विद्वान प्रो. भंवर शर्मा, उदयपुर ने यूनानी माइथोलॉजी का अनुवाद किया तो पाया कि भारतीय कृष्णकथा का अद़भुत संबंध यूनान से रहा है। एक-एक कथा प्रसंग में यूनान पैठा हुआ है। फिर, श्रीकृष्ण के साथ जिस मुद्रा का संबंध हरिवंश में बताया गया है, वह 'दीनार' है। यह कहां की मुद्रा है, हरिवंश में आया है -
माथुराणां च सर्वेषां भागा दीनारका दश।।
सूतमागध बंदीनामेकैकस्य सहस्रकम़। (हरिवंश, विष्णुपर्व 55, 51-52)
पढने वालों को गुस्सा भी हो सकता है, फिर यह भी कहा जा सकता है कि भारत से ही यह कथा यूनान गई... भारतवर्ष की प्रभाव क्षेत्र की सीमा आज से कहीं ज्यादा थी।
उनके अनुवाद-अध्ययन के कुछ प्रसंग :
क्रीट के राजा देवक्लीयन का सबसे बडा पुत्र हेलेन सभी ग्रीकों का पिता कहा गया है। इससे इओनियन, एकियन, एओलियन और डोरियन-- चार वंश चले। हेलेन, हेली, हेलीली आदि श्रीकृष्ण के ही नाम हैं - गोपालसहस्रनाम स्तोत्र में आया है - कोलाहलो हली हाली हेली हल धरो प्रियो। (श्लोक 20)
कथा आई है कि स्वर्ग के राजा यूरेनस ( तुलनीय -उग्रसेन) को क्रोनस (कंस) राज्य छीनकर अपनी बहन ह्रिया को (पत्नी बनाकर, महाभारत काल में ऐसी परंपरा के प्रसंग महाकाव्य में आए हैं) अपने अधिकार में कर लेता है। दिवंगत होते हुए उसकी माता पृथवी और पिता यह भविष्य करते हैं- क्रोनस को उसके बहन के पुत्रों में से एक राजसिंहासन से हटाएगा। वह पांच बच्चों को जिंदा खा गया। बहन ह्रिया घबरा गई। उसने अगले पुत्र जयस (श्रीकृष्ण का पर्याय जय : पांचजन्यकरो रामी त्रिरामी वनजो जय, गोपालसहस्रनाम 47) को जब पैदा किया तो नील नदी ( तु. यमुना) में स्नान कराकर भूमि को सौंप दिया जो कि पर्वतीय प्रदेश में ( तु. गोवर्धन पार के गांव में) छिपा आई। वनदेवी इयो (गायों) और अजदेवी (वृष्णि, बकरी) ने उसका लालन पालन किया। कोनस जब ये जान गया तो ह्रिया ने उसे कपडे में पत्थर बांधकर दे दिया। वह उसे भी खा गया। जब उसे धोखे का पता चला तो जेयस नाग (कालिय) बन गया।
यह जेयस इडा के पहाडों में बसे ग्वालों के बीच बडा हुआ और तरकीब से क्रोनस का पानेरी बना। एक बार उसने क्रोनस को कुछ ऐसा पिला दिया कि उसके पेट से जयस के पूर्व भाई-बहन बाहर आ गए जिन्होंने जयस को अपना मुखिया चुना। जेयस ने क्रोनस को अपने वज्र से मार गिराया।
यूनानी माइथोलॉजी के मुताबिक जेयस की पहली विजय, पहली सदी ई. पूर्व के लेखक थालस के अनुसार टाय के घेरे में 322 साल पहले हुई, अर्थात् 1505 ईसा पूर्व। अधिकांश विद्वानों ने कृष्ण व कंस का इतिहास में यही काल तय किया है।
इस कथा में एराधिन के साथ जयस के संबंध राधा-कृष्ण के प्रसंगों के परिचायक है। जेयस ने बैल का रूप धरकर लीबिया की राजकन्या यूरोपी (तु. रुकमिणी) का हरण किया। उससे तीन पुत्र हुए मीनो, राधामंथिस और सर्पदन। मीनों क्रीट के शासक हुए और राधामंथिस स्मृतिकार। मीनों की पत्नी पेसिफी हुई जो सबके लिए चमक लिए थी, अर्थात् कीर्ति। पुराणों में वृषभानु की पत्नी का नाम भी कीर्ति ही आया है।
अगली एक कथा में एद्रोस्टस ( तु. द्रुपद) की पुत्री देयदामिथा (द्रोपदी) चचेरे भाइयों के रूप में शतम् (कोरव) और नेस्टर (घोंसले वाला, शकुनी) आदि के आख्यान है...। है न भारतीय पुराणों की कथा की साम्यता रखने वाला प्रसंग...। यवनों ने विदिशा में हेरक्लीज का स्तंभ बनाया। यह हेरक्लीज ही हरिकृष्ण है जो ग्रीक साहित्य में बहुत महत्व रखता है। (न्याय, अजमेर के दीपावली अंक, 1962 में प्रकाशित प्रो. शर्मा का लेख और साक्षात्कार पर आधारित)
श्रीमदभगवद्गीता की रचना कहां हुई ?
भगवद्गीता महाभारत का विशिष्ट अंग है, किंतु इसकी रचना कहां हुई, जन्माष्टमी को पाठ करते-करते यह सवाल मेरे मन में रहा और मैं अंतर्साक्ष्य की खोज में ही एक-एक श्लोक पर विचार करता रहा। यह माना गया है कि यह ग्रंथ महाभारत के 'नारायणीय खंड' में स्मरण किया गया है। संयोग से वहां इसका नाम 'हरिगीता' आया है। इसका आशय है कि नारायणीय की रचना से पूर्व गीता की रचना हो गई थी और इसी कारण नारायणीय में इसका उल्लेख हुआ है।
अध्ययन से विदित होता है कि जिस भगवद्गीता को भगवान कृष्ण ने करुक्षेत्र में अर्जुन को कहा, वह ग्रंथ रूप में उस क्षेत्र में सामने आया जो अव्वल पश्चिम भारत के अंतर्गत था। बहुत संभव है कि वह राजस्थान हो, चूंकि इस पर भृगु वंशीयों का प्रभाव है और वे इसी क्षेत्र में फैले हुए थे जिन्हें मनुस्मृति की रचना का भी श्रेय है। उन्होंने ही महाभारत के मूल संस्करण 'जय संहिता' की भी रचना की। गीता में महर्षियों में भृगु को विष्णु का रूप बताया गया है - महर्षीणां भृगुरहं। (गीता 10, 25) गीता में वैवस्वत, इक्ष्वाकु आदि मनुओं के नाम आए हैं। तब चार मनुओं की ही मान्यता थी, न कि चौदह -चत्वारो मनवस्तथा। (10, 6)
इसके संस्कृत रूप का रचनाकार मरुभूमि और जलीय भूमि अर्थात् गुजरात के क्षेत्र को भली भांति जानता था। उस काल में, गुर्जरत्रा से पूर्व पूरा क्षेत्र एक ही था, अपरांत। रचनाकार पिंडोदक या जलीय क्रिया को जानता था। उदाहरण के तौर पर यह कहा गया है कि जैसे अनेक नदियों का जल अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में बिना विचलित किए ही समा जाता है - आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्। (2, 70) जल में रस की बात आई है- रसोअहमप्सु। (7,
ग्रंथकार ने नाव शब्द नौका के लिए काम में लिया है (वायुर्नावमिवाम्भसि, 2, 67), यह नाव, नावडू, आदि नाम से राजस्थानी और अन्य निकटवर्ती भाषाओं में प्रचलित है। तरना जैसा शब्द आया है- मायामेतां तरन्ति ते। (9, 14) मिट्टी, भाटा, सोना जैसी कहावत इस प्रदेश में पर्याप्त प्रचलित रही है, गीताकार भी इससे चूका नहीं है- समलोष्टाश्मकांचन:। (6, होरा शब्द इधर ही पहले प्रचलित हुआ, जो काल के संदर्भ में आता था- ते अहोरात्रविदो जना:। (8, 17)
भगवद्गीता में इसी प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है। कुछ स्थल ज्ञातव्य है --
रचनाकार विराट का नाम लेना नहीं भूला है। यह राजस्थान के अंतर्गत रहा है। समुद्र से प्राप्त शंखों का उल्लेख हुआ है और उनके नामों का विशेष् रूप से जिक्र हुआ है। समुद्र क्षेत्र के निवासी अथवा समुद्रवर्ती को ही शंखों की इस तरह की जानकारी होती है। (पांचजन्य, देवदत्त पौंड्र्, अनन्तविजय, सुघोष, मणिपुष्पक आदि शंखों के नाम, पहला अध्याय) पहले अध्याय में शंख के साथ वाद्यों के रूप में भेरी, पणव, आनक या ढोल, गोमुखा आदि का नाम है, ये इसी क्षेत्र में प्रचलित थे। जिन निमित्तों का जिक्र हुआ है, उन पर सर्वाधिक विचार इसी क्षेत्र में हुआ। विशेषकर कुषाणकाल में इन पर अंगविज्जा नामक ग्रंथ ही लिखा गया। ग्राम इधर बहुत प्रचलितत शब्द रहा है, गीता में अनेकत्र इंद्रियग्राम, भूतग्राम शब्दों का व्यवहार हुआ है- भूतग्राम: स एवायं। (8, 19) वैदिक क्रियाएं इधर ही अधिक प्रचलित थीं, अभिलेखीय प्रमाण भी इधर से ही मिले हैं।
मरुभूमि का निवासी ही जानता है कि भतूलिया आकाश में व्याप्त वायु को बता सकता है, गीताकार को यह उदाहरण बहुत भाया है- यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्। (9, 6) ऐसे ही ओर भी उदाहरण हो सकते हैं जो इस ग्रन्थ को राजस्थान की भूमि से संबद्ध करता है। प्रसिद्ध विद्वान सुकथंकर की अवधारणा इसे पश्चिम भारतीय रचना बताती है और वे इसे भार्गवों के प्रभाव से प्रेरित मानते हैं। (सुकथंकर मेमोरियल एडिशन, पेज 308-16, विशेष द्रष्टव्य - सुवीरा जायसवाल - वैष्णवधर्म का उदभव और विकास, पेज 11-12) विंटरनिट्ज का मत है कि यह मूलत: भागवतों की रचना थी, ईसा पूर्व दूसरी सदी में किसी समय इसकी रचना हुई। एक विनम्र विचार-
अब थोड़ी सी चर्चा दाऊ भैया की भी करते हैं जिनका जन्म भी भादो माह में हुआ था-
दाऊ भैया : बलदेव : संकर्षण
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कृषि और उत्पादों के संस्करण के जनक जिनको खेती से जुड़े समाज ने प्रथमत: महत्व दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार इनके चिह्न हल और मूसल के अंकन से कृषि करने वाली स्त्रियां अपने घरों की भित्तियां सजाती थीं ताकि समाज जनों को खेती के महत्व का बोध हो... भागवत जन कृषि को महत्व देने वाले हुए क्योंकि यज्ञादि सभी अनुष्ठान उत्पादन से ही संभव होते हैं।
दूधारणी : बलदेव की पूजा का दुग्धपर्व
मेवाड़-मालवा में भादौ मास में प्राय: शुक्ल पक्ष की सप्तमी को कई जगह 'दूधारणी' पर्व मनाया जाता है। यह पर्व अहीर-गुर्जरों के भारत में प्रसार के काल से ही प्रचलित रहा है और खासकर कृषिजीवी जातियों की बहुलता वाले गांवों में मनाया जाता है। पशुधन की सम्पन्नता पर आधारित है।
यद्यपि आज यह देवनारायण की पूजा के साथ जुड़ गया है, मगर यह बलदेव की पूजा का प्राचीन लोकपर्व है। उस काल का, जबकि बलदेव को "संकर्षण" कहा जाता था। वे हलधर है, हल कृषि का चिन्ह है और कर्षण होने से वे संकर्षण अर्थात हल खींचने वाले कहलाए। मेवाड़ के नगरी मे मिले ईसापूर्व पहली-दूसरी सदी के अभिलेख में वासुदेव कृष्ण से पूर्व संकर्षण का नाम मिलता है।
मेवाड़ में बलदेव के मंदिर कम ही हैं, पहला नगरी में नारायण वाटिका के रूप में बना और फिर चित्तौड़गढ़ जिले के आकोला, मेरे जन्म के गांव में 1857 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह के शासनकाल में बना।
इस पर्व के क्रम में जिन परिवारों में दूधारू पशु होते हैं, उनका दूध निकालकर एकत्रित किया जाता है। प्राय: पंचमी तिथि की संध्या और छठ की सुबह का दूध न बेचा जाता है, न ही गटका जाता है बल्कि जमा कर गांव के चौरे पर पहुंचा दिया जाता है। वहीं पर बडे़ चूल्हों पर कडाहे चढ़ाए जाते हैं और खीर बनाई जाती है। पहले तो यह खीर षष्ठितंडुल (साठ दिन में पकने वाले चावल) अथवा सांवा (ऋषिधान्य, शाल्यान्न) की बनाई जाती थी मगर आजकल बाजार में मिलने वाले चावल या गेहूं के रवे से तैयार की जाती है।
इस खीर का ही पूरी बस्ती के निवासी पान करते हैं, खासकर बालकों को इस दूध का वितरण किया जाता है। बच्चों को माताएं ही नहीं, पिता और पितामह भी मनुहार के साथ पिलाते हैं।
इस पर्व के दिन गायों को बांधा नहीं जाता, बैलों को हांका नहीं जाता। प्राचीन लोकपर्वों की यही विशेषता थी कि उनमें आनुष्ठानिक जटिलता नहीं मिलती। उदयपुर के पास कानपुर, गोरेला आदि में यह बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है ओर पलाश के पत्तों के दोनें बनाकर उनमें खीर का पान किया जाता है। मित्र प्रमोद सोनी ने एक चित्र भेजा तो मैंने यह लिख दिया। प्रमोद को धन्यवाद और आपकी खिदमत में मेरी मान्यताओं का यह विवेचन। (श्रीकृष्ण जुगनू - मेवाड का प्रारंभिक इतिहास, तृतीय अध्याय)
मेरे मित्र ‘ Nirdesh K. Singh ‘ ने कुछ समय पूर्व ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ में रखी तथाकथित ‘विष्णु’ प्रतिमा को देखा, और जैसा कि उस प्रतिमा के बारे में संग्रहालय ने जानकारी दी, उस जानकारी को हम सभी तक पहुंचाया . इस प्रतिमा के बारे में बताया गया कि यह ‘विष्णु’ की प्रतिमा है जो ‘मेहरौली’ से प्राप्त हुई और ‘गहड्वाल काल’ की है... बहुत बहुत शुक्रिया निर्देश भाई ... आपकी वजह से हमको बहुत सी नयी बातें पता चलती हैं ..
लेकिन , मुझे जानकर अचम्भा हुआ कि ‘गहड्वाल’ तो कभी दिल्ली के शासक नहीं रहे फिर सोचा कि हो सकता है, प्रतिमा कन्नौज में रही हो और समय के साथ दिल्ली आ पहुंची हो ... परन्तु उत्सुकता के कारण मैं अपने आप को रोक नहीं सका और इस शनिवार को मैं भी ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ पहुँच गया और प्रतिमा पर लिखे ‘लेख’ को सावधानी से समझने की कोशिश की कुछ छायांकन भी किया साथ ही जब विद्वानों की पुस्तकों को मेहरौली की इस प्रतिमा के परिपेक्ष्य खंगाला तो जो हाथ लगा वो इस प्रकार से है ..
सन 1958-59 के दौरान भारतीय पुरातत्व विभाग को क़ुतुब मीनार के दक्षिण पूर्व में सतह से कुछ नीचे ‘संकर्षण’ की प्रतिमा मिली जिस के पैरों के नीचे ‘नागिरी’ लिपि में संस्कृत का एक लेख उत्कीर्ण है . लेख के अनुसार इस प्रतिमा को विक्रम सम्वत 1204 तदानुसार 1147 ईस्वी में माघ सुदी नवमी दिन शुक्रवार को रोहितका (रोहतक) के व्यापारी गोविंद पुत्र .... ने प्रतिअर्पित किया था . जिस स्थान पर यह प्रतिमा मिली उसके समीप ही पत्थर के चबूतरे पर ‘पंचरथ’ मन्दिर की बाह्य योजना अंकित थी . इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि उस ‘पंचरथ’ मंदिर में संभवतः यह प्रतिमा स्थापित रही होगी .
‘संकर्षण’ बलराम को कहा जाता है , ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से ही ‘बलराम’ को भारतीय धार्मिक कार्यों में स्थान मिलना शुरू हो गया था . ‘पांचरात्र’ के ‘चतुर्व्यूह’ सिद्धांत में वसुदेव और देवकी पुत्र ‘कृष्ण’ के सम्बन्धियों का जिनमे ‘बलराम संकर्षण’ भी आते हैं का बहुत महत्व है. इस सिद्धांत के अनुसार वासुदेव ‘कृष्ण’ से ‘संकर्षण’ (जीव) की उतपत्ति होती है, ‘संकर्षण’ से ‘प्रद्युम्न’ (मन) की उतपत्ति होती ..... धीरे धीरे परिवर्ती काल में ‘विष्णु’ के चौबीस प्रमुख रूपों में ‘संकर्षण’ को भी एक रूप माना गया है. ‘संकर्षण’ की शक्ति को ‘लक्ष्मी’ कहा जाता है, संकर्षण की चतुर्भुजी प्रतिमा के लक्षण इस प्रकार है
१. मुख्य बायीं भुजा – चक्र
२. पार्श्व बायीं भुजा – पद्म (कमल)
३. मुख्य दायीं भुजा – गदा
४. पार्श्व दायीं भुजा – शंख
‘महरौली’ में मिली प्रतिमा पूरी तरह से इन लक्षणों से युक्त है. मेहरौली की इस प्रतिमा में न केवल विष्णु के दस अवतार यथा मत्स्य, कूर्म , वराह , नृसिंह , वामन , परशुराम , राम , कृष्ण , बुद्ध और घोड़े पर बैठे हुए कल्कि शामिल हैं बल्कि ‘संकर्षण’ के बायीं और ‘शिव’ और दायीं और ‘ब्रह्मा’ जी भी विराजमान हैं. इस प्रतिमा का आधार ‘सप्तरथ’ आकार का है .
तो कहा जा सकता है कि है कि ईसा की बारहवीं सदी तक अन्य देवी देवताओं के साथ ‘संकर्षण’ की आराधना भी महत्वपूर्ण हो गयी थी . इसीलिए तो ‘रोहतक’ का व्यापारी ‘गोविन्द’ सन 1147 ईस्वी में दिल्ली के तोमर राजा ‘विजयपालदेव’ (1130-1151) के समय में कुतुबमीनार के समीप पंचरथ मंदिर में ‘संकर्षण’ की प्रतिमा स्थापित करता है. यहाँ यह कहना आवश्यक है कि ‘रोहितका’ अथवा ‘रोहतक’ भी उस समय का एक प्रमुख स्थान रहा होगा .
इस प्रतिमा का कन्नौज के गहड्वालों से कुछ लेना देना नहीं है, और ना ही कभी गहड्वालों ने दिल्ली पर शासन किया ......... हाँ , इतना अवश्य है कि जिस समय ‘रोहितका’ का व्यापारी ‘गोविन्द’ दिल्ली में यह प्रतिमा समर्पित कर रहा था उस समय कन्नौज पर ‘गोविन्दचन्द्र गहड्वाल’ शासन कर रहा था .... और यह मात्र संयोग है...
दाऊ भैया : बलदेव : संकर्षण
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कृषि और उत्पादों के संस्करण के जनक जिनको खेती से जुड़े समाज ने प्रथमत: महत्व दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार इनके चिह्न हल और मूसल के अंकन से कृषि करने वाली स्त्रियां अपने घरों की भित्तियां सजाती थीं ताकि समाज जनों को खेती के महत्व का बोध हो... भागवत जन कृषि को महत्व देने वाले हुए क्योंकि यज्ञादि सभी अनुष्ठान उत्पादन से ही संभव होते हैं।
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहितदिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com
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