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सन्यास की वर्जना वाले हिन्दू सम्प्रदाय

सन्यास की वर्जना वाले हिन्दू सम्प्रदाय

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
स्वामी रामानुजाचार्य, स्वामी वल्लभाचार्य एवं स्वामी मध्वाचार्य के अनेक शिष्यों ने बहुत से मठ स्थापित किये। स्वामी वल्लभाचार्य ने सन्यास नहीं लिया और उनके शिष्यों ने भी सन्यास नहीं लिया। उनका मत है कि कलयुग में सन्यास वर्जित है। उन्होंने श्रीमद् भागवत पुराण के तृतीय स्कंध के चतुर्थ अध्याय का उल्लेख करते हुये उद्धव को परम भागवत कहे जाने का उदाहरण दिया तथा स्मरण दिलाया कि स्वयं श्रीहरि ने यह कहा है कि संयमी-शिरोमणि भक्त श्री उद्धव मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं।
अस्माल्लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम्।
अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः।।
नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दितः प्रभुः।
अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु।। (श्रीमद्भागवत महापुराण 3/4/30, 31)
अर्थात् श्रीहरि ने कहा कि इस लोक से मेरे चले जाने पर श्रेष्ठ आत्मवान् एवं संयमी उद्धव ही मेरे ज्ञान के उत्तराधिकारी होंगे। क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से अविचलित रहते हैं और मेरे द्वारा दिये गये ज्ञान की शिक्षा लोक को देने के अधिकारी हैं।
अतः इस आधार पर स्वामी वल्लभाचार्य जी ने भागवत होने पर बल दिया और सन्यास को कलियुग में वर्जित किये जाने का आधार लिया तथा सन्यास को निषिद्ध घोषित किया।
मुख्य बात यह है कि जो बहुत से मठ बने, वे मुख्यतः उस समय अव्यवस्था और अराजकता का शिकार हो गये, जिस समय हिन्दू से मुसलमान बने बहुत से अनाचारी भारतीय लोगों ने काम और लोभ की अधिकता से लुब्ध होकर मजहब का सहारा लेकर लूट-पाट और हिंसा तेज की तथा समाज के वीर और विद्वान लोग उस युद्ध में उलझने को विवश हो गये। उस स्थिति में समाज के अनाचारी लोगों पर नियंत्रण की सहज स्थिति नहीं रही और ऐसे लोग मनमानी करने लगे। बहुत से लोग बहुत ही कम पढ़ लिख कर महंत बनने की अभिलाषा से सन्यासी बनने लगे और इस प्रकार वे सम्पत्ति से समृद्ध मठों के स्वामी हो गये। यहां तक कि जिन्हें ठीक से संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं होता और जो धर्मशास्त्रों को पढ़ तक नहीं सकते, ऐसे लोग भी सन्यासी होने लगे तथा इसके बाद अनेक मठों में उससे जुड़े लोगों ने सन्यासी महंतों की मृत्यु निकट देखकर अपने किसी प्रिय गृहस्थ को पकड़कर महंत का चेला बनाने लगे और इस प्रकार सन्यासी की मृत्यु के बाद वह सदाचारविहीन चेला ही महंत बनने लगा। हिन्दू राजा आतताईयांे के आक्रमण को निरस्त करने में अधिक समय और शक्ति तथा ध्यान देने को विवश होने के कारण और मठों पर राज्य के नियंत्रण की कोई परंपरा नहीं होने के कारण शिष्ट परिषदों आदि को बुलाकर धर्मनिर्णय के लिये समय नहीं निकाल सके और विशेषकर 15वीं शताब्दी ईस्वी से इस विषय में अराजकता और मनमानी फैलती गई। अभी तक वही स्थिति है। वर्तमान राज्यकर्ताओं ने इसमें अपने लिये एक अवसर ढूंढ निकाला है और इस विषय में भारत में प्रशासन करने वाले अंग्रेजों की नकल करते हुये जो नीति अंग्रेज हिन्दू राजाओं के राज्य हड़पने के लिये अवसर ढूंढने के काम में अपनाते थे, वही नीति वर्तमान राज्यकर्ता हिन्दू मठों और मंदिरों की सम्पत्ति हड़पने के लिये अवसर ढूंढने के काम में अपनाते हैं और लोगों की शिकायत पर या अपने ही दल के कार्यकर्ताओं की प्रायोजित शिकायत पर मंदिरों का प्रबंधन राजकीय कर्मचारियों को सौंप देते हैं जो वहां की सम्पत्ति का तथा दान और दक्षिणा में आये हुये धन का उपयोग स्वयं के लिये और अपने को नियुक्त करने वाले उपकारी शासकों के लिये निर्बंध रूप से करते हैं।
शिष्ट परिषदांे के विषय में हम आगे विचार करेंगे। यहां महत्व की बात यह है कि धर्मशास्त्र किसी व्यक्ति के सन्यासी होने के बाद भ्रष्ट या च्युत होने वाले व्यक्ति की भीषण निंदा की। जो व्यक्ति सन्यासी होने के बाद ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन नहीं करे, धर्मज्ञ राज्यकर्ता को उस व्यक्ति के मस्तक पर कुत्ते के पैर का निशान अंकित कर देशनिकाला दे देना चाहिये।
परंतु अराजकता और आपसी कलह की स्थिति में राजाओं के लिये यह किया जाना संभव नहीं हुआ और सन्यास आश्रम में कहीं-कहीं नियमभ्रष्टता पनप गई। यद्यपि परंपरागत आश्रमों में बहुलांश सन्यासी संयम और तपस्वी जीवन के लिये ही आज भी प्रसिद्ध हैं। किसी भी अन्य मजहब या रिलीजन के शीर्ष लोगों में उस स्तर के तपस्वी और संयमी लोग सामान्यतः नहीं पाये जाते।
ब्रिटिश प्रभाव वाले क्षेत्रों में सर्वप्रथम महंतों को एंग्लो-क्रिश्चियन कानूनों वाली कचहरी में मुकदमें के लिये जाते सर्वप्रथम देखा गया है। यहां तक कि अपने क्षेत्र में पालकी पर चढ़ने का अधिकार मुझे है, अमुक अन्य महंत को नहीं है, इस प्रकार की हास्यास्पद दावेदारियां भी कचहरी में वाद के रूप में दायर की गईं।
पादरियों का अनुसरण करते हुये 19वीं शताब्दी ईस्वी में कतिपय महंत लोग चेली के रूप में रक्षिता स्त्री रखने लगे, जबकि यह शास्त्रों के अनुसार भयंकर अपराध माना जाता है। वायुपुराण का कहना है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु के उपरांत हजारों वर्षों तक नाली का कीड़ा बना रहता है और फिर क्रमशः चूहा, गिद्ध, कुत्ता, बन्दर, सुअर, वृक्ष, पुष्प, फल और अंत में प्रेत योनि में जन्म लेते हुये मनुष्य के रूप में चाण्डाल के घर में जन्म लेता है। परंतु ऐसे कठोर नियमों को जो पढ़ ही नहीं सकते थे, ऐसे लोग भी महंत बनने लगे। प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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