असमिया लोग भादो के महीने को बहुत ही पवित्र मानते हैं ।

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
भादो का महीना चल रहा है और हम असमिया लोग भादो के महीने को बहुत ही पवित्र मानते हैं । जैसे बाहर श्रावण के महीने को माना जाता है ठीक वैसे ही।
हर गाँव का नामघर हर दिन शंख,घंटा,ताल,खोल,डबा (पारंपरिक वाद्य) आदि और भक्तों के नाम-कीर्तन की मंगल ध्वनि से मुखरित रहता है ।सुबह और शाम को महिलायें इकट्ठे होकर नाम(ईश्वर का गुणानुकीर्तन) गातीं हैं और रात को पुरुष । कहीं-कहीं इस नियम में थोड़ा-बहुत अंतर भी रहता है ।
इसी महीने में असम के मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के महान संत श्रीमंत शंकरदेव,श्रीश्री माधव देव आदि महापुरुषों की तिथियाँ भी पड़ती हैं । उस दिन सुबह महिलायें और शाम को पुरुष इकट्ठे होकर नाम-कीर्तन करते हैं ।
दूसरे गाँवों का तो अंदाज़ा नहीं पर मेरे गाँव में समाज के लोग बारी-बारी से इकट्ठे हुए भक्तों को जाकर कभी चाय-बिस्किट,कभी खीर,कभी खिचड़ी और कभी कुछ और दे आते हैं ।
आपलोगों को तो पता ही है कि यह वैष्णव भक्ति परंपरा है और यहाँ निर्गुण ईश्वर की उपासना होती है। तो नामघरों में मूर्ति की जगह गुरु आसन होता है जैसा कि चित्र में है । वहाँ श्री श्री मद्भाग्वत गीता पोथी रखी हुई होती है ।
नाम-कीर्तन हो जाने के बाद हर दिन वैसे प्रसाद वितरण तो नहीं होता । पर तिथिवालें विशेष दिनों में भिगोये हुए कच्चे मूंग-चने और फलों का प्रसाद दिया जाता है और वो भी केले के या कमल के पत्तों पर। वैसे हर असमिया पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठानों में यही प्रसाद दिया जाता है। मिठाई देने का नियम यहाँ नहीं है ।
इन दिनों मेरी माँ रोज़ नामघर जा रही हैं । जिस दिन मेरे परिवार की ओर से भक्तों के लिये कुछ चढ़ायेंगे उस दिन मैं भी जाऊँगी ।
✍🏻लेखिका : राजश्री डी.
कुशा उत्पाटन का दिन
भादौ की अमावस पर कुशा संग्रह का काम जब से समझ आई तब से हो रहा है। इस बार उदयपुर की मशहूर झील उदयसागर के पिछवाड़े के खेतों से कुशा का संग्रह किया और उसके पूले मित्रों तक पहुंचाये। कुशा के प्रयोग की सबको जानकारी है। महिलाएं कुछ ज्यादा ही ध्यान रखती हैं क्योंकि ग्रहण, सूतक, अर्पण - तर्पण आदि के दौरान हम से ज्यादा स्त्रियां ही कुशा को याद और उपयोग करती हैं।
सीता के काल से ही स्त्रियों को मालूम है कि कुशा रावण जैसी बला को टाल सकती है तो वे ही आगे चलकर बेटे का नाम कुसला या कुश रखती हैं! कुसल भूमि पर कितने कोसल, कौशल या कुशलगढ़ बसे और कुश उत्पाटन में दक्ष व्यक्ति को ही कुश या कुशल नाम मिला! कुशाग्र नामकरण का आधार क्या है? संस्कृत वाले इस घास के बारे में और भी जानते होंगे लेकिन चेटक विद्या और अंत्यकर्म प्रवीण लोग जानते होंगे कि कुशा के पुत्तल (पुतले) कब और क्यों बनते हैं? और, कुशा से कुशवाह, दाभ से दाभी जैसे वंशों की कहानियों के पीछे क्या कारण हैं?
कुशा उत्पादन वाले, बेड़च नदी के डब्बा छोर के एक खेत का नाम ही "कुसला" है, ऐसा पता चला। मित्र श्री उपेन्द्रसिंह अधिकारी और मैं वहां की तुलसीबाई के खेत पर जा पहुंचे और उनके परिवार के वृद्ध भेराजी द्वारा बताए कोने में कुशा उखाड़ने में जुट गए। बात - बात में पता चला कि कुशा मीठे पानी वाली भूमि पर होती है। मुझे तुरंत याद आया कि भेराजी और तुलसीबाई ने कब वराहमिहिर को पढ़ा जिसने मुंज, काश और कुशा को मीठे पानी का संकेत देने वाली वाली घास बताया है! (दकार्गल विद्या) वराह ने कुशा के आधार पर मीठे पानी का ज्ञान इस देहात से ही लिया हो और इसके गुण - धर्म को पहचान कर अध्येता वैदिक महर्षि बने।
कुशा हमारे घर में बारहों मास होनी चाहिए, यह मां का आदेश है! कहती थीं : पशुओं ने इसको नहीं खाया, मानवों के हित में छोड़ रखा है ताकि वे मीठे पानी की पहचान कर सकें, सूतक जैसे उत्पातों से निजात पा सकें। इसीलिए वह भादवी अमावस को हमें खेत पर लेे जाती थीं और कहानी में कहती थीं तुम जिसको घास कहते हो, उसने क्या - क्या नहीं दिया! पूछती जाती : क्यों कुशा का आसन बनाया गया! कब बना? कुशा उत्पादन कहां होता है और क्यों होता है? कुश द्वीप, हिन्दू कुश, कुशावर्त... जैसे नाम कैसे पड़े! यही उपयोगी घास मानी गई जिसके रज्जू से लेकर आसन और वितान तक बने, अंगूठी और मृदभांड रखने के लिए इंडोनिया (अंग्रेजी नाम नहीं) बनाई गईं... आदि मानव भी इसको जानता था और इसी कारण ज्ञानियों ने भी बात को आगे बढ़ाया लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा में कहा जबकि यह सब लोक के ज्ञान में है।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू
एक कहावत है अपने इधर 'जाड़े' को लेकर,
कर्मा में एक आना
जितिया में चार आना
दशहरा में दस आना
आर, सोहराय में सोलह आना।
मने कर्मा के बाद जाड़े की शुरुआत व सोहराय(दिवाली) आते-आते कोट स्वेटर का बॉडी में चढ़ जाना।
ये केवल जाड़े से ही सम्बंधित नहीं है बल्कि धान की फसल के लिए भी सेम है। धान का चक्र भी इन्हीं के अंतराल में खत्म होने को आता।
सावन-भादो तक में रोपाई.. और जब रोपा खत्म हो के धान हरियाने लगती है व जड़ मजबूत हो लहलहाने लगती है तो 'करम परब' आता है। धान के पत्ते काट कर चढ़ाया जाता आखड़ा में। .. याने 'एक आना'।
जितिया आते-आते धान की बालियां फूटने-फूटने को आती.. बाली में दूध नहीं होता.. फोंक-फोंक धान की बाली। याने दूसरा फेज.. याने 'चार आना'।
दशहरा(दांसाय) आते-आते बालियों में दूध भरने लगता व कड़क रूप धारण करने लगता। याने 'दस आना'।
और सोहराय आते-आते भरी हुई बालियां झुकने लगती.. सोहरने लगती.. याने सोहराय का आगमन .. हरियाली सुनहरे रंग में परिवर्तित होने लगती। काटने को आमंत्रित करने लगती। याने धान पक के तैयार.. 'सोलह आना' तैयार।
||कर्मा परब ||
सावन बीत गया है.. अपनी झमझमाती बरखा की बौछारों से ताल-तलैयों को सराबोर करते हुए चहुंओर हरियाली का सौगात दे गया है.. प्रकृति बोल पड़ी है। ..अभी भादो का महीना चल रहा है.. खेतों में धान लहलहा रही हैं.. ठेरका और घंटियों की आवाज़ और चरवाहों के हाँकों के बीच गाय-गोरु पुरे मगन के साथ चर रही हैं.. तो कुछ खुले और छूटे टाइप के बाछा बाड़े से भागकर खेत में लगी धान की दावत उड़ा रहे हैं, तो कुछ घंटों के बाद खेत मालकिन/मालिक उन बाछों को खदेड़ते हुए बाछा मालिक के पुरे खानदान की कुंडली निकालते हुए उनके घरों में घुसा दे रहे हैं.. और फिर अगले दिन से उस बाछे के गर्दन में बड़ा सा ठेरका या फिर लठ बाँध दिया जा रहा है।.. खेतों में धान के पौधों के साथ खरपतवार भी उग आये है.. डेढ़-दो महीने पहले ब्याह कर ससुराल आई नई बहुएं अपनी सासु माँ के संग खेतों में खरपतवार को निका रही है.. किसी खेत में ‘बोकी’ लग गया है तो कीटनाशक का छिड़काव किया जा रहा है..। .. भादो का महीना है.. कभी इतनी जोर से बारिश तो कभी इतनी तेज धूप और उमस की क्या कहने.. एक पल चादर ओढ़ने को मन करता तो दूजे पल सब कुछ उतार फेंक देने को... घर में रखा नून और गुड़ पिघल रहा है.. घरजवाई का ससुराल में टिकने का हिम्मत नहीं हो रहा है.. तबे तो ये कहावत बनी “भादोक गर्मी में घरजवाँय भागल हलेय!”। तो वहीँ नवविवाहितों का प्रेम अपने चरम में हैं। लेकिन इन्हीं गहन प्रेम के बीच नवविवाहिता का मन ससुराल में नहीं लग रहा है, बरबस ही उनका मन नईहर की ओर खींचा चला जा रहा है, क्योंकि “कर्मा परब” जो आने वाला है। नवविवाहिता अपने पति को न कह के अपने देवर से कहती है ..
“ आय गेलय भादर मास
लाइग गेलक नईहरक आस 2
छोटो देउरा हो.. कह दिहक ददा के तोहाइर
करम खेले जाइब नईहर।“
जी हाँ, झारखण्डी जनमानस की प्रकृतिरूपा ममत्वप्रिया कन्या झंकृत हो उठी है.. झारखण्ड के भूमण्डल में ‘कर्मा परब’ की आहट सुनाई पड़ने लगी है.. नवविवाहिताएं नईहर जाने को आतुर है.. बेसब्री से अपने भाइयों का लियान के लिए इंतज़ार कर रही हैं.. वहीँ नईहर में इनकी छोटी बहनें अपनी दीदियों का। सब मिल के एक साथ में पाँतवार हो के कदमताल के साथ ‘जावा’ नाचने के लिए लालायित हो उठी है. .. अखाड़े की साफ़-सफाई और चाक-चौबंध का पूरा प्रबन्ध किया जा रहा है।
भाद्र मास के शुक्ल पक्ष के एकादशी के दिन ‘कर्मा परब’ मनाया जाता है। एकादशी के ठीक सात या फिर नौ दिन पहले नवयुवतियां पास के बाँध या फिर नदी में स्नान कर करम डाली में सात या नौ प्रकार के दलहन या शस्यबीज ( धान, कुरथी,मुंग,बिरही,घँघरा,गेहूँ,चना,मकई और सेम) का नेगविधि से रोपन करती है जिसे ‘जावा उठाना’ कहते है। और साथ ही साथ सब कोई अपना निजी जावा भी ‘टुपला’ में उठाती है। मुख्य जावा डाली के साथ अन्य जावा को अखाड़ा में रख कर सात/नौ दिन युवतियां ‘करम गोसाई’ की गीतों के माध्यम से नृत्य करते हुए आराधना करती है।.. पूरा वातावरण संगीतमय हो उठता है… सुबह और देर रात तक युवतियां आखरा में नृत्य करती है..
“छोटे मोटे उड़ेन फेरवा
मुठिएक डाइढ़ गो
ताही तरे सुरुजा देवा
खेला ले जावाञ।“
"जाउआ माञ जाउआ, किआ किआ जाउआ..
जाउलँ भाइरे कुरथि बहुला"!
जैसे गीतों से पूरी प्रकृति झंकृत हो उठती है। करम गोसाई से अच्छे फसल की उपज के लिए कामना किया जाता है।
कर्मा की नृत्य-शैली एक अलग किसिम की होती है। माना जाता है कि करम-नाच से उत्पन्न शारीरिक प्रक्रिया से नवयुवतियों में मातृत्व शक्ति की वृद्धि होती है, बांझपन की समस्या नहीं होती है एवम् प्रसव सुगमतापूर्वक व खतरा रहित होता है।
कर्मा परब भाई-बहन के पवित्र रिश्ते का परब है.. भाई-बहन के रिश्ते को और भी प्रगाढ़ता प्रदान करता है.. भाई बहन के रक्षा के धर्म के प्रति कृत-संकल्प होता है. इसलिए कहा जाता है “बहिनेक करम, भायेक धरम”. . बहनें अपने भाईयों के दीर्घायु होने का कामना करते हुए गाती है,
"देहु देहु करम गसाञ, देहु आसिस रे
भइआ मरअ बाढ़तअ लाखअ बरिस रे।
देबो जे कर्मति देबो आसिस रे
भइया तोर बढ़तउ लाखों बरिस रे।“
मेरी छुटकी ने दस दिन पहले ही फोन करके बोल दी थी ‘दादा .. इस बार के कर्मा के साड़ी का बजट पिछले साल से दुगुना रहेगा.. आप नहीं आ रहे है तो ये आपकी सज़ा है!”
मेरी छुटकी तुम दोगुना क्या चार गुना पाँच गुना ज्यादा महँगा साड़ी खरीदना.. खेद है बहन नहीं आ पा रहा हूँ इस कर्मा में।
पूरा झारखण्ड कर्मा के रंग में रंगा हुआ है.. कर्मा के गीतों के साथ पूरी प्रकृति झूम रही हैं.. धान की बालियां फूटने को आतुर है। कल एकादशी है .. सभी आखरा में करम वृक्ष की डाली गाड़कर करम गोसाई की पुरे नेगाचारि और विधि-विधान के साथ पूजा करेंगे। मांदर की मधुरमय थापों के साथ झूमर गान होगा.. पूरी रात जागरण होगा।
करम गोसाई से प्रार्थना है कि इस साल भी फसल की उपज अच्छी हो और बहनों की सारी मनोकामनाएं परिपूर्ण हो।
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जय करम गोसाइ।
✍🏻गंगा महतो
खोपोली, झारखण्ड
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