रिश्ते का दंश
डा रमकृष्ण
गाँवों में प्राय: बैलगाडि़यों के ही उपयोग होते थे। कुछ लोग घोड़ी-घोड़े के शौकीन होते थे।जिन्हे कहीं अकेला जाना होता, घोडे की पीठ पर जीन-खोगीर कसाता उसके मुह में लगाम डालकर उछलकर सवार हो जाते।एँड़ लगाते यात्रा शुरू।मेरे यहाँ भी एक देखनगर घोड़ी थी।बहुत सीधी और बड़े काम की ।उसका गंतव्य या तो किसी कुटुम्ब के घर जाना अथवा जजमान में।पैदल चलने नहीं देती,डराती भी नहीं।कई बार बाऊजी मुझे भी उसकी पीठ पर बैठा देते ,और वह चल पड़ती। खेत की आलियों पर भी इतमीनान से चलती ,कभी उसके पाँव नहीं फिसले।उसे देखकर कितनों को तो जलन होती।ऐसा था उसका रंग-रूप,कद-काठी।हलकी सिंदूरी आभा को सफाई से सफेद अभ्रख मल दिया गया हो।हमेशा निश्चिन्त सा किन्तु चौकन्ना।उसकी सेवामें बाउजी ऐसे लगे रहते कि जैसे पूर्व जन्म का कोई आदरणीय हो। समय पर खाना, पूरे शरीर का खरहरा करना नित्य कर्म था। खरहरा एक चौकोर लोहे का खुरदरा प्लेट नुमा होता है जिससे घोड़े के शरीर को रगड़ा जाता है ।कहते हैं ,ऐसा करने से उसकी थकावट दूर होती है।
उसके खाने केलिए जिस नाद की व्यवस्था थी वह जमीन से दो फीट ऊँचे पर था। उसके खाने में घास के अलावा भीगा चना ,चोकर,कुट्टी सामिल होते। रवि फसलों में खेसारी, मटर की छेमियों सहित लरी को गड़ाँसे से काटकर दिया जाता।चने की झंगरी उसे प्रिय थी।
हमारे गोशाले में दो बैल और एक गाय भी थी किंतु हमने कभी उसे अन्य पशुओं की तरह बैठ कर न तो पागुर करते देखा न सोते ही। कितनी थकावट होती होगी इसे जब कहीं से जाकर आती होगी। पता नहीं कैसे मालूम हो जाता ,बाउजी केआने की आहटमात्र से हिनहिनाने लगती।वह तब तक बेचैन रहती जब तक उसकी पीठ ,गरदन और आलबाल को सहलाया न जाता। उसे टहलने केलिए आगे वालो दोनों पैंरोंं को छोटी स्स्सी से कुछ फासला देकर जिसे छानना कहते हैं,अर्थात छान कर छोड़ दिया जाता ताकि घूम घूम कर चर भी ले। जब खेत खाली होते तब उसकी गरदन में पगहा डाल कर ले जाते।वहाँबड़ी रस्सीमें बाँधी जाती ताकि बड़े दायरें में ।
वह शहर में कभी नहीं घूम सकी ।बस गाँव - जाती रही। एक बार एक जमीन की रजिस्ट्री कराने के लिए जमीन लिखनेवाले को बैठा कर टिकारी गयी थी, बाउजी पैदल ही गए-आए थै। टिकारी बाजार में कोड़ा बिकते देख एक खरीद लिया गया। कोडा़ था तो आकर्षक पर उसे काम आते कभी नहीं देखा ।बल्कि खोगीर से लग कर शोभा बढ़ाता।
एक दिन मेरे रिश्ते के नाना दीना पंडित घर आए। आव -भगत के बाद बाउजी से बोले,*'आपसे कुछ माँगने आए हैं,कहिए तो कहूँ।"बाउजी बोले,"कहिए,एकदम कहिए"। उन्हों ने कहा,
दो-चार दिनों के लिए आपकी घोड़ी चाहिए, दक्खिन जाना है,लौटकर आएँगे तो पहुँचा देंगे।"
ठीक है ,पर ध्यान रखिएगा,इसको कभी कोड़ा नहीं दिखाया गया है।थोड़ा दुलार खोजती है।
बाबूजी उठे,गोशाला गये,ले आए दूरे पर ।खोगीर कसें, लगाम लगा दिया।अब तक तो वह निश्चिंत थी लेकिन जैसे ही लगाम की रस्सी उनके हाथ में थमाई अनजानी आशंका से आशंकित की तरह उसके हाव भाव से स्पष्ट होरहा था कि वह मन से नहीं चाह रही थीं उनके साथ जाना।जाने देना तो हम भी नहीं चाहते थे ,कोई चारा भी नहीं था। नाना सवार हुए,चल दिए।
उस दिन हम लोगों का अच्छा नहीं रहा ।दिनभर कुँढते रहे। शाम तक झूठी दिलासाएँ मिलती रहीं। माँ से,चाची से रोज पूछते ,कब होगा चार दिन?कब आएगी सुवर्णा?
दो-चार क्या पाँच-छह दिन बीत गये। सातवें दिन रात के लगभग आसमान मे भुरुकवा उगने के पहले ही गली में उसके हिनहिनाने कीआवाज सी लगी। घर के प्राय:सारे लोग जग गये थे।बाउजी तो दूरे पर ही थे सो हिनहिनाने की आवाज पहचान गये,दौड़े। उसे देखकर काटो तो खून नहीं ।एक आँख से खून बह रहा था शरीर भी काफी दुबला। अब सब काम छोड़-छाड़ उपचार होने लगा। दूरे पर ही नाद मंगवा कर दारा चुन्नी दिया गया ।खून बहना तो रुक गया किन्तु पानी बहता रहा ।
उन दिनों आदमी के डाक्टर तो मिलते न थे जानवर के कहाँ मिलते ।मझिआमा में ,सीताराम बाबू घोडा रखते थे।उन्हे दिखाया गया।उन्होंने उपचार तो बताया पर आँख की रोशनी के चलेजाने की संभावना बता दी और यह भी कहा कि यदि भीतरी चोट होगी तो सम्हलना मुश्किल है। हुआ भी वही।लगभग पंद्रह दिनों तक जीवन से संघर्ष करते हुए हार गयी। घर भर के गुस्से और शोक का वर्णन नहींं।
शायद एक दिन के बाद ही बाउजी ने अपने एक विशवास पात्र को उस गाँव भेजा,पता लगाने केलिए कि क्या हुआ था ,।
लौट कर जो उसनें बताया ।बहुत दुखद था।ठीक से खाना न देना ,रात को छान कर छोड़ देना ,बेचारी किसी के खेत में गुड़कती चली जाती ।ऐसे ही किसी ने अगोरी करते हुए देखा और भाला फेंक कर मारा ।आँख में लगी ,।कितनी छटपटाई होगी बिचारी।और भी मारा होगा।बाउजी मसोस कररह गये।
रिश्ता तो रिश्ता होता है ,चल सकता,है टूट सकता है।शायद उनको भीअपराध बोध होगया हो। तब से फिर कभी नहींं आए दीना पंडित।
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