"विवाह पूर्व फोटोशूट: आधुनिकता या सांस्कृतिक पतन?"
लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्रआज का समय तेज़ी से बदलता जा रहा है। तकनीक, फैशन और सोशल मीडिया के ज़रिये पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है। इस बदलाव का असर हमारे पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर भी पड़ा है। खासकर विवाह जैसे पवित्र बंधन को लेकर जो परंपराएँ थीं, वे अब सिर्फ रस्में बनकर रह गई हैं—या कहें, बाज़ारू दिखावे में तब्दील हो गई हैं।
आज विवाह सिर्फ दो आत्माओं का मिलन नहीं, बल्कि एक “इवेंट” बन गया है। और इस इवेंट की शुरुआत होती है विवाह पूर्व फोटोशूट से, जिसे आज की पीढ़ी "प्रि-वेडिंग शूट" कहती है।
प्रि-वेडिंग फोटोशूट: एक फैशन या संस्कृति का अपमान?
पहले जहां विवाह की तस्वीरें सिर्फ विवाह मंडप में ली जाती थीं, वहीं अब विवाह से महीनों पहले जंगलों, झीलों, महलों और यहाँ तक कि बेडरूम सीन जैसी लोकेशनों पर कपल्स को फिल्मी स्टाइल में पोज़ करते देखना आम बात हो गई है। कैमरे के सामने वह सब दिखाया जाता है जो पहले सिर्फ व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा माना जाता था। रोमांटिक गानों की म्यूज़िक वीडियो जैसी शूटिंग होती है, और फिर यह सब सोशल मीडिया पर वायरल किया जाता है।
यह सब देखकर यही लगता है कि हम धीरे-धीरे पश्चिमी जीवनशैली के अनुकरण में इतने अंधे हो गए हैं कि अपनी ही परंपराओं का सम्मान भूल गए हैं। पहले विवाह एक पवित्र संस्कार था—अब यह एक शो बन गया है, और हम सब इसके दर्शक।
क्या यह सिर्फ "नया ज़माना" है?
कुछ लोग तर्क देंगे कि समय के साथ चीज़ें बदलती हैं। यह “नए ज़माने की सोच” है। लेकिन क्या हर बदलाव को प्रगतिशील कहा जा सकता है? क्या सार्वजनिक रूप से अंतरंगता दिखाना विकास की निशानी है? क्या विवाह पूर्व प्रेम और स्नेह की अभिव्यक्ति का यह तरीका सही है?
यह भी तर्क दिया जाता है कि यह सब “यादों को संजोने” के लिए है। लेकिन यादें तो पहले भी बनती थीं, बिना कैमरा के भी—सच्चे एहसासों से, विश्वास और परंपरा से। अब तो यादों का भी बाजार बन गया है।
सामाजिक और पारिवारिक प्रभाव
सोशल मीडिया पर डाली गई इन तस्वीरों का असर सिर्फ कपल्स तक सीमित नहीं रहता। इससे समाज के अन्य युवा प्रभावित होते हैं और वे भी इसी तरह के दिखावे की ओर आकर्षित होते हैं। एक प्रकार की होड़ सी लग जाती है—कौन सा शूट ज़्यादा फिल्मी, ज़्यादा हॉट, ज़्यादा रोमांटिक और ज़्यादा वायरल होगा। इस प्रतिस्पर्धा में न तो परिवार का संस्कार रह जाता है, न ही व्यक्तिगत मर्यादा।
यहाँ तक कि कई बार माता-पिता को भी बच्चों के दबाव में ऐसे शूट्स का हिस्सा बनना पड़ता है, जबकि उनके मन में यह सब असहजता भर देता है। लेकिन सोशल मीडिया की आंधी में उनकी आवाज़ दब जाती है।
अगला कदम क्या?
जिस तरह से यह ट्रेंड बढ़ रहा है, वह दिन दूर नहीं जब विवाह पूर्व अंतरंग पलों को भी "कंटेंट" समझ कर कैमरे में कैद किया जाएगा। कुछ हद तक यह पहले ही शुरू हो चुका है—केवल उसे और अधिक खुले रूप में आने में थोड़ा वक्त लग रहा है। यह स्थिति निश्चित ही चिंताजनक है।
समाधान क्या है?
- संस्कार आधारित शिक्षा – बच्चों को यह समझाना कि आधुनिकता का मतलब अपने मूल्यों का परित्याग नहीं होता।
- मीडिया साक्षरता – सोशल मीडिया के प्रभाव और उसके नकारात्मक परिणामों के प्रति जागरूक करना।
- पारिवारिक संवाद – विवाह जैसे संस्कारों को पारिवारिक सम्मान और सांस्कृतिक गौरव से जोड़ कर देखा जाए।
- संयम और मर्यादा – दिखावे की बजाय विवाह को एक भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक बंधन के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
निष्कर्ष
हम आधुनिक बनें, इसमें कोई बुराई नहीं। लेकिन आधुनिकता के नाम पर अगर हम अपनी संस्कृति, मर्यादा और मूल्यों को ताक पर रख दें, तो वह प्रगति नहीं, पतन है। विवाह जीवन की सबसे सुंदर शुरुआत होती है, इसे एक “पब्लिक शो” नहीं, बल्कि “पर्सनल ग्रेस” की तरह मनाना चाहिए।
आज जिस दिशा में हम जा रहे हैं, वह केवल बाह्य सुंदरता और दिखावे की दुनिया है। समय रहते हमें संभलना होगा, वरना वह दिन दूर नहीं जब विवाह से पहले के नहीं, बल्कि ‘बेडरूम के बाद’ के सीन भी सोशल मीडिया पर "ट्रेंड" बनेंगे।
आइए, सोचें… रुकें… और अपनी संस्कृति की ओर लौटें।
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