अ कीर्तिवर्धन
तेरे कदमों के सहारे चलना सीखा,
तेरी दुवाओं से मैनें बढ़ना सीखा,
दिलाता हूँ भरोसा तुमको ऐ माँ!
कदमों के निशां बनाकर आऊँगा,
आज मंजिलों से आगे मैं बढ़ जाऊँगा,
तेरे प्यार की सौगंध कुछ कर दिखाऊँगा,
तुम कहीं भी रहो माँ,
तुमको भूल ना पाउँगा।
चोट लगती थी जब मुझको कहीं,
दर्द तेरे चेहरे पर उभर आता था।
भूखा न सो जाऊं मैं कहीं,
सोचकर तेरा कलेजा भर आता था।
जब भी थककर चूर होता था,
तेरी गोद में चला आता था।
तेरा प्यार से बालों को सहलाना,
मैं नींद के आगोश में चला जाता था।
माँ!आज तुम बहुत याद आती हो।
देर हो जाती थी मुझको, रात आने में,
राह तकती थी बैठकर, दीवानखाने में,
चौकन्नी हो जाती थी, हर आहट पर,
निगाहें लगी रहती थी, हर आने जाने में।
सोचता हूँ कौन तकेगा, अब राह मेरी,
मिल नही सकता माँ सा प्यार जमाने में।
माँ! तुम कहीं भी रहो,
याद रहोगी सदा मेरे अफसानों में।
तेरे जाने के बाद, इस जहां से,
सोचकर मैं हैरां परेशान हूँ,
कौन सहलायेगा मेरे बालों को,
किसकी गोद में सो पाऊँगा?
कौन समझेगा हाल ए दिल मेरा,
किसको अपना दर्द बता पाऊँगा?
माँ! तुम कहीँ भी रहो,
तुमको भुला न पाँऊगा।
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