गुड़ की भेली

गुड़ की भेली

इधर बहुत दिनों से वटेसरकाका का दर्शन नहीं हुआ था, अतः सोचा कि चलकर उनका हालचाल ले लूँ। किवाड़ भिड़काया हुआ था। आवाज लगाने पर, जवाब में भीतर से काका की आवाज आयी—“ चले आओ बबुआ ! यहीं आंगन में हूँ। भेली फोर रहा हूँ।”
आँगन का दृश्य बिलकुल ‘दृश्य’ जैसा बना हुआ था—बीचोबीच बड़ा सा सिलऊट रखा हुआ था,जिसके चारो ओर गुड़ के छोटे-बड़े ढेले बिखरे हुए थे। जिसका एक बड़ा सा ढेला लेकर,छोटी सी लोढ़िया से काकी ताबरतोर कूटे जा रही थी। सिलऊट-लोढ़िया में अपनेपन वाला तालमेल बिलकुल नहीं था। पास बैठे काका ‘ थोड़ा और जोर लगा के...और जोर लगा के...’ कहते हुए जोश दिलाये जा रहे थे काकी को।
मुझे देखते ही काका का टेप चालू हो गया—“ इ देखो ससुरा भेली बनाया है कि चटान...घंटे भर से फोरते-फोरते बेदम है तुम्हारी काकी। ”
मैंने देखा, काकी पसीने से एकदम लथपथ हैं। काका कहने लगे—“ अभी चैत का महीना है। जानकार लोग कहते हैं कि चैत में गुड़ नहीं खाना चाहिए, किन्तु ये अधूरी बात है। पूरी बात ये है कि सोंठ-गोलकी वाला गुड़ का भेली खाने में कोई हर्ज नहीं है। ‘भेली’ के बारे में हो सकता है नयी पीढ़ी को कुछ पता भी न हो और जब भेली ही नहीं जानते, फिर ‘रावा’ के बारे तो और भी पता नहीं होगा। पुराने लोग सोंठ-गोलकी डालकर सोंधा-सोंधा स्वादिष्ट गुड़ तैयार करते थे- छोटे-बड़े लड्डुओं के आकार में—उसे ही भेली कहते हैं। लोग बड़े चाव से, खासकर गर्मियों में भेली खाकर पानी पीते थे। कोई भी अतिथि आता तो पहले मीठा-पानी के साथ उसका स्वागत होता था। अब तो डायविटीज का जमाना है। ये ससुरा चीनी वाला रोग भी वाई वर्थ निकल जा रहा है। ये सब चीनी की ही देन है। रावा को रिफाइन करके चीनी बना दिया—सब गुड़ गोबर कर दिया। अब हर बात सूगरफ्री की करनी होती है। च्यवनप्राश बनाने वाली कम्पनियाँ भी लोगों को बेवकूफ बनाने में लगी हुयी है—सुगरफ्री च्यवनप्राश बना बनाकर। अरे गधे ! गुड़ डालोगे ही नहीं, मधु डालोगे ही नहीं, घी से कोलेस्ट्रोल लेबल ही हाई होने लगेगा। तो फिर इन सबके वगैर तुम्हारा च्यवनप्राश क्या सकरकन-सुथनी का हलुआ भी नहीं बनेगा। ये ठीक वैसा ही है जैसे लड्डु-भंडार वाले सुगरफ्री लड्डु बना रहे हैं और अक्ल के पैदल ‘जीभचटोर’ लोग जम कर खा भी रहे हैं। चैत का महीना है—पित्त बिगड़ने वाला महीना। बचपन से ही आदत पड़ी है— सेर भर रावा घोल कर दूध या मट्ठा मिलाकर जबतक जीभर पी न लूँ, चैन नहीं। काहे को डायबीटीज होगा और काहे को कोलेस्ट्रोल बिगड़ेगा ! तीसी के शुद्ध तेल में रोज दिन पकौड़ियाँ तलाता था। जी भर कर खाता था। कभी हाज़मा खराब नहीं हुआ। अब सेहत का राज—‘सफोलागोल्ड’ और ‘ओमेगा थ्री’ खाओ न टीवीवालों का विज्ञापन देख देखकर। गाय-भैंस को खाने वाला ‘कोंढ़ा’ अब ‘व्रॉनवायल’ बनकर बड़े लोगों के घरों में घुस आया। घोड़े का चारा घोड़जई अब ‘ओट्स’ बन कर फ्रिजों में सहेजा जा रहा है। इतने के बाद भी सेहत के प्रति जागरुक लोगों की आधी से अधिक कमाई डॉक्टरों की जेब में चली जा रही है। यही सब मजा है अपनी संस्कृति से बाहर झांकने-भागने का। भागो और भागो । भागोगे तुम तो भोगेगा कौन? ”
इतना कहकर काका जरा रुके। काकी का जोश फिर एक दफा जगाये— “अब ज्यादा नहीं रह गया है। दो-चार भेली और है। इसे भी निबटा ही लो।”—कहकर मेरी ओर मुखातिब हुए— “ये ससुरा बनिया से घटिया कोई जीव नहीं। पहले तो मैं नेता को ही सबसे घटिया मानता था, पर अब देखता हूँ कि ये बनिया कम्पटीशन में आगे निकल रहा है। नेता तो सिर्फ जुबान में मिलावट करता है, परन्तु ये नालायक किस्म का जीव तो हर चीज में मिलावट किए वगैर मानेगा ही नहीं। दूध में पानी मिलाने के लिए पहले अहीर जाति की मोनोपोली थी, जैसे जेवर में मिलावट के लिए सुनार जाति की; किन्तु लव-व्यापार की तरह वस्तु-व्यापार में जाति-प्रथा तो कब की समाप्त हो चुकी है। अब सतयुग वाले तुलाधार वैश्य तो रहे नहीं। वैश्य और वेश्या में ईमानदारी खोजनी हो तो वेश्या आगे निकल जायेगी। वैश्य को भला ईमानदारी से क्या वास्ता! अब जरा देखो न— इस गुड़ की भेली की हालत—अन्दर में कितनी सफेदी है और कितना कड़ापन। पहले तो हड्डी का चूरा मिलाया ’हाइड्रस’ के नाम पर और उपर से मेटेरियल डेवलपमेन्ट के चक्कर में चावल की चुन्नी भी पीस-पास कर मिला दिया है ससुरा। अब सोचो, भला व्रत-त्योहार के लायक रह गयी ये चीजें? धन बटोरने के चक्कर में धर्म और संस्कृति को मटियामेट कर दिया इन वनियें-व्यापारियों ने। जहाँ देखो मिलावट— खाने-पीने की चीजों से लेकर दवा-दारु तक। अरे वो पैसे के औलादों ! दारु में पानी मिलाओ न, कौन रोकता है। अब दवा और खाद्य पदार्थों में मिलावट करोगे तो बर्दाश्त करने की चीज है ! सम्भल जाओ, नहीं तो खींच-खींच कर धुनाई करेगी पब्लिक। जैसा कि देख ही रहे हो कि अस्पतालों में भ्रष्ट और लापरवाह डॉक्टरों की खिंचाई-धुनाई कितनी आम हो गयी है। अब बारी है वनियों और नेताओं की ही। जनता बहुत होशियार और जागरुक हो गयी है। जानते ही हो कि नयी वाली डिक्शनरी में जागरुक का मतलब होता है— धीरज-हीन और बेअदब। बात-बात में बाल की खाल खींचकर बेअदबी करना, उबल पड़ना, मार-पीट कर बैठना और खुदा न खास्ते किसी छुटभैया की शह मिल गयी तो चक्का जाम करने में रत्ती भर भी देर न करना। रोड जाम और घेराव तो जनता के मौलिक अधिकारों में नम्बर वन पर आ गया है। इसलिए इसकी ताकत को नज़रअन्दाज करना महंगा पड़ सकता है...। ”
काका अभी और उचरते, परन्तु मुझे उनकी बोलती बन्द करने का मन हुआ। सो बोल पड़ा— घट रही घटनाओं पर टिप्पणी तो आपकी बिलकुल ज़ाएज़ है काका; किन्तु जागरुकता का ये नया वाला अर्थ बड़ा महंगा पड़ रहा है समाज और राष्ट्र के लिए। धैर्यहीन, बुद्धिहीन, दिशाहीन अराजकता का फैलाव हो रहा है। मॉबलींचिंग आमबात हो गयी है। भीड़ में हरकोई हाथ साफ करना चाहता है। इस महा संक्रमित विकृति से तो निज़ात पाना होगा। वनियें-व्यापारी नेता को खरीद लेते हैं और नेता जनता का मनचाहा व्यापार शुरु कर देता है। महंगाई, जमाखोरी, चोरबाजारी और मिलावट से नेता या कि सरकार को कोई मतलब नहीं रह जाता। नाप-तौल से लेकर, जाँच-पड़ताल तक बीसियों विभाग बने हुए हैं और उनमें कुर्सियाँ तोड़ते हरामखोर अफसर-कर्मचारी पूजा-दक्षिणा देकर जनताजनार्दन के समक्ष सत्यनारायण कथा परायण कर रहे हैं। अतः चाणक्य की तरह शपथपूर्वक इन हरामखोरों के लिए भी कुछ न कुछ उपाय तो सोचना-करना होगा हम ही-आपको। अन्यथा गुड़ की भेली में चावल की कन्नी की मात्रा बढ़ती ही जायेगी और काकी का पसीना छूटता ही रहेगा।
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