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मराठा पठान संघर्ष और स्वर्ण मंदिर की मुक्ति

मराठा पठान संघर्ष और स्वर्ण मंदिर की मुक्ति

नारी का मन

-मनोज मिश्र

अक्सर हम सुनते हैं कि सिखों ने मुस्लिमों से हिंदुओं की रक्षा की। नहीं नहीं मैं आज कल की बात नहीं कर रहा हूँ जब वो खालिस्तानी हमारे गले काटने के लिए उन्ही मुस्लिमों के साथ मिलकर आन्दोलन कर रहे हैं। एक समय ऐसा आया था जब खालसा पंथ खत्म होने के कगार पर पहुंच गया था। सिखों के हरमंदिर साहिब से सारा सोना निकाल कर पठान ले गए थे स्वर्ण मंदिर में उन्होंने मिट्टी भर दी थी।
पेशवा महाराज की जय हो, सेनपति रघुनाथ पंडित राव की जय हो। सरहिंद से सिखों का संदेशा हरकारा लाया है। दोआब मोर्चे कानपुर में डटे पेशवाओं के सरदार रघुनाथ पंडित राव की पेशानी पर बल आ गए। वो फिलवक्त हरयाणा के जाट राजा सूरजमल के साथ रोहिल्लाओं को जकड़ने के लिए लाव लश्कर के साथ मोर्चे पर थे। मराठी अस्मिता के प्रहरी आगरा से साबाजी शिंदे और तुकोजी होल्कर भी इस घेराव में रघुनाथ पंडित राव के साथ थे।
22 अक्टूबर 1758 के दिन था तीसरे पहर में 2 बजे थे। इस समय रघुनाथ पण्डितराव हरयाणा के जाट राजा सूरजमल के साथ रोहिल्ला मुगल सरदार नजीब खान और मलिका ज़मानी को  दिल्ली और मेरठ में घेर लिया था। कोशिश इनकी ताक़त को हमेशा के लिए नेस्तनाबूत करने की थी। इस कार्य में मदद के लिए पेशवाओं के साथ आगरा से साबाजी शिंदे और तुकोजी होल्कर भी दूसरे छोर से मुगलों को घेरे हुए थे। पेशवाओं ने सरदार रघुनाथ पण्डितराव के हमलों के दम पर सन 1751 से ही उत्तर भारत अपनी पकड़ मजबूत कर शिवजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी सम्राज्य के भगवा ध्वज को स्थापित कर दिया था।
हरकारे को आने दिया जाय - रघुनाथ पण्डितराव की सतर्क निगाहें उत्सुक थीं कि आखिर संदेसा क्या है और उन तक पहुँचने की जरूरत क्या हुई। 
महाराज रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, पठानों ने हरमिंदर साहेब अमृतसर को नापाक कर दिया है और स्वर्ण मंदिर तोड़ का मिट्टी से भर दिया है। 
घबराओ नहीं पहले ये बताओ कि तुम्हे भेजा किसने है और ये कैसे हुआ।
मैं जस्सा सिंह अहलूवालिया, कपूरथला, अला जाट, पटियाला और जस्स सिंह रामगढ़िया के साथ साथ लाहौर के पुराने मुगल गवर्नर मदीना बेग की ओर से संदेसा लाया हूँ। काबुली पठानों ने उत्पात मचा रक्खा है। तुर्क पठान अब्दुस्समन्द खान ने  हमारे ऊपर अचानक हमला कर दिया। हमारी 15 हज़ार की फौज उसकी 80 हज़ार की सेना का मुकाबला न कर सकी। स्वर्ण मंदिर के तालाब पर उनका कब्जा है। आपके लिए ये छह संदेसे हैं -
1. सरहिन्द में तुर्क पठान अब्दुस्समन्द खान आ गया है।
2. हरमिंदर साहब नापाक कर दिया गया गया है।
3. पवित्र मंदिर लाशों से अटा पड़ा है।
4. दक्खन की मदद जरूरी है।
5. वरना हिन्दू खालसा का सफाया होना तय है।
6. मदद की गुहार है।

रघुनाथ पण्डितराव ने हरकारे के ठहरने का इंतजाम करने को कहा और अमृतसर को कैसे मुक्त किया जाय इस पर विमर्श करने लगे। निर्णय हुआ कि मराठों के भगवा ध्वज के ताले सभी छत्रप एकत्रित हों और सिखों के सबसे पवित्र स्थान को मुक्त कराने के लिये प्रयत्न हो। पठान मराठा संघर्ष की बुनियाद रखी गयी। रघुनाथ ने पूरब की अपनी मुहिम रोक दी और सरहिन्द की ओर निकल पड़े। फरवरी में पेशवा मराठों की भयंकर सेना पंजाब में घुस गई। पहली जंग हुई 24 फरवरी को कुंजपुरा में। कृष्णराव काले और शिवनारायण बुंदेला ने 2400 पठानों को मारकर इस जंग की शुरुआत की। महज 8 घंटे की जंग में पठानों ने घुटने टेक दिए, मराठो की सेना ने किले पर कब्जा कर लिया। पंजाब अब मराठों की नंगी तलवारों की छांव में था।
8 मार्च 1759 को सिरहिन्द की निर्णायक जंग हुई। जिसमें पेशवा रघुनाथ राव, सरदार होल्कर, सरदार सिंधिया, सरडरेंकोजी अणाजी, सरदार रायजी सखदेव, सरदार अंताजी मनकेश्वर, सरदार गोविंद पंत बुंदले, मानसिंह भट्ट कालिंजर, सरदार गोपाल राव बर्वे, सरदार नरोपण्डित, सरदार गोपाल राव बाँदा और कश्मीरी हिंदूराव की 22 हज़ार की फौज ने 3 दिन में सिरहिन्द जीत लिया। 10 हज़ार पठान मारे गए और उनके सरदार अब्दुस्समन्द खान को बंदी बना लिया गया।
अब अमृतसर की मुक्ति और पेशवाओं के के बीच एक ही दीवार थी - लाहौर। 
14 मार्च 1758 को हिंदवी साम्राज्य ने लाहौर पर हमला किया। 800 सालों में पहली बार किसी भगवामय हिन्दू फौज ने लाहौर में प्रवेश किया। लाहौर में पठानों का राजकुमार तैमूर खान और जहां खान ने मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी। पेशवा रघुनाथ राव ने नरोपण्डित, संतजी और तुकोजीराव होल्कर के साथ मिलकर लाहौर पर पूरी ताकत से हमला किया। बाकी सरदारों ने लाहौर के साथ अमृतसर में धावा बोला। यह आक्रमण इतना प्रचंड था कि 5 मील दूर खड़ी सिखों की फौजों को पठानों की चीख सुनाई दे रही थी। मराठो के आ जाने से सिखों में भी जोश आ गया। अमृतसर और लाहौर के बीच 22 किमी में पठानों का कत्लेआम शुरू हो गया। हरमिंदर साहब को अपवित्र करने की सज़ा मिलनी शुरू हो गयी थी। शाम तक लाहौर से तुर्क और पठान निकाल दिए गए। अमृतसर में पेशवा रघुनाथराव का कब्जा हो गया।
सिखों के स्वर्ण मंदिर में मराठा फौज ने प्रवेश किया और राघोबा ने आलासिंह जट्ट को मंदिर पुनर्निर्माण के लिए अफगानों से लूट हुए सोने जवाहरात भेंट किये। सिखों की अहलूवालिया के सेना ने अमृतसर को घेर कर उसकी सुरक्षा का जिम्मा लिया और एक बार फिर स्वर्णमंदिर पर खालसा ध्वज और मराठा भगवा फहराने लगा। पर सत्ता और इसकी हनक क्या कुछ नहीं करवाती। 
दो वर्षों के बाद जब मराठाऒं को पानीपत में मदद की जरूरत पड़ी तो सिखों ने उनका साथ नहीं दिया। वे बिल्कुल मुंह मोड़ कर बैठ गए फलतः सभी मराठा सरदार जिन्होंने स्वर्ण मंदिर मुक्त कराया, इस युद्ध में पठानों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। पर इस आत्मोसर्ग के क्रम में भी युद्ध इतना भयंकर होता है कि पठान फिर से भारत में घुसने का साहस नहीं करते। वे वापस अपने देश अफगानिस्तान लौट जाते है। पेशवा अपना बदल नजीब जंग से लेने मेरठ चले आते हैं। मराठा समराजयजहाँ जहां फैला वहां वहां के लोग इसमें शामिल होते गए। इसमें करीब करीब सभी हिन्दू ही थे। इसका मुख्य कारण इस सेना का हिंदवी सेना होना था जिसकी बुनियाद शिवाजी महाराज ने रखी थी।
आज के समय में जब खालिस्तान आंदोलन जोर पकड़ रहा है ओर वे शेखी बघारते हुए कहते हैं कि हमने हिंदुओं को बचाया उन्हें ये इतिहास याद रखना चाहिए।
संदर्भ : जी एस सरदेसाई, मराठी रियासत भाग 4। मुला मुथा की पुस्तक।
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1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक लेख है , खालिस्तानी दुष्प्रचार का मुंहतोड़ उत्तर है .

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