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महर्षि वशिष्ठ की शिक्षा

महर्षि वशिष्ठ की शिक्षा

                                            दिवाकरं ग्रहाधीशं हेरम्बञ्च सरस्वतीम्।
                                             विविच्यते प्रणम्यादौ वसिष्ठस्यं हि संहिताम्॥
       भारत की गुलामी ने भारतीय शिक्षा की कमर ही तोड़ कर रख दी। हमारी शिक्षा प्रणाली विश्व का मार्गदर्शन करने वाली थी और आज भी है। सृष्टि के आधार से जुड़ी थी और जुड़ी है एवं ब्रम्हांड का ज्ञान प्रदान करती है। इसका मूलाधार हमारे वेद हुआ करते थे जो आज भी हैं ।आज भी हमारी पारिवारिक, सामाजिक ,वैज्ञानिक एवं दार्शनिक विचार धाराओं के स्रोत बेद ही हैं ।
    वेदों के छह अंग बताए गए हैं ।इसमें पहला अंग शिक्षा है, दूसरा कल्प, तीसरा व्याकरण, चौथा निरुक्त ,पांचवा छन्द और छठा ज्योतिष ।इसीलिए वेद को षडङ्ग कहा गया है ।शिक्षा मंत्रों के ठीक-ठीक उच्चारण एवं प्रयोग समझने के लिए आवश्यक है ।कल्प के अंतर्गत कर्मकांड एवं धार्मिक अनुष्ठान आते हैं । व्याकरण की आवश्यकता शब्दों की वर्तनी एवं उसके प्रयोग के लिए महत्वपूर्ण है। निरूक्त में हम ज्ञान के निमित्त शब्दों का निर्माण करते हैं ।वैदिक छन्दों को समझने के लिए छन्द का ज्ञान आवश्यक है ।अनुष्ठानों एवं काल गणना हेतु ज्योतिष की उपयोगिता सर्वमान्य है ।
     महर्षि वशिष्ठ ने ज्योतिष को वेद पुरुष का नेत्र कहा है। 
वेदस्य चक्षुःकिल शास्त्रमेतत्प्रधानताङ्गेषु ततोऽस्जाता।
अङ्गैर्युक्तोऽन्यैः परिपूर्ण मुर्तिश्चक्षुर्विहीनःपुरुषो न किंचित्॥
                                                                        बृ॰वसिष्ठ संहिता-अ॰1/6
                                  कालाधीनं जगत्सर्वम्
 काल के वशीभूत होकर ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की है, काल के अधीन होकर ही विष्णु उसका पालन कर रहे हैं और काल  कॉल को आधार मानकर ही महाकाल भगवान शंकर संहार करते हैं ।काल के अधीन ही ॠतुएँ अपना प्रभाव दिखलाती हैं। कालानुसार ही सभी प्राणी -पशु ,पक्षी ,वृक्ष आदि चलते हैं ।इसे अभीष्ट मानकर बारों का नामकरण सर्वप्रथम भारत में हुआ ः-
                                                          आदित्य सोमोभौमश्च तथा बुध बृहस्पतिः।
                                                          भार्गवःशनैश्चरश्चैव एते सप्त दिनाधिपाः॥ 
                                                                                                        अथर्व वेद।
                       यह हमारे ऋषियों की अनुपम देन है । इसलिए अथर्वा ॠषि ने काल को ग्रहीता, दाता एवं कर्ता कहा है। इससे भविष्य के फलों को कहने की विधियां निरुपित हुई हैं।
   फलित स्कंध को पांच भागों में विभाजित किया गया है ः-जातक, ताजिक, मुहूर्त एवं प्रश्न ।pइन पांचों विभागों से भविष्य की बातें बताई जाती हैं ।
यथा- जातक- मनुष्य के जीवन काल से संबंधित फल कहे गए हैं।
       ताजिक-इसमे वर्षफल कथन की विधियां हैं ।
       मुहूर्त -इस विभाग के जातक कर्म, नामकरण,अन्नप्राशन,  चौलकर्म(मुंडन),यग्योपवीत आदि मुहुर्तों का वर्णन है।
बृद्ध वसिष्ठ संहिता में पंचाङ्गों तथा प्रमुख संस्कारों का विस्तृत निरुपण किया गया है तथा ग्रह दोषों के उल्लेख के साथ -साथ उनके समानार्थ उपाय भी बताए गए हैं।
              शास्त्रस्वरूप ग्रहचारमान प्रत्येक पंचाङ्ग फलंख्ज़णाख्या।
              गोचर संक्रान्तिशिशताशव लोपखेटग्रह कौरमाश्च ॥       
  इन विषयों के आधार पर इस ग्रंथ की व्यवहारिक उपयोगिता सिद्ध हो जाती है। वशिष्ठ आगे कहते हैंः-
                        श्रुति स्मृतिज्ञः पतुरर्थशास्त्रे शब्दोपबिष्ट कुशलः कलाषु।
                       त्रिस्कन्धविज्ज्योतिषिकः सुवेषुःकुली सुवृस्त्वगदःसुवृतः॥
                                                                                बृ॰ बसिष्ठ संहिता-1/8
      शास्त्रों के मनन चिंतन में प्रवृत्त रहते हुए कुशल- भाग्य बनाया जा सकता है ।इस प्रकार बशिष्ठ की शिक्षा आज के संदर्भ में अति ही आवश्यक है।
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