शत्रु का बल आंके बिना अगर लड़ने कूद पड़ें, तो आमतौर पर ऐसी ही वीरगति प्राप्त होती है|
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
जाड़े का मौसम है तो कई “कार्डिगन” भी आजकल बाहर ही होंगे। इस ख़ास किस्म के ऊनी वस्त्र का नाम “कार्डिगन” एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी के नाम पर होता है जो सेवेंथ अर्ल ऑफ़ कार्डिगन थे। ये प्रसिद्ध युद्ध “बैटल ऑफ़ बलाक्लावा” में लड़े थे। कभी अंग्रेजी कविता “चार्ज ऑफ़ द लाइट ब्रिगेड” (अल्फ्रेड टेनीसन) पढ़ी होगी, तो वो इसी युद्ध के बारे में है। इसमें एक घुड़सवार टुकड़ी बेवकूफी भरा हमला करती है और मशीनगन बैटरी के सामने लड़ने की कोशिश करते लगभग सभी घुड़सवार मारे जाते हैं। अगर कुछ वर्ष पहले आई फिल्म “वॉर हॉर्स” देखी हो, तो उसमें भी घुड़सवारों का एक ऐसा ही बेवकूफी भरा हमला दिखाया जाता है। शत्रु का बल आंके बिना अगर लड़ने कूद पड़ें, तो आमतौर पर ऐसी ही वीरगति प्राप्त होती है।
अब अगर सुन्दरकाण्ड देखेंगे, तो हनुमान जी जब माता सीता की खोज में लंका पहुँचते हैं तो उनके पास भी बिलकुल ऐसा ही अवसर था। वायु मार्ग से आ रहे थे, सीधा लंका के अन्दर ही कहीं कूद पड़ते! क्या दिक्कत थी? लेकिन हनुमान जी “चार्ज ऑफ़ द लाइट ब्रिगेड” करके अपना नाम वीरों की सूची में लिखवाने पर नहीं तुले थे। बहुत वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, या गिरफ्तार कर लिए गए और जिस सेना के लिए लड़ रहे हैं, उसे विजय मिलने के बदले हार मिल गयी तो क्या फायदा? व्यक्तिगत यश या जातिय गौरव से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सामुदायिक हित होता है।
तो लंका पहुंचकर हनुमान जी सीधे नगर में नहीं घुस जाते हैं। वो एक पहाड़ी पर चढ़ जाते हैं, जहाँ से नगर को देखा जा सके। वहां से वो किले को देखते हैं, वहां कई योद्धा मौजूद हैं, ये भी देखते हैं, बाजार, चहल-पहल देखते हैं और अंत में तय करते हैं कि अभी ही किले में घुसना समझदारी नहीं होगी। रात के समय आकार छोटा करके लंका में घुसना समझदारी होती इसलिए वो आराम से बैठकर रात होने की प्रतीक्षा करते हैं। थोड़ी ही देर पहले उन्होंने मैनाक को विश्राम के लिए मना किया था। वहां रुके होते, तो क्या रात होने तक सुस्ता लेने का अभी समय मिलता?
ये श्रेय और प्रेय का सिद्धांत है। अभी मजेदार लगे लेकिन लम्बे समय में उससे नुकसान हो, ऐसे काम को प्रेय कहा जाता है। जैसे अलार्म बजने पर भी पांच मिनट और सो जाना, और बाद में काम में देरी होना। इसकी तुलना में प्रेय वो है जो अभी उतना मजेदार नहीं लगता, लेकिन लम्बे समय में इसका फायदा हो सकता है। जैसे एक कोई नियम तय करना (रोज दौड़ने या मॉर्निंग वाक पर जाने या कोई पुस्तक पढ़ना) जो हर रोज करते समय भारी लगता है, लेकिन लम्बे समय में इसके फायदे नजर आने लगते हैं। तो हनुमान जी रुकते हैं, आगे क्या करना होगा, इसका जायजा लेते हैं और फिर अंत में आकार छोटा करके लंका में घुस जाने की कोशिश करते हैं।
इस कोशिश का भी कोई फायदा नहीं होता। लंकिनी जो लंका की सुरक्षा पर तैनात थी, उसकी नजर से वो आकार में छोटे होने पर भी नहीं बच पाते। यहाँ दोनों ही देखने लायक हैं। लंकिनी इसलिए देखने लायक है क्योंकि उस समय लंका पर कोई आक्रमण होने का भय नहीं था। वैसे भी सबको तो रावण ने ही हरा-हरा कर कैद कर रखा था, तो उसकी लंका पर आक्रमण कौन करता? इसके बाद भी लंकिनी अपने काम में कोई चूक नहीं कर रही होती है। वो पूरी सावधानी बरतती है और चुपके से घुस जाने की कोशिश कर रहे हनुमान जी को रोक लेती है।
हनुमान जी इसलिए देखने लायक हैं क्योंकि थोड़ी ही देर पहले वो सिंहिका को मारकर आये हैं लेकिन लंकिनी को वो जान से नहीं मार देते। एक घूँसा पड़ते ही जब लंकिनी को समझ में आ जाता है कि ब्रह्मा के वर के अनुरूप राक्षसों का अंत समय आ गया है तो वो लंकिनी को जाने देते हैं। पहला तो यहाँ ये नजर आ जाता है कि स्त्री-पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जा रहा। अभी के भारतीय कानूनों जैसा मामला नहीं है कि पुरुषों के लिए अलग और स्त्रियों के लिए अलग सजाएं होंगी। जैसे पहले वो व्यक्तिगत यश के लिए बिना सोचे समझे लंका में नहीं कूदते, वैसे ही यहाँ भी वो व्यक्तिगत यश के लिए स्त्री के लिए अलग, कोई नैतिकता का बुरका नहीं पहनने लगते।
सुन्दरकाण्ड के इस हिस्से से व्यक्तिगत यश की अभिलाषा, नैतिकता के झूठे दंभ-अहंकार या कहिये कि मैं की भावना को छोड़कर हम पर विचार करना सीखा जा सकता है। जहाँ तक मेरा सवाल है, अष्ट सिद्धियों में से एक भी तो मेरे हाथ आज भी नहीं आई है! कल बंदरों की तरह बीज फिर से खोदकर देखेंगे, कल शायद मेरे पेड़ उग आयें!
हिन्दुओं को एक समाज कहना कितना उचित होगा? समाजशास्त्र के हिसाब से समाज की पहचान उसके सामाजिक स्थलों से होती है। उदाहरण के तौर पर चर्च, जहाँ हर सन्डे को एक मास होगा। लोग इकठ्ठा होंगे, कोई भाषण देगा, किसी सामाजिक मुद्दे पर चर्चा भी हो जाएगी। ऐसा ही मस्जिदों में होगा। लोग जुम्मे के रोज इकठ्ठा होंगे, नमाज तो होगी ही, कोई सामाजिक मुद्दा हुआ तो उसपर चर्चा भी हो जाएगी। हिन्दुओं के पास ऐसा क्या है? सड़क के किनारे किसी पेड़ के नीचे विग्रह की स्थापना करके बने मंदिर? वहां सौ लोगों के जमा होने, किसी धार्मिक-सामाजिक मुद्दे पर चर्चा करने की जगह भी है क्या?
एक समाज के तौर पर लोगों को कई बार एक दूसरे की मदद की जरूरत होती है। अगर ऐसी कोई जगह हो जहाँ लोग इकठ्ठा होते हों और वहां पता चले कि समाज के किसी व्यक्ति का कोई परिजन अस्पताल में है, उसे रक्तदान की जरुरत है, तो क्या होगा? सौ लोगों में कोई न कोई तो होगा जो रक्तदान के लिए तैयार हो जाये? अगर समाज के इकठ्ठा होने की ऐसी जगह ही न हो, तब क्या होगा? जिनका सामाजिक स्तर ऊँचा है, उनके लिए तो मदद जुटाना आसान होगा, लेकिन जो निचले पायदान पर है वो यहाँ वहाँ हाथ पांव मारने को मजबूर होगा। ऐसी किसी स्थिति में जिसने मदद की हो, उसके लिए मदद पाने वाले को तोड़कर अपनी तरफ मिला लेना कितना मुश्किल होगा?
ऐसी ही एक दूसरी व्यवस्था को उदाहरण के तौर पर देखें तो उसे “सौराठ सभा” कहा जाता था। ये मैथिल ब्राह्मणों की ऐसी सभा होती थी जहाँ विवाह तय होते थे। जिस स्थान पर हजार-दो हजार परिवारों के लोग बैठे हों, वहाँ एक उचित वर-वधु ढूँढना आसान होगा या अकेले अपने स्तर पर? किसी मैट्रिमोनियल साईट के जरिये इससे अधिक विकल्प मिलेंगे? क्या इतनी भीड़ वाले सामाजिक स्थान पर कोई बेशर्मी से दहेज़ मांगेगा या दहेज़ की बात चुपके से रिश्वत की तरह की जाती होगी? समय और श्रम भी बचता होगा। इस व्यवस्था से कई सुविधाएँ होतीं, लेकिन अब ये व्यवस्था करीब-करीब मृत है, तो इसकी सुविधाएँ भी नहीं के बराबर ही समझिये।
ऐसा भी नहीं है कि इसे किसी सरकार बहादुर या विदेशी आक्रमणकारियों ने इस व्यवस्था को नष्ट कर डाला हो। इसे आम लोगों ने खुद ही नष्ट किया था। जहाँ तक मंदिरों का प्रश्न है, मंदिर के आस पास जो बैठने या लोगों के इकठ्ठा होने की जगह होती थी, उसे नष्ट करने का श्रेय भी उत्तर भारत में समाज पर अधिक और सरकार पर कम जाता है। जगह घेरकर वहां चार और मूर्तियाँ स्थापित करके ज्यादा चंदा बटोरने की लालसा से लेकर उस जगह में दुकानें बनवाकर जगह हथियाने का लालच, सभी इसके पीछे जिम्मेदार रहे हैं। एक साथ सौ लोगों के बैठने की जगह न होने का नुकसान सीधा संस्कृति पर पड़ता है। इसे आसानी से देखा जा सकता है।
जिसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं, उसका अभ्यास करने वालों का मंदिर में (विशेष रूप से आरती गाने के समय) मौजूद होना कोई अनोखी बात नहीं थी। सिर्फ पटना को देखें तो अस्सी के दशक तक यहाँ दुर्गा पूजा के अवसर पर दस दिन तो भारत का हर प्रसिद्ध संगीतकार किसी न किसी दुर्गा पूजा के पंडाल में संगीत साधना में लगा दिखता था। आज पूछेंगे तो कुछ बुजुर्ग लोग अफ़सोस में सर हिलाते उसे याद करेंगे। पूजा में घूमने निकले बच्चे जब शास्त्रीय संगीतकारों को देखते, उनका संगीत सुनने को रूकती भीड़ को देखते तो वो भी सीखने को प्रेरित होते। आज जो मिल्लेनियल पीढ़ी रागों का नाम भी नहीं जानती, उसके लिए कहीं न कहीं वो शुगर फ्री पीढ़ी जिम्मेदार है जो इस परंपरा को शेखुलरिज्म के नाम पर खा गयी।
हिन्दुओं की संस्कृति का संरक्षण, उसकी सुरक्षा और उसका संवर्धन हर हिन्दू का जन्मजात कर्तव्य है। जबतक जन्मसिद्ध अधिकारों का सुख बिना कर्तव्यों को पूरा किये लेते रहेंगे, तबतक हर पीढ़ी को अपनी पिछली पीढ़ी से कम ही मिलेगा। ये बिलकुल जमीन-जायदाद जैसा मामला है। अगर आपने अपने बाप-दादाओं के जुटाए में कुछ जोड़ा नहीं, सिर्फ उसका उपभोग करके आगे निकल लिए, तो आपके बच्चों को तो आपसे कम ही मिलेगा न? इसमें कौन सा राकेट साइंस था जो किसी धर्मगुरु, किसी स्वामी जी के आकर सिखाने का इन्तजार कर रहे थे? एक समाज के रूप में, एक संस्कृति के रूप में, अगर हिन्दुओं का क्षय हो रहा है तो इसके लिए कहीं न कहीं हम-आप भी जिम्मेदार हैं।
जिन पुस्तकों को शास्त्र कहा जाता है, वो अगर एक घर में थी भी तो उसमें एक दो और पुस्तकें लाकर हमने और आपने नहीं जोड़ा। जिसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं, उसके वाद्य यंत्र हम-आप घर नहीं लाये। उनकी रिकॉर्डिंग इन्टरनेट से ही सही, ढूँढकर हमने-आपने नहीं बजाये हैं। संस्कृति जिन पकवानों की बात करती थी, उन्हें बनाने में बड़ा कष्ट होता। इसलिए उनके बदले पिज्जा-बिरयानी का आर्डर तो हमने-आपने ही दिया है न? परंपरागत वस्त्रों को पर्व-त्योहारों पर भी निकालने के बदले विदेशी परिधानों में सजने का शौक किसे था? वो भी हमारा ही था। एक समाज के रूप में हम अपनी हार का प्रबंध खुद ही कर रहे हैं। धीमा है, लेकिन एक एक इंच करके पीछे हटना तो जारी है।
बाकी अंगद के पैर जमाने की कथा तो जानी-पहचानी होगी न? बिना उद्देश्य के तो इतनी सदियों से सुनाई नहीं जाती होगी? पीछे खिसकते जाने के बदले कहीं पैर जमाने की कोशिश कीजिये। अंगद वाला डीएनए कहीं न कहीं हममें-आपमें भी तो छुपा हुआ, पड़ा ही होगा न?
आयाम के बारे में कभी सोचा है? लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई जैसी चीजों के जरिये आयाम (डाइमेंशन) नापते हैं। अक्सर ये विज्ञान में भौतिकी (फिजिक्स) में पढ़ाया जाता है, यानी साइंस का सब्जेक्ट है। शायद इसी वजह से हिन्दी साहित्य में जब हाल के दौर में कहानियां लिखी गयीं तो इसका जिक्र कम आया। सभी आयामों में न हो तो कोई वस्तु अस्तित्व में नहीं हो सकती। इसलिए तीनों आयाम होने जरूरी हैं। जैसे किसी चीज़ की लम्बाई हो, मगर चौड़ाई न हो, बिलकुल शून्य हो ऐसा हो सकता है? आपने परिभाषाओं में जो सरल रेखा (स्ट्रैट लाइन) के बारे में पढ़ा होगा उसे याद कीजिये। ये दो बिन्दुओं के बीच की दूरी होती है। यानी लम्बाई है मगर चौड़ाई, या ऊंचाई?
इसलिए सरल रेखा एक थ्योरी है, वास्तविकता नहीं होती है। अपने स्केल को आप घिस-घिस के पतला करना शुरू कर दें, ताकि उसकी लम्बाई तो बारह इंच रहे, मगर चौड़ाई एक इंच से कम होने लगे, तो क्या नतीजा होगा? पतला करते करते जब उसकी चौड़ाई एक मिलीमीटर और फिर उससे भी कम होते होते शून्य पर पहुंचेगी तो स्केल ही ख़त्म हो गया होगा! आयाम सिर्फ तीन नहीं होते। लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई के अलावा भी एक चौथा आयाम होता है। इस आयाम को समय कहते हैं। मान लीजिये हम एक बक्से की बात करें जो एक फीट लम्बा, छह इंच चौड़ा और छः इंच ऊँचा हो तो इसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन ये सिर्फ कल्पना ही है, वास्तविकता में वो डब्बा तभी हो सकता है जब हम ये बताएं कि वो इस तारिख को बना था और इतने समय दुनियां में था।
अगर कोई ईसा मसीह का नाम बताये, और ये बता ही न पाए कि वो जन्मे कब थे, मृत्यु कब हुई, किस समय में थे तो? इतने लम्बे, इतने मोटे थे, ये आयाम बता देने से काम नहीं होता। वो काल्पनिक हो जायेंगे! संस्कृत और दूसरी पुरानी भाषाओँ के साहित्यों में इस चौथे आयाम समय की भी बात होती है। अगर अंग्रेजी के काल्पनिक उपन्यासों को भी देखेंगे तो अलग-अलग आयामों की बात होगी। जैसे “ऐलिस इन वंडरलैंड” की बच्ची अपने समय आदि आयामों से निकलकर कहीं और पहुँच जाती है। ऐसे ही हाल में आई “नार्निया” श्रृंखला की फिल्मों में भी एक दरवाजा दिखता है जिसमें घुसते ही आप किसी और आयाम में कहीं और, बदले हुए समय में पहुँच जाते हैं।
अगर रामचरितमानस को हिंदी साहित्य का हिस्सा मानेंगे तो ऐसे अलग आयामों में जाने वाले दरवाजे वहां भी दिखते हैं। रामचरितमानस सीधे ही वाल्मीकि रामायण पर आधारित है, इसलिए ये दूसरे आयाम में पहुँच जाने का दरवाजा वहां भी मिलता है। ऐसे आसानी से याद नहीं आ रहा होगा। ये किष्किन्धाकाण्ड में है। हाल की अंग्रेजी फिल्म “थॉर” में जैसा “वर्म होल” होता है, ये कुछ वैसा ही था। इसमें एक तरफ से आप किसी और आयाम में होते हैं, मगर निकलते ही किसी दूसरे आयाम में पहुँच जाते हैं। अब भी याद नहीं आया हो तो हाल ही में टीवी पर देखी रामानंद सागर वाली रामायण का वो हिस्सा याद कीजिये जहाँ बूढ़ा गिद्ध सम्पाती वानरों को मरने के लिए प्रस्तुत देखकर प्रसन्न हो रहा होता है।
ये सभी सम्पाती के पहुंचे कैसे थे? इसके पीछे की कहानी स्थापित नैरेटिव को तोड़ देती है, इसलिए बताई नहीं जाती। इससे थोड़ी देर पहले हनुमान, अंगद, जाम्बवन्त और उनका दल कहीं पश्चिमी भारत में वनों में भटक रहे होते हैं। काफी प्रयास के बाद भी उन्हें सीता मिली नहीं थी और सबको प्यास भी लगी थी। ऐसे में हनुमान एक पहाड़ी पर चढ़ जाते हैं ताकि पानी ढूंढ सकें। वहां से उन्हें एक गुफा में घुस रहे बगुले दिखते हैं। बगुले हैं तो पानी भी होगा, ऐसा सोचकर वो सभी को उस गुफा में ले जाते हैं जहाँ उनकी भेंट एक तपस्विनी से होती है। इस तपस्विनी की कृपा से एक और तो वो किसी वन में से गुफा में घुसते हैं, लेकिन दूसरी तरफ जब वो निकलते हैं तो वो समुद्र का किनारा होता है, जहाँ थोड़ी ही देर में उनकी भेंट सम्पाती से हो जाती है। इस तपस्विनी के बारे में और विस्तार ढूंढना भी मुश्किल नहीं है। थोड़ा आगे पीछे जाने पर रामायण में वो भी मिल जाता है।
वाल्मीकि रामायण के मुताबिक इस गुफा का वर्णन बिलकुल वैसा ही है जैसा कि “थॉर” फिल्म के वर्म-होल में दिखता है। यहाँ बताया गया है कि गुफा में अँधेरा था, लेकिन सिंह आदि पशु बहुत तेजी से उड़ते हुए से एक ओर से दूसरी ओर जा रहे होते हैं! यहाँ जो तपस्विनी थीं उनका नाम स्वयंप्रभा था। वो मय नाम के असुर के महल की सुरक्षा कर रही थीं। ये असुर अपनी पत्नी अप्सरा हेमा के साथ वहाँ रहता था। इंद्र से लड़ाई में घायल हो जाने के बाद मय वो जगह छोड़कर चला गया था। हेमा के उस महल की सुरक्षा और देखभाल की जिम्मेदारी तपस्विनी स्वयंप्रभा की थी। स्वयंप्रभा एक ऋषि मेरुसवर्णी की पुत्री थीं, और उनकी कृपा के बिना इस मायावी महल से निकलना संभव नहीं था।
हनुमान आदि वानरों को स्वयंप्रभा का आतिथ्य प्राप्त होता है, और उनकी कृपा से ही वो गुफा से निकलने पर सीधा सम्पाती के पास, समुद्र किनारे पहुँच जाते हैं। रामायण में कई तपस्विनियों की चर्चा थी, ये नैरेटिव में “स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी” जैसे कथानक गढ़ने के लिए सुविधाजनक नहीं होता। ऊपर से अपने शोध में समय में यात्रा करने के लिए, आइन्स्टाइन वर्म-होल को भी एक तरीका बताते हैं। विज्ञान जिन्होंने पढ़ा न हो, उनके लिए ऐसी वैज्ञानिक सोच अय्यारी या जादूगरी होती। इसलिए भी संभवतः स्वयंप्रभा की कहानी आमतौर पर सुनाई नहीं देती। इस लिहाज से देखें तो “साइंस फिक्शन” जैसी चीज़ें लिखने में रूचि रखने वालों का भी हाल के दौर में महाभारत-रामायण जैसे महाकाव्यों की ओर मुड़ना अच्छा है।
बाकी जो पहले से लिखा रखा है उसे एक नए दृष्टिकोण से देख रहे (हमारे जैसे) लेखकों का भी विरोध के बदले स्वागत होना चाहिए। जो नए दौर की विदेशी फिल्मों में दिखता है, वैसा कुछ पहले से रामायण-महाभारत में नहीं लिखा गया होगा, ऐसा जरूरी नहीं है।
रामायण एक बार नहीं कई बार लिखी गई है | वाल्मीकि रामायण के बाद अलग अलग समय में अलग अलग लोगों ने अपने अपने हिसाब से इसकी व्याख्या, इसकी कहानी लिखी | समय, स्थान, व्यक्तिगत अभिरुचियों के हिसाब से इसमें अंतर भी आये | इसलिए तकनिकी रूप से हर किताब को रामायण कहते भी नहीं | कुछ ख़ास नियमों के पालन पर ही रामायण बनती है | जैसे अगर जैन धर्म में चलने वाली राम कथा देखेंगे तो उसमें कहानी थोड़ी अलग है | आज के विदेश यानि जैसे बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड, जापान जैसी जगहों पर चलने वाली राम कथा भी रामायण से थोड़ी अलग होती है |
सबसे प्रचलित राम कथाओं में तुलसीकृत रामचरितमानस का नाम शायद सबसे ऊपर आएगा | ये ऐसी भाषा में लिखा गया है जिसे याद रखना काफी आसान है | उसके अलावा इसके हनुमान चालीसा जैसे हिस्से कई लोगों को जबानी याद होते हैं इसलिए भी ये सबको जाना पहचाना लगता है | तुलसीदास के बारे में मान्यता है कि उनके ज़माने के पंडित उन्हें कोई सम्मान नहीं देते थे | उन्हें रामायण पर कुछ भी लिखने का अधिकारी ही नहीं मानते थे !
उनकी लिखी रामचरितमानस में भी कथाक्रम वाल्मीकि रामायण से भिन्न था | कहते हैं जांच के लिए जब उस काल में लिखी रामायणों को रखा गया तो पंडित जन तुलसीदासजी की किताब राम कथाओं के ढेर में सबसे नीचे रख देते | शाम में कपाट बंद होते, अगली सुबह जब कपाट खुलते तो रामचरितमानस सबसे ऊपर आ गई होती ! एक दो बार तो सबने अनदेखा किया मगर बार बार कब तक एक अच्छी किताब को दबाते ? आखिर सबको मानना ही पड़ा कि रामचरितमानस अच्छी है | बाकी जो उसकी जगह थी वो हिन्दू जनमानस ने उसे दे ही रखी है |
जैसे ये रामचरितमानस के ऊपर आ जाने की लोक कथा है वैसे ही, कई शेखुलर ताकतों के दुष्प्रचार के वाबजूद अजीब अजीब से सवाल सर उठाते ही रहते हैं | जैसे शुरुआत का ये कपट था कि आर्य कहीं बाहर से आये और उन्होंने द्रविड़ों को अपना गुलाम बना लिया | लेकिन इतिहास के नाम पर परोसे गए टनों लुगदी साहित्य के नीचे से सत्य फिर से सर निकाल लेता था ! एक तो मध्य प्रदेश की गुफाओं में भित्तिचित्र दिखा देते हैं कि भारतीय लोग पहले से ही घोड़े पालते थे इसलिए सिर्फ घुड़सवार, रथारूढ़ हमलावरों का उनसे जीत जाना संभव नहीं लगता | ऊपर से वो जिस रास्ते से रथारूढ़ आर्यों का आना बताते हैं वो रास्ता भी रथ के लायक नहीं |
ऐसी ही कुछ बातों के आधार पर बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी किताबों में लिखा कि आर्य कहीं बाहर से आये लोग नहीं थे |
एक ऐसा ही अन्य झूठ भाषा को लेकर भी चलाया जाता रहा | वेटिकन पोषित शेखुलर ताकतें बरसों इस मिथ्या प्रचार में लगी हैं कि संस्कृत एक मृत भाषा है | हिन्दुओं की इस भाषा को कुचलने के लिए कई आर्थिक अवरोध भी खड़े किये गए | आज की तारिख में संस्कृत के शिक्षकों की सरकारी तनख्वाह भी अन्य भाषा के शिक्षकों से कम है | विदेशी भाषाओँ को सीखने में ज्यादा फायदा है कहकर भारत के एक बड़े वर्ग को बरगलाने की कोशिश भी की जाती रही | लेकिन जनसाधारण ने अभिजात्य दलालों के प्रयासों को कभी कामयाब नहीं होने दिया है | सत्ता पोषित, वेटिकेन फण्ड पर अघाए, हिन्दू हितों को हड्डियों की तरह चबाने के प्रयासों में लगे इन कुत्तों पर जब तब लट्ठ पड़ते ही रहे हैं |
अब समय है कि हम ऐसे प्रयासों को तेज करें | कल तक सोशल मीडिया के अभाव में जो आवाज दबा दी जाती है उसकी गूँज धमाकों की तरह सुना कर विदेशी डीएनए धारकों के कान फाड़ने होंगे | सुधर्मा संस्कृत दैनिक एक ऐसे ही प्रयास में पिछले चार दशकों से भी ज्यादा से लगा हुआ है | वो विश्व का इकलौता संस्कृत दैनिक निकालते हैं | आइये उनके इस महती कार्य में योगदान करें | एक छोटा सा गिलहरी प्रयास भी रामसेतु बनाने में मायने रखता है |✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
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