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कथक नृत्य में ठुमरी एक अनमोल निधि

कथक नृत्य में ठुमरी एक अनमोल निधि|

डॉ अंजना झा,पटना

कथक नृत्य में ठुमरी का प्रयोग-समस्त शास्त्रीय कलाएँ हमारी सांस्कृति, सृजनात्मक धरोहर है।हमारा जीवन जिस तरह केवल वर्तमान में ही पूर्ण नहीं हो जाता, यह भूतकाल से भी जुड़ा रहता है एवं भविष्य की आहट यहाँ दस्तक देती है।समस्त कलाएँ भी इसी तरह परंपरा, प्रयोग तथा सभावनाओं की संपदालिए विकसित होती है।कला की अटूट परंपराओं की कड़ियाँ जहाँ खत्म होती है वहीं कुछ नयी संभावाओं की कड़ियाँ भी खुलती है और प्रयोग इन दोनों कड़ियों को जोड़ते है। प्रयोग वस्तुतः कला की सृजन सक्रियता है जो इसे परंपरासे कुछ अलग कर दिखाने को मजबूर करता है और फलतः कला की कल्पना की उड़ाने नए-नए सौंदर्यबोध की संभावनाओं की ओर अग्रसर रहती हैं। शास्त्रीय कलाएँ हमारी सृजनात्मक विरासत को धरोहर की तरह सँजाए हुए हैं।इन्हीं से प्रयोग द्वारा नव सृजन को दिशा –निर्देश प्राप्त हो पाता है तथा सभी संभावनाओ से कला परिपूर्ण भी होती जाती है। जीवन का रस तथा सौंदर्य बोध अतीत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों से रिक्त है ।ठीक उसी तरह कला भी हमेशा कल, आज और कल से श्वासें लेती हुई ही हमारी संस्कृति को राग तथा रस से संवेदनशील बनाती रही है। यदि कला का कलखत्म हो जाय तो आजउसे परख नहीं पायेगा और कलके लिए नवसृजन की संभावनाएँ भी खत्म हो जायेगी।परंपरा, प्रयोग तथा संभावनाओं का यह सिलसिला गति पर ही निर्भर है। गति हमारी नियति है। गति ईष्वरीय अभिव्यक्ति का आधार हैं नटराज के नादांत नृत्य में यही आधार भूतगति संस्कृति के विकास का आधार है। यह मस्तिष्क का करिष्माही है कि आदिम युग का मानव आज विज्ञान के प्रगतिशीलआणविक युग में कदम रख चुका है।मस्तिष्क की यह क्रियाशीताज बहृदय की संवेदनषीलता तथा रचनात्मक सौंदर्य बोध से जुड़ती है तब कला का जन्म होता है एवं मस्तिष्क की क्षमता के कारण कलाकार भी आदिमानवीय संस्कृति की लोक कलाओं से चल कर आज शास्त्रीय कलाओं के रूप में प्रतिष्ठित है। एक तरह से यह परंपरा का प्रयोग से गुजरते हुए नयी संभावनाओं की ही प्रस्तुति है कि लोककलाओं के बाद शास्त्रीय कलाओं का जन्म हुआ। शास्त्रीय कला चाहे कितना ही संभावनाओं को पार करती रही हो तन, मन तथा आत्मा के तृप्ति दायक आनंद को ही इस ने पाना चाहा है। समस्त शास्त्रीय नृत्य कलाओं के लिए भी यही बात कही जा सकती है। यंत्र युग के दबाब चाहे जैसे हों कला और साहित्य का हमारी संस्कृति से जुड़ावथा और हमेषा रहेगा। कला के सौंदर्य, सामथ्र्य तथा अपरिमित आनंद की कोई मिसाल नहीं। यह जीवन की तमाम उलझनों, तनावों, कुण्ठाओं का प्रयुत्तर है। कला के सामने कोई ऐसा प्रष्नचिह्न नहीं जो मानवता के लिए समस्या साबित हो । समस्त कलाएँ हमारे जीवन का स्थायी भाव है। यही कारण है कि कलाओं की परंपरा समाप्त नहीं हुई एवं संभावनाएँ हमेषा सुंदर से सुन्दरत्तम रूप लेती रहीं।

         कलासृजन की कुछ अनिवार्य शर्त हैं। कल्पना की उड़ान, प्रतिभा, प्रेरणा कलाकार का व्यक्तित्व एवं परिवेश  इन्हीं सब बिन्दुओं से जुड़कर कला परंपरा, प्रयोग तथा संभावनाओं के दायरे के रूप में ग्रहण करती है।आटोरैंक ने कलाकार व्यक्तित्व के चार भेद किए है- ‘‘विचारषील, बौद्धिकी, इन्द्रियमुखी एवं स्वयं प्रकाश मुखी।’’ कोई भी कलाकलाकार के व्यक्तित्व के किसी न किसी पहलू से जुड़कर अपनी प्रतिभा साकार करती है।प्रेरणा भी इसके साथ आवष्यक है।परंपरा भी प्रेरणा का प्रमुख स्त्रोत है।कलाकार की प्रतिभा वर्तमान परिवेश  के साथ-साथ परंपरा के परिवेश  से भी बहुमूल्य अनुभवों को ग्रहण कर अपनी सृजनात्मक क्षमता का विकास करती है।कथक के लिए परंपरा विषेश  आवष्यक है, क्यों कि परंपरा ने इस की अनेक बहुमूल्य धरोहरों को सँजाए रखा है। सृजन का क्षण चाहे परंपरा से कितना ही प्रभावित हो किन्तु वह नर्तक के स्वयं का इन्द्रिय बोध होता है।जहाँ मौलिकता का स्फुरण परंपरा से कुछ अलगावलिए कब, किस क्षण स्वतः हो जाता है कहा नहीं जा सकता। यही अलगाव, यही मोड़ अभिव्यजना को नयी दिषा देती है। सृजन प्रक्रिया मौलिकता तथा पंरपरा, व्यक्ति तथा सामूहिकता से चल कर व्यक्ति में समाती मुगल युग तथा आधुनिक युग में प्रवेश  किया। युग हमें ऐसी विरासत दे जाता हैं जो उस कला विषेश  को सीख ने समझने तथा महसूस करने का जीवंत एहसास लिए होती है।

          परंपरा के रूप में कथक आज भी मुगल का लीन परिवेश  में ही पहचानी जाती है। मध्यकालीन परंपरा ने ही आज परंपरा का स्थान लिया है। ‘‘सिकन्दरलोदी’’ के समय मुसलमान कलाकारों ने अरबी और भारतीय पद्धति को मिला कर गजल तथा ख्याल शैली को जन्म दिया।मुगलों के धर्म में नाच गान वर्जि तथा। शायद इसी वजह से नृत्य यहाँ चमत्कार तथा श्रृंगार से जुड़ने लगा एवं दर्षन, धर्म, अध्यात्म से विछिन्न हो विलास का साधन बना। शायद गजल तथा ख्याल की तरह नवीन शैली की ही तरह नृत्य ने भी एक नया रूप लिया।नृत्य में ऐसी अभिव्यक्ति शामिल हुई जहाँ सुर, ताल तथा शब्द नहीं, आमद, तोड़े – टुकड़े सलामी का समावेश  हुआ। मध्यकालीन परंपरा ने हमारी नृत्य परंपरा से कारण, अंगहार, रेचक, पिण्डी बंध को समाप्त कर कथक के सुर, लय, ताल में बंदिशों , तराने, ठुमरी, गजल का समावेश किया।’’ इसी उत्तरमध्य काल में प्राचीन परंपरा का हा्रस तथा नवीन शैलियों का विकास हुआ। इस काल खंड में महाकवि सूरदास, तुलसी तथा स्वामी हरिदास आदि महापुरूषों का आविर्भाव हुआ। यहाँ पुनः भक्ति भावना का काव्य, साहित्य, संगीत, नृत्य में समावेश हुआ। कृष्ण तथा राम की भक्ति भावना ने कथक के सुर, लय, ताल को भी प्रभावित किया। इस काल में मृदंग के स्थान पर तबले का प्रयोग हुआ ।कथक इसी वजह से त़बले की संगति पर पूर्ण आधारित रहा और तबले के बोल भी इसमें समाविष्ट होते गए। आज उत्तर भारत के नृत्य में जो उर्दू-फारसी के शब्द हैं, इसी उत्तर मध्यकाल की देन हैं। इस काल में आ कर कला की प्राचीन परंपरा में नवीन परंपराओं का प्रवर्तन हुआ। सोलहवीं शताब्दी की भक्ति भावना सत्रहवीं शताब्दी के अंत में पुनः कम हुई एवं पुनः श्रृंगारिकता के कला आच्छादित हुई अवध के नबाबों के दरबार में कथक ने भक्ति तथा श्रृंगार के मिश्रित भाव तथा लय, ताल तथा बंदिषों की तैयारी से पूर्ण परिपक्व हुई।

          मुगलकाल ने लखनऊ घराने की सुदृढ़ परंपरा के रूप में हमें अनमोल विरासत दी है। इस परंपरा ने कथकको एक सुदृढ़ नींव प्रदान की।आज भी यह परंपरा कथक की शास्त्रीय शुद्धता की पहचान है।इसी वजह से यह आज भी स्वीकारी गयी है। इस परंपरा के कथक गुरूओं ने अपने भक्त एवं नर्तक व्यक्तित्व की प्रवीणता से कथक को मूल्यवान आदर्षो तथा कलात्मक सौंदर्य बोध की नवीनता से सजाया। इस परंपरा ने अपने समय के वर्तमान को, कथक के लिए पूर्ण समर्पित कर जो नवीन प्रयोग तथा उद्भावनाएँ की वहीं कथक के लिए उज्जवल कलात्मक संभावना बनी, जिसे हम आज के युगमें फली भूत देख रहे हैं। यह कहा जा सकता है कि कथक की परंपरा ने जहां से लखनऊ तथा जयपुर घराने का विकास हुआ, हमारे लिए कथक की कलात्मक प्रतिभा सम्पन्न संभावनाओं का द्वारा खोला। कथक की प्रयोगषील कलात्मक सक्रियता का ही परिणाम उनकी विभिन्न शैलीगत विषेश ताएँ है। पं0 दुर्गा प्रसाद जी लखनऊ घराने के प्रसिद्ध नर्तक थे एवं नबाब वाजिद अली शाह के गुरू भी थे। आपने नृत्य शैली में अनेक नवीन उद्भावनएँ की तथा बत्तीस नए प्रकारअविष्कृत किए। उन्होंने इनके अलग से नाम रखे। लखनऊ शैली के ही दो प्रमुख नृत्य गुरूओं तथा महान कलाकारों पं0 कालका प्रसाद एवं पं0 बिन्दादीन महाराज ने कथक शैली में अभूतपूर्व मोड़ दिया। पं0 बिन्दादीन महाराज ने ठुमरी के रूपमें कथक को अनमोल निधि दी। यह कथक की काव्य प्रतिभा का एक अभूतपूर्व रचनात्मक प्रयोग था, जिसने कथक के भाव पक्ष को भक्ति तथा श्रृंगार की भावनाओं को संवेदनषील बनाया एवं कथक के भाव पक्ष में सात्विक तथा आंगिक दोनों अभिनय की रचनात्मक सृजन क्षमता को बढ़ाया।उन्हों ने कथक को गीतात्मक बनाया। उस युग में अभिनय की रचनात्मक सृजन क्षमता को बढ़ाया। उन्हों ने कथक को गीतात्मकबनाया। उस युग में शिक्षा का अभाव था एवं काव्य तथा साहित्य समृद्ध नहीं थी। पं0 बिन्दादीन महाराज द्वारा रचित ठुमरी केवल कथक की विषिष्ट रचना थी। इनके द्वारा भाव पक्ष के अनेक सूक्ष्म तथा कलात्मक भेद उजागर किए गए। राधा-कृष्ण श्रृंगार, भक्ति, नायिका भेद आदि पर आधारित इन ठुमरियों की अद्भुत कलात्मक अभिनय क्षमता है। उस में केवल एक शब्द पर भी नवरसों के तथा अनेक कलात्मक अनगिनत भाव प्रकट किये जा सकते हैं । ठुमरी की यह परंपरा आज भी कथक के लिए नित नवीन अनुभूति जगाती, आंगिक तथा सात्विक पक्ष के अनगिनत सौंदर्य से परिपूर्ण कलात्मक नवसृजन में रत है। पं0 बिन्दादीन महाराज की ठुमरियाँ शायद कथक की परंपरागत होने के बावजूद हमेषा वर्तमान से भी नित नयी अनुभूति बन कर जुड़ी रहेगी तथा इनकी सृजन क्षमता की सभावनाओं का दौर कभी खत्मन हीं होगा। ऐसा अमूल्य परंपरागत कथक की विरासतें ही, जो हमेषा संभावनाओं की ओर झुक कर रहती हैं, अपनी परंपरा कभी खत्म नहीं करती। परंपरा ने कथक के लालित्य को ठुमरी द्वारा ही संवारा था।’’ उस युगमें कथक गणिकाओं के निकट भी पहुँची, अतः ठुमरी की अनुभूतियों ने गणिकाओं के बीच पलते कथक को दूषित होने से बहुत कुछ बचाए रखा। ठुमरी के प्रवेश हो जाने से कथक के अभिनयात्मक पक्ष नृत्य अंग का निर्वाह विस्तार से किया जाने लगा। इस काल में कथक के इन्द्रिय रूप सौंदर्य की भी प्रमुखता रही। रहस के रूपमें वाजिद अली शाह के शासनकालमें कृष्ण कथानक प्रस्तुत किया जाता रहा, यह शाही मंच पर किया जाता था। इस काल के मिले-जुले दरबार तथा गणिकाओं के बीच पलते कथक के परिवेश  ने कथक की श्रृंगारिक अभिव्यक्ति को नजाकत तथा कमनीयतादी एवं आंगिक अभिनय के सौंदर्य के साथ-साथ ही भाव पक्ष को सँवारा। उस काल में गतों का विभिन्न विवरण है, जो समय के साथ लुप्त होता गया, क्यों कि परंपरा वही स्वीकारी गयी है जो सार्थक हो। ये गते हैं-फरियाद, पेश वाज, दाहिनीबाँकी, बायी बाँकी, महबूब, देगा, प्यारी गत आदि।चक्करों के कई प्रकार भी समय के साथ लुप्त प्राय हो गये।फुर्सत तथा विलास प्रिय जीवन जीते राजा महाराजा रात-राज भर भाव देखते रहते थे। शायद इसी वजह से बैठकी भाव बताया करते थे। वर्तमानमें यह भी लुप्त प्राय ही है। लखनऊ घराने पीढ़ी – दर - पीढ़ी कला गुरूओं के द्वारा संरक्षित रही तथा नवसृजन एवं परंपरा की शुद्धता दोनो से ही कथक को समृद्ध करती रही।

          संभवतः कथक नृत्य शैली का जयपुर घराना लखनऊ घराने की तुलना में कई सौ वर्ष पुराना है।लखनऊ घराने की अपेक्षा जयपुर घराने के बोलों की ध्वनियाँ नृत्य के प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों की ध्वनियों से अधिक मिलती है। यह घराना भी कथक गुरूओं के प्रसिद्ध कलाकारों की परंपरा से समृद्ध होता रहा। पं0 जयलाल तथा पं0 सुंदर प्रसाद ने इस घराने से सर्वश्रेष्ठ कथकाचार्यो के रूप में भारत में प्रसिद्धि प्राप्त की। पण्डित सुंदर प्रसाद जी ने इस घटना का उल्लेख किया है कि पंद्रह वर्ष की अल्पायु में वे कोयल महाराज के दरबार में नृत्य के लिए गए। वहाँ नक्कालों ने परनपेश ठाह, दुगुन तथा चैगुन में किया, तब इन्होंने टिप्पणी की नक्काल इस तरह सीढ़ियाँ उलाँघे नहीं बल्कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़े। सीढ़ी-दर-सीढ़ी के अर्थ में उन्होंने ठाह, सवाई, पौने दो गुनी के बाद चैगुन तक पर नको प्रस्तुत किया। यह उद्धरण इस बात का द्योतक है कि जयपुर घराने की शैली, ताल, तैयारी जैसे बौद्धिक क्षमता का प्रयोग बोल-बंदिषों में अतिप्राचीन काल से करती रही है। यह घराना चक्कर, तैयारी, क्लिष्ट बोल-बंदिषों तथा भक्ति प्रधान भाव पक्ष के लिए प्रसिद्ध रहा है। गणितीय चमत्कार के कारण अंगों का लालित्य तथा कमनीयता लखनऊ शैली से कम रही किन्तु गत निकास, भावपक्ष एवं कवित्त, आमद आदि में यह लालित्य देखा भी जा सकता है।जयपुर घराने की शैली गत  विषेशता की नींव परंपरा में ही पड़ चुकी थी एवं इस की शैली गत विषेशता ने ही यहाँ शैलीगत नवसृजन किए। आज भी यह परंपरा अपने बौद्धिक प्रयोग के साथ लय, ताल की पहचान लिए कायम है । जयपुर परंपरा की पुरानी पर ने आज भी प्रचलित है । इसी तरह कथक के प्रयोगषील मस्तिष्क नें ही बनारस घराने की नींव डाली। यहाँ विषेश कर तबला तथा परवावज की बजाए नृत्य के बोल प्रस्तुत होने हैं ।सौदर्य तथा लालित्य की ओर इस के झुकाव के कारण गति, मुद्रा तथा अंग में भी लखनऊ तथा जयपुर घराने से पृथकता स्पष्ट झलकती है।

          वर्तमान शताब्दी के आरंभिकचरण में महाराजा चक्रधर सिंह के दरबार में कथक को एक नवीन शैली के रूपमें समृद्धि मिली।महाराजा चक्रधर सिंह द्वारा रचितठुमरी एवं बोल-बंदिषों की विषिष्ट संरचना, कवित्त आदि इस शैली की विषेशता रही। इस शैली ने नृत्त पक्ष में प्रयोग कर कथक को नया आयाम दिया। ध्वनिके सौंदर्य पर प्रयोग कर के यह शैली प्रकृति के कुछ अधिक निकट पहुँची। बोल-बंदिषों के अंकों का गणित नई रचनात्मक क्षमता लिए प्रकृति के परिवर्तन जैसे दल बादल, कड़क बिजली, वर्षा ऋतुपरन आदि के रूप में बोल संरचना की, जिन में कि बादल, वर्षा तथा बिजली का कुछ ध्वन्यात्मक आभास है। इसी तरह गज विलास, मत्स्य रंगा वली आदि बंदिषें इन पषुओं की गति विधियों को परखती हुई बनायी गयी।उन्हों ने बंदिषों का संग्रह तालतोय निधि तथा नर्तन सर्वस्वमें किया। आमद, तोड़े, सलामी जैसे फारसी नामों की जगह हिन्दी, संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया। हालांकि इनका प्रचलन पूर्ण हुआ नहीं है।

          कथक ने विरासत से कुछ अधिक मोह रखा है।आज भी परंपरा पूर्ण कायम है। समय तथा नर्तकों की मौलिक प्रतिभा तथा सृजनात्मक सक्रियता ने इनमें नव सृजनअवष्य किए हैं, किन्तु परंपरा गत बोल-बंदिषें, तत्कार, कवित्त, ठुमरी, भजन, गत निकास, गत भाव आज भी किए जाते हैं। यही नहीं शैली गत विषिष्टता आज भी कथक की शुद्धता की पहचान बनी है ।दरअसल आज कथक में जो परंपरा कहलाती है वह वस्तुतः कथक की शास्त्र बद्ध मूल संरचना है, जिसका समावेश कथक की शास्त्रीय रूपरेखा के लिए किया गया है।अतः इसके बगैर कथक की शास्त्रीय शुद्धता की पहचान संभव नहीं। कथक की पूर्वजों द्वारा दी गयी विरासत तथा उनके अनुभवों से गहन संभव नहीं। कथक की पूर्वजों द्वारा दी गयी विरासत तथा उनके अनुभवों से गहन आत्मीयता रही है।अपने अनुभवों तथा नृत्य सौंदर्य की आत्मिक आभा से जो रोशनी की किरण कलाकारों ने दी है कथक परंपरा का इतिहास उस उजाले से ही दम करहा है।परंपरा की तासीर ही नवसृजन को दिषा देकर कथक शैली में ताजगी भरती रही है।परंपरा से कथक की आत्मीय निकटता है। यह कथक को दिषा हीन डगमगाहट से बचाए रखती है। कथक का परंपरागत विरासत से मोह उसकी नितांत निजी आवष्यकता है क्योंकि कथक की दक्षता के लिए शैलीगत विषेशता में पारंगत होना कलाकार की कला कुश लता है। कथक की देह से जुड़ी जीवंत अभिव्यक्ति को देह के द्वारा ही लय देकर लिपिबद्ध किया जा सकता है, अतः गुरू-शिष्य परंपरा की कड़ियों से जुड़ती पीढ़ी-दर-पीढ़ी कथक प्रशिक्ष्ण की परंपरा ने ही इसे जीवन दिया। इस जुड़ाव ने ही कथक का इतिहास रचा तथा प्रारूप दिया।पूरी तल्लीनता से शिष्य  गुरू के हाव-भाव तथा अदायगी को अपनाता है।क्लिष्ट बोल तथा लयकारी, आंगिक अभिनयों के हलन-चलन की बारी की, भावों के विषिष्ट खूबसूरत अंदाज, इन सबको शिष्य -गुरू द्वारा ग्रहण करने में दिनो, महीनों तथा वर्षो कठोर श्रम तथा रियाज में लगा देता है।पूर्णसंतुष्टि के बगैर गुरू प्रषिक्षण को आगे नहीं बढ़ाते, उससे कहिं ज्यादा समय अभ्यास में व्यतीत करना पड़ता है।कथक में जहाँ नवसृजन आवश्यक हैं, वही गुरू की रचना की पुर्नरचना भी आवश्यक है।अभक साधना, धैर्य तथा एकाग्रता से प्राप्त यह कलाशिष्य  के लिए अनमोल धरोहर साबित होती है और शिष्य  इसे सहेजना चाहता है। कथक में ठुमरी का प्रयोग भी इस रूपमें निरंतर चल रहा है।श्रमषील पसीने की बूँदों से खिले इस सौंदर्य को पाना सहज नहीं।

समय के साथ कथक ने साहित्यिक तथा काव्य समृद्धि एवं कलात्मक सौंदर्य बोध से परिपूर्ण दृष्टिबोध में विस्तार किया।इस के कारण ही इस में ठुमरी समायोजित होने लगी। ठुमरी के कारण कथक ने अन्य कलाओं को भी समझने का प्रयास किया तथा सुर, संगीत, रेखा, भंगिमा, शब्द के नए कलात्मक बोध से परिचय किया।समाजिक, राजनैतिक, संबंधों ने कलाको कई तर्क पूर्ण दृष्टिकोण दिए।कथक ने अपनी परंपरा की पहचान को कायम रखते हुए आधुनिक युग से, आधुनिक वैज्ञानिक प्रगतिषीलमानसिकता से संतुलन स्थापित किया, इस में ठुमरी की भी बड़ी भूमिका है। आज ठुमरी के कारण दर्षन तथा श्रृंगार के विवाद से पड़े कथक को एक सुलझी हुई कलात्मक श्रृंगारिक दृष्टि एवं धर्म का वैज्ञानिक एवं उन्नतषील नजरिया मिला। काव्य तथा साहित्यिक समृद्धि से जुड़ी बौद्धिक र्दाप्ति तथा संवेदनषील हृदय की नवीन अनुभूतियों से ठुमरी के रचनाकारों ने कथक को आज प्रयोगात्मक रूप प्रदान किया। आज आध्यात्म को स्वीकारा गया है, परंतु कथक में ठुमरी के प्रयोग से श्रृंगार को भी अध्यात्म के प्रष्नचिह्न से बाहर निकाल कर उसे नयी चितवन तथा सज-धज के साथ मान्यता दिलवायी । श्रृंगार की शुद्धता तथा नैतिक प्रतिबद्धता, अध्यात्म से कम ऊँची भावना नहीं, श्रृंगार तथा अध्यात्म दोनों के सौंदर्य बोध को नैतिक मूल्यों के रूप् में भी स्वीकारा जा रहा है।कथक की शास्त्रीयता के भीतर ही जो सृजन किए जा सकते हैं, उनके कई आयाम हैं।पहला हिन्दी साहित्य, काव्य तथा संस्कृत साहित्य, संस्कृत श्लोक, दोहे, छंद पर प्रयोग किए जा रहे हैं।कथक की अभिनय क्षमता में इन्हें समावेश करने की पूरी गुंजाइश है। इस द्वार को खोलने में या इन्हें आयामित करने में ठुमरी की बहुत बड़ी भूमिका है।कथक के लिए रचित काव्य तथा साहित्य की अपनी विषिष्ट परंपरा है। पहले कलाकार नृत्य की उपज देखते हुए काव्य रचते थे, किन्तु आज अन्य काव्यों में छिपी नृत्यगत परिकल्पनाओं को कथक की कल्पना से भी आधार मिला एवं इन्हें षिल्प में उतारा जा रहा है। नए शब्दषिल्पों का नया मुहावरा कथक सृजित कर रहा है। यह सब ठुमरी के कारण ही संभव हो सका है। नए शब्दषिल्पों का नया मुहावरा कथक सृजित कर रहा है।नृत्य तथा नृत्त पक्ष दोनों के ही विविध रचनात्मक प्रयोग किए जा रहे हैं।

नृत्त पक्ष में कई आयामों से प्रयोग द्वारा नवसृजन की पूर्ण संभावना है।बोल-बंदिषों के ध्वन्यात्मक प्रस्तुति पर ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से भी प्रयोग किए जा सकते है। बंदिषों में गणित का बौद्धिक आनंद तो है ही तथा गणितीय प्रयोगों के द्वारा लयकारी, विभिन्न तरह के चक्करोंबंदिषों की निकासी के विविध प्रयोगों के अलावा गणितीय अंकों की ध्वन्यात्मक कलात्मकता को भी उभारा जा सकता है।कथक के नृत्य पक्ष में ध्वनि शास्त्र के विविध प्रयोगों की पूर्ण संभावना है ।इसके कई आयाम है।पहला बंदिषों की शब्द संरचना के आपसी सामंजस्य द्वारा। दूसरा पदाधात पाद संचालन की विविधता द्वारा बोलों के ध्वन्यात्मक सौंदर्य के लिए प्रकृति के कुछ अधिक निकट जाना आवष्यक है। जल तरंगों, पत्तों, हवाओं, वर्षा की बूदों, बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक, झंझावट, हवा की धीमी गति, चिड़ियों की चहचहाहट, न जाने कितने ऐसे ध्वनि सौंदर्य हैं जिन्हेंअंकों में शब्दों के सामंजस्य से बांधा जा सकताहै।

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