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असत्य का वैध व्यापार

असत्य का वैध व्यापार

'सच का ’ व्यापार तो होता ही नहीं है , किन्तु हाँ, ‘ सच्चाई से ’ व्यापार किया जा सकता है, जिसके लिए हमारे यहाँ जरुरत के मुताबिक कई तरह की विभागीय खानापुरी करनी होती है ।

किन्तु झूठ का व्यापार करना हो और वो भी निहायत वैध रुप से , तो इसके लिए सबसे पहले जरुरी होता है किसी विधि महाविद्यालय की डिग्री और फिर ‘ असत्यव्यापारसंघ ’ की सदस्यता । और इसके साथ ही राहु-केतु-शनि को प्रिय लगने वाला वस्त्रावरण । तथा नामी-गिरामी बनने के लिए दो-चार आलमीरे में भर कर रखी गयी कुछ मोटी-मोटी फालतू की किताबें, जिनका सच्चे मानव मूल्यों से कोई वास्ता नहीं । जिनका पढ़ना उतना जरुरी नहीं है, जितना जरुरी है समय-समय पर उनका प्रदर्शन करना । और जहाँ तक समझने की बात है, तो वो तो लिखने वालों को ही सही ढंग से समझ नहीं आया था कभी, फिर पढ़ने वालों को कहाँ से समझ आयेगा । दरअसल वो लिखा ही इसी हिसाब से गया है कि अर्थ-अनर्थ जो मन हो सो निकाल लो इसमें से । या फिर जूझते रहो ।

मैंने सुना है— एक बार एक सिरफिरे डाटा-कलेक्टर को झूठ-फरेब का डाटा जुटाने का धुन सवार हुआ । काफ़ी मशक्कत के बाद जो चार्ट बन कर तैयार हुआ उसमें व्यापार मन्डियों का स्थान तीसरा-चौथा था । सबसे अन्तिम नम्बर पर था शराबखाना और वेश्यालय । जब कि न्यायालय और धर्मालय का स्थान सबसे ऊपर दीख रहा था- बिलकुल शानदार मुकुट की तरह । और इन दोनों में एकदम संघर्षपूर्ण टक्कर की स्थिति थी—दोनों अब्बल दर्ज़े पर जाने को उतावले दीख रहे थे । प्रथम श्रेणी में रखे जाने के लिए दोनों के पास एक तरह के तर्क थे – दोनों का सम्बन्ध सत्य, धर्म और न्याय से है । किन्तु ये हम सभी जानते हैं कि जितना झूठ-फरेब न्यायालय और धर्मालय में है उसका शतांश भी अन्यत्र नहीं है ।
बात कुछ चौंकाने जैसी लग सकती है, किन्तु चौंकना नहीं चाहिए । चौंकना तो तब चाहिए जब आये दिन अखबारों में ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं या टीवी पर समाचार आते हैं । जहाँ सब कुछ विकाऊ हो वहाँ हत्या को आत्महत्या करार देने में देर ही कितनी लगती है ! और बलात्कार— इसकी तो पूछिये ही नहीं। चश्मदीद गवाह खड़ा करके कोई बलात्कार करे तब न और वो बलात्कार-दर्शक बलात्कारी का विरोध करने को राजी हो तब न काम बने। अन्यथा समुचित साक्ष्य (आँखोंदेखी) के अभाव में ज्यादातर बलात्कारी तो निकल ही जाते हैं।

दरअसल अँधा अधिक बातें करता है आँखों के बावत । अँधे कानून को इसीलिए आँखोंदेखी पर निर्भर रहना पड़ता है।

आये दिन इस तरह की घटनायें देखने-सुनने के हम आदी हो चले हैं । जिस कानून की डोर से अभियोग पक्ष आरोप लगाकर बांधता है, उसी कानून की कैंची से जाल काट कर वचाव पक्ष साफ बचा ले जाता है । बांधने वाले को बहुत मश़क्कत करनी पड़ती है, जबकि कैंची किसी खास रेशे पर चलाने भर से काम निकल जाता है ।

आतंकवादी हों या बलात्कारी, ड्रगपैडलर हों या ड्रगएडिक्ट सबको अपने वचाव में वकील रखने की सुविधा तो है ही । और मज़े की बात ये है कि जितना बड़ा अपराधी उतना बड़ा वकील, जो तरह-तरह की दलीलें पेश करके मानवता के शत्रुओं को बड़े साफगोई से सम्भाल ले जाते हैं ।

मुझे समझ नहीं आता कि विशुद्ध न्याय के नाम पर अन्याय का ये नाटक चन्द पैसों के लिए क्यों खेला जाता है, जहाँ सत्य बारबार लज्जित-पराजित होते रहता है और झूठ-अत्याचार सीना ताने अट्टहास करता नज़र आता है ।

अपने पर लगाये गए आरोप की सफाई में कुछ कहने का हमारा अधिकार जो है, उसे मात्र वकालतनामा पर दस्तख़त करके बड़ी आसानी से हम खरीद लेते हैं । फिर मुझे कुछ कहना नहीं पड़ता, मोटी सी फीस लेकर सफेद चमचमाता हुआ झूठ बोलने वाले वक्ता नहीं अधिवक्ता हमें मिल जाते हैं - ये है हमारी कानूनी व्यवस्था ।

अपराध को छिपाना, अपराधी का साथ देना, अपराधी को शरण देना, साक्ष्य मिटाना इत्यादि - हमारे यहाँ अपराध के दायरे में ही आते हैं, किन्तु अपराधी को सरेआम सफा बचा लेना अपराध के दायरे से बिलकुल बाहर है । अपने वाक् चातुर्य से न्यायाधीश की बोलती बन्द कर दे, वही असली अधिवक्ता है—वाक्येन कीलयति –वाक् कीलयति- वकील शब्द शायद इसी तरह बना है । अद्भुत है हमारी व्यवस्था - दस्ताना पहन कर मर्डर करने जैसी । तभी को काला चोंगा लपेट कर सफेद-सफेद झूठ बोलने का परमीशन मिल जाता है ।

क्या इस गम्भीर विषय पर हम कभी विचार करने को राज़ी होंगे ? या कि दुष्टनीति को ही चाणक्यनीति और फिरंगियों के ‘ पोथड़े ’ को ही सम्माननीय कानून मानने को विवश ही रहेंगे ? कब खुलेंगी हमारी आँखें...कब लिखेंगे हम हमारा संविधान...कब मिलेगी हमें असली वाली आजादी ? कब बन्द होगा असत्य का ये वैध व्यापार ?
समय हो तो जरा इस पर विचार करें ।

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