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हम कुछ ऐसा हो गये क्या ?

हम कुछ ऐसा हो गये क्या ?

लिफाफ में मिला मानों एक जिर्राफ /
पूर्वभान था , होगा कोई शर्राफ /
माफ हो ऐसा लिहाफ-गिलाफ /
इसे खोलने की व्यर्थता क्या होगी मुआफ ?

स्वजन अपने छोड़ते हैं निशान/
स्वजनों का ही करके नुकशान/
जानो भी , धूर्तता है मूर्खता की संतान /
लाओ सत्वता-सत्यता , ये हैं महान /

लोलुप जिन्हें उल्लू के पट्ठे समझते रहे /
अपना उल्लू सीधा करते रहे /
वे रहे आत्ममुग्ध और अलमस्त /
आज हैं खाली हस्त /
फिर भी न लेते सीख /
माँगते नियति से भीख/
बदलो-बदलो मिजाज /
समाज की भी होती है अपनी लाज /
समाज हुआ खंडित/
और तुम रहे पंडित के पंडित/
दीपक तले रहा अँधेला
और तुम बाँटते रहे दीक्षा/

चेतो , चेतो , वरना देनी होगी अग्निपरीक्षा ।
                    
राधामोहन मिश्र माधव
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