दुआ मांगी है
सत्ता के दहलीज पर -
मानवता की लाश टंगी है।
फिर भी देखो तो उधर -
कैसी निर्मम निगाहें नंगी है।।
नारा विकास का -
काम सत्यानाश का।
इधर सूनों निंदा -
उधर भाव उपहास का।
यहां न कोई साथी संगी है।।
देखो चौराहे पर जो समूह है,
वह महाभारत का चक्रव्यूह है।
देखने में सब सजीव लगता है -
पर वास्तव में शरीर बिना रूह है।
रिश्तों के बीच स्वभाव की तंगी है।।
हमारी मजबूरी उनकी ताकत है,
जानकर मन व्यथित और आहत हैं।
जब जनता अभावग्रस्त होती है,
तभी सत्ता बेफिक्र होकर सोती है।
मानवता जले या मरे? चिंता नहीं -
कहो तो जरा क्या कभी रोती है।
दिखाता बाहर का रास्ता जैसे भंगी है।।
भरोसा मत करो उस पर -
वह बड़ी हत्यारी है।
रहती है अवसर के साथ वह -
दिखती बडी प्यारी।
दिखती सर्बव्यापि पर एकांगी है।।
भूल से भी अपनों के साथ में,
मत करो सियासत।
भाईचारे के नाम पर मत परोस -
नफरत - दर- नफरत।
यही "मिश्रअणु" ने दुआ मांगी है।।
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र "अणु"
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