बिहारियों पर कलंक वक्तियारपुर |
पटना से करीब 90 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 12 किलोमीटर उत्तर में एक गांव के पास था वह महान बौद्ध विश्वविद्यालय। इसकी खोज अलेक्जेंडर कनिंघम ने की थी। नालंदा वो जगह है जो 6th Century B.C. में पूरी दुनिया में ज्ञान का केंद्र था। कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत और तुर्की से यहां स्टूडेंट्स और टीचर्स पढ़ने-पढ़ाने आते थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम 450-470 ने की थी। महायान बौद्ध धर्म के इस विश्वविद्यालय में हीनयान बौद्ध धर्म के साथ ही दूसरे धर्मों की भी शिक्षा दी जाती थी। मशहूर चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी यहां साल भर शिक्षा ली थी। यह विश्व की ऐसी पहली यूनिवर्सिटी थी, जहां रहने के लिए हॉस्टल भी थे।
बख्तियार
खिलजी नाम के एक सिरफिरे की सनक ने इसको तहस-नहस कर दिया।
उस तुर्क आक्रमणकारी ने नालंदा
यूनिवर्सिटी में आग लगवा दी, जिससे इसकी
लाइब्रेरी में रखीं बेशकीमती किताबें जलकर राख हो गई। खिलजी ने नालंदा के कई
धार्मिक लीडर्स और बौद्ध भिक्षुओं की भी हत्या करवा दी। खिलजी कौन था, उसने ऐसा क्यों करवाया? आज हम आपको बता रहे हैं
नालंदा का पूरा च…
छठी
शताब्दी में हिंदुस्तान सोने की चिडि़या कहलाता था।
भारत के वैभव के बारे में सुनकर यहां बाहर से आक्रमणकारी आते रहते थे।
इन्हीं में से एक था- तुर्की का शासक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी।
उस समय हिंदुस्तान पर खिलजी का ही राज था। नालंदा यूनिवर्सिटी तब राजगीर का एक
उपनगर हुआ करती थी। यह राजगीर से पटना को जोड़ने वाली रोड पर स्थित है। यहां पढ़ने
वाले ज्यादातर स्टूडेंट्स विदेशी थे। उस वक्त यहां 10 हजार
छात्र पढ़ते थे, जिन्हें 2 हजार शिक्षक
गाइड करते थे।
कहा
जाता है कि एक बार बख्तियार खिलजी बुरी तरह बीमार पड़ा।
उसने अपने हकीमों से काफी इलाज
करवाया, लेकिन कोई असर नहीं हुआ। तब किसी ने उसे नालंदा
यूनिवर्सिटी की आयुर्वेद शाखा के हेड (प्रधान) राहुल श्रीभद्र जी से इलाज करवाने
की सलाह दी, लेकिन खिलजी किसी हिंदुस्तानी वैद्य (डॉक्टर) से
इलाज के लिए तैयार नहीं था। उसे अपने हकीमों पर ज्यादा भरोसा था। उसका मन ये मानने
को तैयार नहीं था कि कोई हिंदुस्तानी डॉक्टर उसके हकीमों से भी ज्यादा काबिल हो
सकता है।
कई
हकीमों से सलाह करने के बाद आखिरकार खिलजी ने इलाज के लिए राहुल श्रीभद्र को
बुलवाया।
खिलजी ने उनके सामने शर्त रखी कि
वो किसी हिंदुस्तानी दवा का इस्तेमाल नहीं करेगा और अगर वो ठीक नहीं हुआ तो उन्हें
मौत की नींद सुला देगा। ये सुनकर राहुल श्रीभद्र सोच में पड़ गए। फिर कुछ सोचकर
उन्होंने खिलजी की शर्तें मान लीं। कुछ दिनों बाद वो खिलजी के पास एक कुरान लेकर
पहुंचे और उससे कहा कि इसके इतने पन्ने रोज पढिए, ठीक हो जाएंगे।
दरअसल,
राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया
था।
खिलजी उन पन्नों को पढ़ता गया और
इस तरह धीरे-धीरे ठीक होता गया, लेकिन पूरी तरह
ठीक होने के बाद उसने हिंदुस्तानी वैद्य के अहसानों को भुला दिया। उसे इस बात से
जलन होने लगी कि उसके हकीम फेल हो गए जबकि एक हिंदुस्तानी वैद्य उसका इलाज करने
में सफल हो गया। तब खिलजी ने सोचा कि क्यों न ज्ञान की इस पूरी जड़ (नालंदा
यूनिवर्सिटी) को ही खत्म कर दिया जाए। इसके बाद उसने जो किया, उसके लिए इतिहास ने उसे कभी माफ नहीं किया।
खिलजी
ने नालंदा यूनिवर्सिटी में आग लगाने का आदेश दे दिया।
कहा जाता है कि यूनिवर्सिटी की
लाइब्रेरी में इतनी किताबें थीं कि यह तीन महीने तक धू-धू जलता रहा। इसके बाद भी
खिलजी का मन शांत नहीं हुआ। उसने नालंदा के हजारों धार्मिक लीडर्स और बौद्ध
भिक्षुओं की भी हत्या करवा दी। बाद में पूरे नालंदा को भी जलाने का आदेश दे दिया।
इस तरह उस सनकी ने हिंदुस्तानी वैद्य के अहसान का बदला चुकाया।
नालंदा
यूनिवर्सिटी की स्थापना गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त प्रथम ने 450-470
ई. के बीच की थी।
यूनिवर्सिटी स्थापत्य कला का
अद्भुत नमूना थी। इसका पूरा कैम्पस एक बड़ी दीवार से घिरा हुआ था जिसमें आने-जाने
के लिए एक मुख्य दरवाजा था। नॉर्थ से साउथ की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने
अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में भगवान बुद्ध की मूर्तियां थीं।
यूनिवर्सिटी
की सेंट्रल बिल्डिंग में 7 बड़े और 300
छोटे कमरे थे, जिनमें लेक्चर हुआ करते थे।
मठ एक से अधिक मंजिल
के थे। हर मठ के आंगन में एक कुआं बना था। 8 बड़ी बिल्डिंग्स, 10 मंदिर, कई
प्रेयर और स्टडी रूम के अलावा इस कैम्पस में सुंदर बगीचे और झीलें भी थीं। नालंदा
को हिंदुस्तानी राजाओं के साथ ही विदेशों से भी आर्थिक मदद मिलती थी। यूनिवर्सिटी
का पूरा प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जिन्हें बौद्ध भिक्षु चुनते थे।
आखिर हम कब तक
उन विधर्मी आक्रांताओं को ढोते रहेंगे जिन्होंने न केवल हमारी अकूत धन दौलत को जमकर
लूटा खसोटा वरन् हमारी महान संस्कृति को नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
खून की नदियां बहाने वाले इन आक्रांताओं द्वारा हमारे धार्मिक स्थलों को
नेस्तनाबूद करने दृष्टि से तोड़ा व ढहाया गया। हमारे ज्ञान के मंदिरों को बुरी तरह
जलाया व तहस-नहस किया गया। लाखों सनातन धर्मियों का ऐन-केन-प्रकारेण धर्म परिवर्तन
कराया गया। नामालूम कितनी भारतीय नारियों को सतीत्व की रक्षा के लिये अपने को
अग्नि के हवाले करना पड़ा।
ऐसे जिन
विधर्मी आक्रांताओं ने क्रूरता, निर्ममता की सारी
हदें पार कर दी थी उनमें ही एक तुर्क लुटेरा सम्प्रति कुतुबुद्दीन ऐवक का सेनापति
बख्तियार बिन खिलजी भी था। भारतीय इतिहास में बख्तियार की कू्ररता, निर्ममता अन्य खूंखार विधर्मी आक्रांताओ की तुलना में इसलिये कहीं अधिक
जघन्य, अक्षम्य मानी जाती है कि उसने न केवल सैकड़ों
मूर्धन्य शिक्षकों व हजारों विद्यार्थियों को मौत के घाट उतार दिया था वरन् उसने
दुनिया के महानतम शिक्षा केन्द्र नालंदा विश्व विद्यालय को तहस-नहस कर उसके ज्ञान
के केन्द्र तीन पुस्तकालयों को जलाकर खत्म कर दिया था।
भारतीय
राजधानी पटना से करीब 120 किलोमीटर व राजगीर से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर उसके एक उपनगर के रूप में स्थिति नालंदा विश्व
विद्यालय की स्थापना 450-470 ई० के बीच गुप्त शासक के कुमार
गुप्त प्रथम ने की थी। इसमें देश ही नहीं दुनिया के अनेक देशों से विद्यार्थी
विभिन्न विषयों में अध्ययन हेतु आया करते थे। जिस समय 1999 ई०
में बख्तियार बिन खिलजी ने कोई 200 घुड़सवार आतताई लुटेरों
के साथ नालंदा विश्व विद्यालय पर हमला बोला था उस समय वहां कोई 20 हजार छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे और कोई 200 महान
शिक्षक उन्हे शिक्षा देने में लगे थे। देखते ही देखते उसके खूंखार साथी लूटेरों ने
निहत्थे शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को गाजर-मूली की तरह काट डाला और तीनों
पुस्तकालयों को आग के हवाले कर दिया। इन पुस्तकालयों में उस समय कितनी पुस्तके रही
होगी इसकी परिकल्पना सिर्फ इससे की जा सकती है कि
उपरोक्त पुस्तकालय 6 महीने तक घूरे की तरह सुलगते रहे थे।
दुनिया का कोई
और देश होता तो हमारे ज्ञान की थाती को राख कर देने वाले आतताई बख्तियार का नाम
लेना तो दूर उस पर थूकता तक नहीं। पर आजादी के 70 सालों बाद भी उसके नाम पर स्थापित 'बख्तियारपुर'
रेलवे जक्शन उसकी क्रूरता की न केवल चीख-चीख कर गवाही देता है वरन्
वो हमारे शासकों के राष्ट्र प्रेम व राष्ट्र के प्रति समर्पण पर भी प्रश्न चिन्ह
खड़े करता है।
जो बिहार की
धरती कभी शक्ति, ज्ञान का केन्द्र हुआ करती थी। जिस धरती ने यदि
कुमार गुप्त, चन्द्र गुप्त, अशोक जैसे
सम्राट, चाणक्य जैसे महान विद्वान दिये तो उसी धरती ने महात्मा
बुद्ध जैसे बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भी दिये।
देश की आजादी
के बाद इसी धरती ने देश को जहां डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जैसा राष्ट्रपति दिया तो इसी
धरती ने देश में समग्र क्रांति के दूत के रूप में बाबू जय प्रकाश नारायण को भी।
रामधारी सिंह दिनकर, देवकी नन्दन खत्री तथा नागार्जुन जैसे साहित्य
शिरोमणि बिहार की धरती की देन रहे है।
अंतत: अपने एक
सहायक के हाथो मौत के घाट उतारे गये आतताई बख्तियार ने जीते जी सोचा भी न होगा कि
जिस बिहार धरती को उसने खून से लाल कर दिया था उसी बिहार की धरती एक दिन उसे गाजी
बाबा मान पूजा अर्चना करेंगी व हिन्दू महिलायें उसकी भटकती,
अशांत रूह से अपने बाल बच्चों के कल्याण की मन्नते मांगेंगी।
आजादी के बाद
बिहार में न जाने कितनी सरकारें आई गई। कितने मुख्यमंत्री बने बिगड़े पर किसी ने
भी क्रूरता की सभी सीमायें लांघने वाले आतताई बख्तियार के नाम पर बने 'बख्तियारपुर' रेलवे जक्शन का नाम बदलने की जहमत नहीं
उठाई।
विगत कई वर्षो
से बिहार की सत्ता का केन्द्र बिन्दु बने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की न केवल
कर्मभूमि 'बख्तियारपुर' बनी हुई है वरन्
इनका यही जन्म स्थान भी है। भारतीय इतिहास को कलंकित करने वाले इस क्रूरतम लुटेरे
व हत्यारे बख्तियार के बारे में उन्हे जानकारी न हो यह सोचा भी नहीं जा सकता। पर
यदि उन्होने भी बख्तियार के नाम पर बने बख्तियारपुर रेलवे जक्शन का नाम बदलने का
प्रयास तक नहीं किया तो नि:संदेह यही माना जायेगा कि उन्हे राष्ट्र के खासकर बिहार
के मान-सम्मान की कोई चिंता नहीं है।
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