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भारतीयता का पराभव

भारतीयता का पराभव

                 --:भारतका एक ब्राह्मण.  संजय कुमार मिश्र "अणु"

        हमारा समाज प्रारंभ से हीं कर्मठ और श्रमजीवी रहा है।कर्मठता और कार्य कुशलता हीं आगे चलकर जाति का रूप धारण कर लिया।भारतीय जाति व्यवस्था वास्तव में श्रमविभाजक व्यवस्था हीं थी।
            भारतीय समाज में हर कोई अपना श्रम अपनी योग्यतानुसार अपना सकता था। कहीं भी किसी को किसी तरह की बाध्यता नहीं थी।पर हमारा समाज अपनी परंपरा में जीवन जीने का आदि रहा।अतिक्रमण और संक्रमण तो कभी जाना हीं नहीं।सब जो जहां था वह वहीं पर समर्पित था। 
                     कर्म को हमारे समाज में श्रेष्ठ मान्यता थी। इतना श्रेष्ठ की उसे पूजा का पद प्राप्त था। कर्म हीं पूजा है  ये वाक्य प्रचलित था।'कर्मणेवाधिकारस्ते' का उद्घोष आपने सुना होगा।हमारे समाज में कर्म की प्रधानता रही है।'कर्म प्रधान विश्व करी राखा' की महति उदात्त भावना हमारी हीं रही है। 
                      इधर कुछ अति महत्वाकांक्षी लोगों ने इस पर कुठाराघात किया है।वे दिग्भ्रमित लोग हैं जो ऐसा सोंचते और विचारते हैं।इसके पीछे भी पाश्चात्य लोगों की एक सुनियोजित साजिश है।जबतक हम लोग उसे समझ नहीं पायेगें। सच कहता हुं छले जायेंगें। जैसा की आजकल हमलोग छले जा रहे हैं। 
              हम सब जानते हैं अंग्रेज यहां राज करने नहीं बल्कि व्यापार करने आया था। वो सब कुशल व्यापारी था।व्यापार करने के लिए तो वे हर तरह के हथकंडे अपनाते रहे।वे धीरे-धीरे हमसबके आपसी फुट और विद्वेष का फायदा उठाया। फायदा यह उठाया की हमसब को और ज्यादा आपस में लगवाने लगा। हलांकि पूर्व में हमारे भारतीय समाज में ऐसी बात नहीं थी।सभी लोग सहयोग और सहकार पूर्वक रहते थे।लोगों का दु:ख सुख अपना होता था। मिलकर बांट लेते थे। 
              जैसे-जैसे भारतीय समाज पर बाहरी आक्रमण होता गया। लोग बंटते गये। कुछ शौक से तो कुछ भय और कुछ प्रलोभन से। वह विजेता शासक वर्ग एक दूसरे के प्रति विद्वेष का भाव भरते रहे।परिणामस्वरूप समाज टुटता और बिखरता रहा।लोगों को मौका मिलता रहा। हमसब बस तमाशा बनकर रह गये।वे लोग हमारे हीं लोगों को हमारे खिलाफ खडा करते रहे। 
                    अंग्रेजों ने अपने कल कारखानों को चलाने के लिए भारतीय कामगारों के कामों की खुब निंदा की। यहां तक की उसे जातियों के तौर पर उंच नीच बेबाहियात समझाया।वह इसलिए की यहां जो कर्मकार है वह अपने कर्म को हीन समझकर छोड दें।हमारे समाज में गृह उद्योग चलता है। घर घर में समाजोपयोगी उत्पादन होता था। लोग उसे उचित सम्मान या पारिश्रमिक देकर लेते थे। विश्वास नहीं है तो पढो.. 'श्रमेव जयते'। 
            वे लोग खेती किसानी की निंदा की। आज हमारे समाज में कृषि को हेय समझा जाने लगा। वे लोग कृषि को इस लिए बदनाम किये की उन्हे सस्ता मजदूर चाहिए था। वह तभी मिलता जब कोई भूखमरू होता। भूखमरू तभी होता जब वह अपने कम से हीन होता। भारतीय जनता मानस को अपने परंपरागत कर्म कुशलता से दूर करने के लिए यह जाल बुना। और लोग उसके शिकार बनते रहे। हमारे अपने हीं लोग आधुनिक और प्रगतिशीलता के नाम पर कर्म को कोसना शुरू किया। लोगों नें समझा यह तो अपना है गलत थोडे बोल रहा है। विश्वास कर लिया। जो हमारे कर्मकार खुद के स्वामी थे। उनका अपना स्वामित्व था। वे सब अपने स्वामित्व छोड स्वामिभक्ति करने लगे।नोकरी करने लगे यानि नोकर बन गये। वह यही तो चाह रहा था और आपने योग कर हीं दिया।
       भारतीय समाज के हर व्यक्ति का एक निश्चित रोजगार था। कोई भी रोजगार नहीं था। आज सरकार 'रोजगार गारंटी योजना' लाई है रोजगार और नोकरी को मिटा कर।क्या विडम्बना है हमारे समाज की।आज'रोजगार गारंटी' के नाम पर क्या दिया जा रहा है?मेहनत-मजदूरी। यानि सबको मजदूर बना दो।रोजगार का मतलब मेहनत मजदूरी करना है क्या?
                                     आज के हमारे रहनुमा भी कम नहीं हैं। वे चाय,पकौडा और वाहन चालन को सबसे बेहतरीन रोजगार मान रहे हैं।रोजगार मेला के नाम पर ऐसे हीं कामों की फेहरिस्त होती है।
                      
            --भारतका एक ब्राह्मण.
           संजय कुमार मिश्र "अणु"
           वलिदाद,अरवल(बिहार)
           पिन नं.८०४४०२.
संपर्क--८३४०७८१२१७.
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