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जुस्तजू छांव की

जुस्तजू  छांव की
सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ


धूप ही धूप में,
कर लिया तय सफर
जुस्तजू छांव की अब करें भी तो क्यों 
छोड़ आए हैं पीछे,
जो घर     वो डगर
याद उस   गांव की अब करें भी तो क्यों

अब तो    मंजिल  से,
अपनी है  नजदीकियां
पास      खुशबू  ,सनी,
मस्त ।       आबादियां
हौसला ही।   रहा  साथ  में  हमसफ़र
चाहतें  ठांव की  अब करें भी तो   क्यों

जो     मिले   हैं   शजर,
वो    तने    ताड़       से
बजे         थोथे     चने
से ,धनिक।  भाड़     के
वक्त के नब्ज की, हर।     धड़कती बहर
नव गज़ल चाव की अब करे भी तो क्यों

सांस    वाली      नदी
संग।     आनन्द      की
सरगमो।      में    सजी
सिंधु।    के        छंद की
सीख  हमने  लिया        तैरने     का हुनर,
कामना नाव की । अब करें  भी  तो   क्यों

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