इतिहास में या कथाओं में वही लिखा जाता है जो 'विजयी' लिखवाता है। हम हारी हुई कौम हैं। अपने ही लोगों से हारी हुई कौम। हमें किसी बाहर के व्यक्ति ने नहीं अपने ही लोगों ने बाहरी लोगों के साथ मिलकर हराया है। क्यों?
संकलन डॉ राकेश दत्त मिश्र
जातिवाद से संबंधित संघर्ष भारत में आए दिन होता ही रहता है, लेकिन भारतीय
मुसलमान, हिन्दू और अन्य यह नहीं जानते हैं कि यह सब आखिर क्यों हो रहा है। धर्म के लिए, राज्य के लिए या
किसी और के लिए। यदि भारतीय मुसलमान और हिन्दू अपने देश का पिछले 1000 वर्षों के इतिहास
का गहन अध्ययन करें तो शायद पते चलेगा कि हम क्या था और अब क्या हो गए।
आज भारतीय इतने अलग अलग हो गए हैं कि अब मुश्किल है यह समझना कि हिंदू या
मुसलमान, दलित या ब्राह्मण कोई और नहीं यह उनका अपना ही खून है और वह अपने ही खून के
खिलाफ हथियार उठाने में अब जरा भी सोचते नहीं है। पहले भारतीयों के एक हाथ में
रोटी और दूसरे हाथ में धर्मग्रंथ दिए गए और अब रोटी वाले हाथों में हथियार थौप दिए
हैं।
ग्रंथों के साथ छेड़खानी : प्राचीन काल में
धर्म से संचालित होता था राज्य। हमारे धर्म ग्रंथ लिखने वाले और समाज को रचने वाले
ऋषि-मुनी जब विदा हो गए तब राजा
और पुरोहितों में सांठगाठ से राज्य का शासन चलने लगा। धीरे धीरे अनुयायियों की फौज ने धर्म को बदल दिया। बौद्ध काल ऐसा
काल था जबकि ग्रंथों के साथ छेड़खानी की जाने लगी। फिर मुगल काल में और बाद में
अंग्रेजों ने सत्यानाश कर दिया। अंतत:
कहना होगा की साम्यवादी, व्यापारिक और
राजनीतिक सोच ने बिगाड़ा धर्म को।
इसकी क्या ग्यारंटी है कि हमारे पास आज जो वेद हैं उसे तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया,
हमारे पास आज जो स्मृति ग्रंथ है उसमें जानबूझकर गलत बाते नहीं जोड़ी गई।
हमारे हाथ में नहीं था इतिहास लिखना, हमारे हाथ में नहीं था हमारे ग्रंथों को
संजोकर रखना। बस जो कंठस्थ था उसे ही हमने जिंदा बनाए रखा। हमारे पुस्तकालय जला
दिए गए। हमारे विश्व विद्यालय खाक में मिला दिए गए और हमारे मंदिर तोड़ दिए गए।
क्यों? इसलिए कि हम अपने असली इतिहास को भूल जाएं।
1.राजा और पुरोहितों की चाल : यह ऐसा काल था
जबकि तथाकथित पुरोहित वर्ग ने पुरोहितों के फायदे के लिए स्मृति और पुराणों में
हेरफेर किया। ऐसा राजा के इशारे पर भी होता रहा। बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी पुस्तक
पॉवर में लिखा है कि प्राचीन काल में पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के
संग्रहण के लिए करता था। ऐसा हर देश में हुआ।
2.यह ऐसा काल था जबकि अरब, ईरानी, मंगोल और तुर्क
मुसलमानों ने भारत के धार्मिक और राजनीतिक इतिहास के ग्रंथों को जलाकर उनका
नामोनिशान मिटाने का प्रयास किया और इसमें वह कुछ हद तक सफल भी रहे। उन्होंने जहां
हिंदू और बौद्धों के विश्वविद्यालय, ग्रंथालय और मंदिरों को जला दिया वहीं उनकी स्त्रियों को ले
गए अरब और पुरुषों को दास बनाकर रखा अफगानिस्तान में। प्रो.
केएस लाल की पुस्तक 'मुस्लिम स्लेव
सिस्टम इन मिडायबल इंडिया' में इस संबंध में विस्तार से जानकारी मिल जाएगी।
आक्रमणकारी मुसलमानों ने ऐसा इसलिए किया ताकि भारतीय भूल जाएं सब कुछ और याद
रखें सिर्फ इस्लाम। ईरानी, तुर्क और अरबी आदि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर 700 वर्ष से अधिक राज
किया और यहां के गरीब हिन्दुओं को निरंतर मुसलमान बनाया और समाज में एक नई दीवार
खड़ी कर दी।
3.यह ऐसा काल था जबकि अंग्रेज भारत पर शासन
करना चाहते थे। इसमें 'बांटो और राज करो' के सिद्धांत का बड़ा योगदान रहा जो
ब्रिटेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति भी करता था। इसके लिए जहां उन्होंने
मुसलमानों और हिन्दुओं में फूट डालने का कार्य किया वही उन्होंने हिन्दुओं को आपस
में बांटकर धर्मांतरण के जरिये बंगाल सहित दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत में
लोगों को ईसाई बनाया। इस तरह उन्होंने 200 से अधिक वर्ष तक सफल तरीके से शासन किया।
इस सबका परिणाम यह निकला कि जहां हिन्दू दिनहिन हो गया वहीं वह हजारों जातियों
में बंटकर अपने ही लोगों को पराया समझकर उनसे दूर रहने लगा। वह धीरे-धीरे विदेशी भक्त बन गया और अपने ही धर्म तथा देश
को हिन दृष्टि से देखने लगा।
कैसे हिंदुओं को जाति में बांटा गया?
1. बौद्ध और शंकराचार्य के काल में स्मृति और
पुराण ग्रंथों में हेरफेर किया गया। इस हेरफेर के चलते ही शास्त्र में उल्लेखित
क्षूद्र शब्द के अर्थ को समझे बगैर ही आधुनिक काल में निचले तबके के लोगों को यह
समझाया गया कि शस्त्रों में उल्लेखित क्षूद्र शब्द आप ही के लिए इस्तेमाल किया गया
है। जबकि वेद कहते हैं कि जन्म से सभी क्षूद्र होते हैं और वह अपनी मेहनत तथा
ज्ञान के बल पर श्रेष्ठ अर्थात आर्य बन जाते हैं।
क्षूद्र एक ऐसा शब्द था
जिसने देश को तोड़ दिया। दरअसल यह किसी दलित के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया था।
लेकिन इस शब्द के अर्थ का अनर्थ किया गया और इस अनर्थ को हमारे आधुनिक
साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों ने बखूबी अपने भाषण और लेखों में भुनाया।
2. मध्यकाल में जबकि मुस्लिम और ईसाई धर्म को भारत
में अपनी जड़े जमाना थी तो उन्होंने इस जातिवादी धारणा का हथियार के रूप में
इस्तेमाल किया और इसे और हवा देकर समाज के नीचले तबके के लोगों को यह समझाया गया
कि आपके ही लोग आपसे छुआछूत करते हैं। मध्यकाल में हिन्दू धर्म में बुराईयों का
विस्तार हुआ। कुछ प्रथाएं तो इस्लाम के जोरजबर के कारण पनपी, जैसे सतिप्रथा, घर में ही पूजा घर बनाना, स्त्रीयों को घुंघट में रखना आदि।
3. अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो की नीति' तो 1774 से ही चल रही थी जिसके तहत हिंदुओं में उच-नीच और प्रांतवाद
की भावनाओं का क्रमश: विकास किया गया अंतत: लॉर्ड इर्विन के दौर से ही भारत विभाजन
के स्पष्ट बीज बोए गए। माउंटबैटन तक इस नीति का पालन किया गया। बाद में 1857 की असफल क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने भारत
को तोड़ने की प्रक्रिया के तहत हिंदू और मुसलमानों को अलग-अलग दर्जा देना प्रारंभ
किया।
हिंदुओ को विभाजित रखने के
उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिंदुओ को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए
और हिंदुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाप देकर उन्हों स्पष्टतौर पर जातियों में
बांट दिया गया। इतना ही नहीं 1891 की जनगणना में केवल चमार की ही लगभग 1156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया
जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होगी।
4. आजादी के बाद में यही काम हमारे राजीतिज्ञ करते
रहे। उन्होंने भी अंग्रेजों की नीति का पालन किया और आज तक हिन्दू ही नहीं
मुसलमानों को भी अब हजारों जातियों में बांट दिया। बांटो और राज करो की नीति के
तहत आरक्षण, फिर जातिगत जनगणना, हर तरह के फार्म में जाति का उल्लेख करना और
फिर चुनावों में इसे मुद्दा बनाकर सत्ता में आना आज भी जारी है।
गरीब दलित यह नहीं जानता की
हमारी जनसंख्या का फायदा हमें बांटकर उठाया जा रहा है। आजादी के 65 साल में आज भी गरीब गरीब ही है तो क्यों।
नेहरुजी कहते थे हम भारत से जातिवाद और गरीबी को मिटा देगें और आज सोनिया भी यही
कहती है कि हमें भारत से गरीबी मिटाना है। क्या 65 साल से ज्यादा लगते हैं गरीबी मिटाने के लिए?
जातिवाद, छुआछूत नहीं है हिन्दू धर्म
का हिस्सा
धर्म
की गलत व्याखाओं का दौर प्राचीन समय से ही जारी है। ऋषि वेद व्यास ब्राह्मण नहीं
थे, जिन्होंने
पुराणों की रचना की। तब से ही वेद हाशिये पर धकेले जाने लगे और समाज में जातियों
की शुरुआत होने लगी। क्या हम शिव को ब्राह्मण कहें? विष्णु कौन से समाज से थे और ब्रह्मा की कौन सी
जाति थी? क्या हम कालीका माता को दलित समाज का मानकर
पूजना छोड़ दें?
आज के शब्दों का इस्तेमाल
करें तो ये लोग दलित थे- ऋषि कवास इलूसू, ऋषि वत्स, ऋषि काकसिवत, महर्षि वेद व्यास, महर्षि महिदास अत्रैय, महर्षि वाल्मीकि आदि ऐसे महान वेदज्ञ हुए हैं जिन्हें आज की
जातिवादी व्यवस्था दलित वर्ग का मान सकती है। ऐसे हजारों नाम गिनाएं जा सकते हैं
जो सभी आज के दृष्टिकोण से दलित थे। वेद को रचने वाले, मनु स्मृति को लिखने वाले और पुराणों को गढ़ने
वाले ब्राह्मण नहीं थे।
अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को
भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है। इस मुद्दे पर धर्म शस्त्रों
में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम
किया गया है और किया जा रहा है।
पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक
धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म
का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित
होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत
को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे
देशों में भी होता रहा है।
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह
इससे पूर्व के जो भी नाम थे वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। आज जो नाम दिए गए हैं वह
पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज है
और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह पिछले 900 साल की गुलामी की उपज है।
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो
आज दलित हैं, मुसलमान है, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज
ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं।
यह सवर्ण नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया।
भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ
खोया है खासकर उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है। खो दिए हैं देश के कई
हिस्से। यह जो भ्रांतियां फैली है और यह जो समाज में कुरीरियों का जन्म हो चला है
इसमें गुलाम जिंदगी का योगदान है। जिन लोगों के अधिन भारतीय थे उन लोगों ने
भारतीयों में फूट डालने के हर संभव प्रयास किए और इसमें वह सफल भी हुए।
अब यह भी जानना जरूरी है कि
हिन्दू धर्म के शास्त्र कौन से हैं। क्योंकि कुछ लोग उन शास्त्रों का हवाला देते
हैं जो असल में हिन्दू शास्त्र नहीं है। हिन्दुओं का धर्मग्रंथ मात्र वेद है, वेदों का सार उपनिषद है जिसे वेदांत कहते हैं
और उपनिषदों का सार गीता है। इसके अलावा जिस भी ग्रंथ का नाम लिया जाता है वह
हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं है।
मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत यह हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ नहीं है। इन
ग्रंथों में हिन्दुओं का इतिहास दर्ज है, लेकिन कुछ लोग इन ग्रंथों में से संस्कृत के कुछ श्लोक
निकालकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि ऊंच-नीच की बातें तो इन धर्मग्रंथों में
ही लिखी है। असल में यह काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते समाज का चित्रण है।
दूसरी बात कि इस बात की क्या ग्यारंटी की उक्त ग्रंथों में जानबूझकर संशोधन नहीं
किया गया होगा। हमारे अंग्रेज भाई और बाद के कम्यूनिष्ट भाइयों के हाथ में ही तो
था भारत के सभी तरह के साहित्य को समाज के सामने प्रस्तुत करना तब स्वाभाविक रूप
से तोड़ मरोड़कर बर्बाद कर दिया।
कर्म का विभाजन- वेद या स्मृति में श्रमिकों को चार वर्गो-
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र-में विभक्त किया गया है, जो मनुष्यों की स्वाभाविक प्रकृति पर आधारित
है। यह विभक्तिकरण कतई जन्म पर आधारित नहीं है। आज बहुत से ब्राह्मण व्यापार कर
रहे हैं उन्हें ब्राह्मण कहना गलत हैं। ऐसे कई क्षत्रिय और दलित हैं जो आज धर्म-कर्म
का कार्य करते हैं तब उन्हें कैसे क्षत्रिय या दलित मान लें? लेकिन पूर्व में हमारे देश में परंपरागत कार्य
करने वालों का एक समाज विकसित होता गया, जिसने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट मानने की भूल
की है तो उसमें हिन्दू धर्म का कोई दोष नहीं है। यदि आप धर्म की गलत व्याख्या कर
लोगों को बेवकूफ बनाते हैं तो उसमें धर्म का दोष नहीं है।
प्राचीन काल में ब्राह्मणत्व
या क्षत्रियत्व को वैसे ही अपने प्रयास से प्राप्त किया जाता था, जैसे कि आज वर्तमान में एमए, एमबीबीएस आदि की डिग्री प्राप्त करते हैं। जन्म
के आधार पर एक पत्रकार के पुत्र को पत्रकार, इंजीनियर के पुत्र को इंजीनियर, डॉक्टर के पुत्र को डॉक्टर या एक आईएएस, आईपीएस अधिकारी के पुत्र को आईएएस अधिकारी नहीं
कहा जा सकता है, जब तक की वह आईएएस की परीक्षा नहीं दे देता। ऐसा ही उस काल
में गुरुकुल से जो जैसी भी शिक्षा लेकर निकलता था उसे उस तरह की पदवी दी जाती थी।
इस तरह मिला जाति को बढ़ावा- दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े। यह
मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित।
पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पीछड़ों को बराबरी पर
लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई। सेवा पर आधारित राजनीति
पूर्णत: वोट पर आधारित राजनीति बन गई।
तथाकथित जातिवादी व्यवस्था की आड़ में सनातन हिंदू धर्म को
बदनाम किए जाने का कुचक्र बढ़ा है। सैकड़ों वर्ष की गुलामी के काल में जातिवाद
इतना नहीं था जितना की आजादी के इन 65 वर्षों में देखने को मिला। एक अंग्रेज लेखक ने सही कहा था
कि जिन लोगों के हाथों में आप सत्ता सौंप रहे हैं मात्र 25 साल में यह सब चौपट कर देंगे।
पहले हम
यक्ष और रक्ष थे फिर हम देव और दानव में बदल गए। फिर सुर और असुर, फिर आर्य
और अनार्य और फिर वैष्णव और शैव में बदल गए। इस दौरान लोगों ने अपने अपने वंश
चलाएं। फिर ये वंश समाज में बदल गए। उक्त सभी का धर्म से कोई लेना देना नहीं है।
वेदों में जहां धर्म की बातें हैं वहीं उक्त काल की सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख भी
है। धर्म ने नहीं अपने हितों की रक्षा के लिए राजाओं ने बदला समाज। जैसा कि आज के राजनीतिज्ञ कर रहे हैं।
जहां तक
सवाल जाति का है तो जातियों के प्रकार अलग होते थे जिनका सनातन धर्म से कोई
लेना-देना नहीं था। जातियां होती थी द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण आदि।
आर्य जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था जो सामुदायिक और कबीलाई संस्कृति से
निकलकर सभ्य होने के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।
वर्ण का
अर्थ रंग : रंगों का सफर कर्म से होकर आज
की तथाकथित जाति पर आकर पूर्णत: विकृत हो चला है। अब इसके अर्थ का अनर्थ हो गया
है। आर्य किसी जाति का नाम नहीं था। आर्य नाम की कोई जाति नहीं थी। आर्य काल में
ऐसी मान्यता थी कि जो श्वेत रंग का है वह ब्राह्मण, जो लाल रंग का है वह क्षत्रिय, जो काले
रंग का है वह क्षुद्र और जो मिश्रित रंग का होता था उसे वैश्य माना जाता था। यह
विभाजन लोगों की पहचान और मनोविज्ञान के आधार पर किए जाते थे। इसी आधार पर कैलाश
पर्वत की चारों दिशाओं में लोगों का अलग-अलग समूह फैला हुआ था। काले रंग का
व्यक्ति भी आर्य होता था और श्वेत रंग का भी। विदेशों में तो सिर्फ गोरे और काले
का भेद है किंतु भारत देश में चार तरह के वर्ण (रंग) माने जाते थे।
रक्त की
शुद्धता : श्वेत लोगों का समूह श्वेत
लोगों में ही रोटी और बेटी का संबंध रखता था। पहले रंग, नाक-नक्क्ष
और भाषा को लेकर शुद्धता बरती जाती थी। किसी समुदाय, कबीले, समाज या
अन्य भाषा का व्यक्ति दूसरे कबीले की स्त्री से विवाह कर लेता था तो उसे उस समुदाय, कबीले, समाज या
भाषायी लोगों के समूह से बहिष्कृत कर दिया जाता था। उसी तरह जो कोई श्वेत रंग का
व्यक्ति काले रंग की लड़की से विवाह कर लेता था तो उस उक्त समूह के लोग उसे
बहिष्कृत कर देते थे। कालांतर में बहिष्कृत लोगों का भी अलग समूह और समाज बनने
लगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव का संबंध धर्म से कतई नहीं माना जा सकता। यह समाजिक
चलन, मान्यता और परम्पराओं का हिस्सा हैं। जैसा कि आज लोग अनोखे
विवाह करने लगे हैं...गे या लेस्बियन। क्या इस तरह के विवाह को धर्म का हिस्सा
माने। लोग बनाते हैं समाज और जाति और बदलते भी वही है।
रंग बना
कर्म : कालांतर में वर्ण अर्थात रंग
का अर्थ बदलकर कर्म होने लगा। स्मृति काल में कार्य के आधार पर लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या
क्षुद्र कहा जाने लगा। वेदों का ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान देने वाले को ब्राह्मण, क्षेत्र का
प्रबंधन और रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, राज्य की अर्थव्यवस्था व
व्यापार को संचालित करने वाले को वैश्य और राज्य के अन्य कार्यो में दक्ष व्यक्ति
को क्षुद्र अर्थात सेवक कहा जाने लगा। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कुछ भी
हो सकता था। जैसा कि आज बनता है कोई सोल्जर्स, कोई अर्थशास्त्री, कोई
व्यापारी और कोई शिक्षक।
योग्यता के
आधार पर इस तरह धीरे-धीरे एक ही तरह के कार्य करने वालों का समूह बनने लगा और यही
समूह बाद में अपने हितों की रक्षा के लिए समाज में बदलता गया। उक्त समाज को उनके
कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा। जैसे की कपड़े सिलने वाले को दर्जी, कपड़े धोने
वाले को धोबी, बाल काटने वाले को नाई, शास्त्र
पढ़ने वाले को शास्त्री आदि।
कर्म का
बना जाति : ऐसे कई समाज निर्मित होते गए
जिन्होंने स्वयं को दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई परम्पराएं निर्मित
कर ली। जैसे कि सभी ने अपने-अपने कुल देवता अलग कर लिए। अपने-अपने रीति-रिवाजों को
नए सिरे से परिभाषित करने लगे, जिन पर स्थानीय संस्कृति का
प्रभाव ही ज्यादा देखने को मिलता है। उक्त सभी की परंपरा और विश्वास का सनातन
हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं।
स्मृति के
काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण व्यवस्था को व्यवस्थित किया गया था। जो
जैसा कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, जैसा की
उसके गुण और स्वभाव में है तब उसे उक्त वर्ण में शामिल समझा जाए। आज इस व्यवस्था
को जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था समझा जाता है।
गुण, कर्म और
स्वभाव के अनुसार ही कर्म का निर्णय होना होता है, जिसे जाति मान लिया गया है।
वर्ण का अर्थ समाज या जाति से नहीं वर्ण का अर्थ स्वभाव और रंग से माना जाता रहा
है।
अगर ऋग्वेद
की ऋचाओं व गीता के श्लोकों को गौर से पढ़ा जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म
आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। सनातन हिंदू धर्म मानव के बीच किसी भी
प्रकार के भेद को नहीं मानता। उपनाम, गोत्र, जाति आदि
यह सभी कई हजार वर्ष की परंपरा का परिणाम है।
कुछ
व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी स्वयं को ऊंचा या ऊंची जाति का और
पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं। बाद में इस
समझ को क्रमश: बढ़ावा मिला मुगल काल, अंग्रेज काल और फिर भारत की
आजादी के बाद भारतीय राजनीति के काल में जो अब विराट रूप ले चुका है।
धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता और मंत्रों तथा
सूत्रों की मनमानी व्याख्या करता रहता है।
जातिवाद को लेकर भारत में बहुत बवाल खड़ा किया जाता रहा है।
खासकर तथाकथित जातिवादी व्यवस्था की आड़ में सनातन हिंदू धर्म को बदनाम किए जाने
का कुचक्र भी बढ़ा है। देशी और विदेशी लोग इस बुराई को लेकर मोटी-मोटी किताब लिख चुके हैं,
लेकिन क्या वे यह जानते हैं कि प्रत्येक धर्म और राष्ट्र में इस तरह की
बुराइयाँ पाई जाती है। क्या उन्होंने सामाजिक विज्ञान पढ़ा है? क्या वे जातियों
की उत्पत्ति का सिद्धांत जानते हैं? सभी धर्म के लोगों में ऊँच-नीच की भावनाएँ होती है किंतु धर्म का इससे कोई
संबंध नहीं होता।
यक्ष और रक्ष : श्रुति अर्थात
वैदिक काल में यक्ष और रक्ष दो तरह के समाज होते थे। यक्ष देव कहलाए और रक्ष
राक्षस। यही सुर और असुर कहलाने लगे। कालांतर में इन्हें ही आर्य और अनार्य कहा
जाने लगा। बाद में यही वैष्णव और शैव में बदल गए। जहाँ तक सवाल जाति का है तो
जातियों के प्रकार अलग होते थे जिनका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं था।
जातियाँ होती थी द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण आदि। आर्य
जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था जो कबिलाई संस्कृति से निकलकर सभ्य होने
के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।
ब्राह्मण और श्रमण : कालांतर में यह
भी देखने को मिलता है कि भारत में ब्राह्मण और श्रमण नाम से दो तरह की विचारधाराएँ
प्रचलित रही। ब्राह्मण मानते थे कि ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा जाता है।
ब्रह्म निराकार है। ब्राह्मण विचारधारा मानती है कि ईश्वर की इच्छा से ही मोक्ष
प्राप्त होता है। यह संसार ईश्वर की इच्छा के अधिन है। श्रमण मानते हैं कि व्यक्ति
के जीवन में श्रम की आवश्यकता है। श्रम से ही शक्ति और सुविधा अर्जित की जाती है
तथा श्रम से ही मोक्ष को पाया जा सकता है।
वर्ण का अर्थ रंग : रंगों का सफर
कर्म से होकर आज की तथाकथित जाति पर आकर पूर्णत:
विकृत हो चला है। अब इसके अर्थ का अनर्थ हो गया है। आर्य किसी जाति का नाम
नहीं था। आर्य नाम की कोई जाति नहीं थी। आर्य काल में ऐसी मान्यता थी कि जो श्वेत रंग का है वह
ब्राह्मण, जो लाल रंग का है वह क्षत्रिय, जो काले रंग का है वह क्षुद्र और जो मिश्रित रंग का होता
था उसे वैश्य माना जाता था। यह विभाजन लोगों की पहचान और मनोविज्ञान के आधार पर
किए जाते थे। इसी आधार पर कैलाश पर्वत की चारों दिशाओं में लोगों का अलग-अलग समूह फैला हुआ था। काले रंग का व्यक्ति भी आर्य होता था
और श्वेत रंग का भी। विदेशों में तो सिर्फ गोरे और काले का भेद है किंतु भारत देश
में चार तरह के वर्ण (रंग) माने जाते थे।
रक्त की शुद्धता : श्वेत लोगों का
समूह श्वेत लोगों में ही रोटी और बेटी का संबंध रखता था। पहले रंग, नाक-नक्क्ष और भाषा को लेकर शुद्धता बरती जाती थी। किसी समुदाय, कबीले, समाज या अन्य भाषा का व्यक्ति दूसरे कबीले की स्त्री से
विवाह कर लेता था तो उसे उस समुदाय, कबीले, समाज या भाषायी लोगों के समूह से बहिष्कृत कर दिया जाता था।
उसी तरह जो कोई श्वेत रंग का व्यक्ति काले रंग की लड़की से विवाह कर लेता था तो उस
उक्त समूह के लोग उसे बहिष्कृत कर देते थे। कालांतर में बहिष्कृत लोगों का भी अलग
समूह बनने लगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव का संबंध धर्म से कतई नहीं माना जा सकता।
यह समाजिक मान्यताओं, परम्पराओं का हिस्सा हैं।
रंग बना कर्म : कालांतर में वर्ण
अर्थात रंग का अर्थ बदलकर कर्म होने लगा। स्मृति काल में कार्य के आधार पर लोगों
को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान
देने वाले को ब्राह्मण, क्षेत्र का प्रबंधन और रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, राज्य की
अर्थव्यवस्था व व्यापार को संचालित करने वाले को वैश्य और राज्य के अन्य कार्यो
में दक्ष व्यक्ति को क्षुद्र अर्थात सेवक कहा जाने लगा। कोई भी व्यक्ति अपनी
योग्यता अनुसार कुछ भी हो सकता था।
योग्यता के आधार पर इस तरह धीरे-धीरे एक ही तरह के
कार्य करने वालों का समूह बनने लगा और यही समूह बाद में अपने हितों की रक्षा के
लिए समाज में बदलता गया। उक्त समाज को उनके कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा।
जैसे की कपड़े सिलने वाले को दर्जी, कपड़े धोने वाले को धोबी, बाल काटने वाले को नाई, शास्त्री पढ़ने
वाले को शास्त्री आदि।
कर्म का बना जाति : ऐसे कई समाज
निर्मित होते गए जिन्होंने स्वयं को दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई
परम्पराएँ निर्मित कर ली। जैसे कि सभी ने अपने-अपने कुल देवता
अलग कर लिए। अपने-अपने रीति-रिवाजों को नए
सिरे से परिभाषित करने लगे, जिन पर स्थानीय संस्कृति का प्रभाव ही ज्यादा देखने को
मिलता है। उक्त सभी की परंपरा और विश्वास का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं।
शस्त्रों में जाति का विरोध : ऋग्वेद, रामायण एवं
श्रीमद्भागवत गीता में जन्म के आधार पर ऊँची व निचली जाति का वर्गीकरण, अछूत व दलित की
अवधारणा को वर्जित किया गया है। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भागवत
गीता के श्लोक (IV.13),
(XVIII.41) में मिलता है।
ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों
के हैं। इनमें से एक के भी नाम के आगे जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ है जैसा
की वर्तमान में होता है-चतुर्वेदी, सिंह, गुप्ता, अग्रवाल, यादव, सूर्यवंशी, ठाकुर, धनगर, शर्मा, अयंगर, श्रीवास्तव, गोस्वामी, भट्ट, बट, सांगते आदि। वर्तमान जाति व्यवस्था के मान से उक्त सभी ऋषि-मुनि किसी भी जाति या समाज के हो सकते हैं।
अगर ऋग्वेद की ऋचाओं व गीता के श्लोकों को गौर से पढ़ा जाए तो साफ परिलक्षित
होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। मनुष्य एक है। जो
हिंदू जाति व्यवस्था को मानता है वह वेद विरुद्ध कर्म करता है। धर्म का अपमान करता
है। सनातन हिंदू धर्म मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानता। उपनाम, गोत्र, जाति आदि यह सभी
कई हजार वर्ष की परंपरा का परिणाम है।
श्लोक : जन्मना जायते
क्षुद्र:,
संस्काराद् द्विज उच्यते। -मनुस्मृति
भावार्थ : महर्षि मनु
महाराज का कथन है कि मनुष्य क्षुद्र के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही
द्विज बनता है।
व्याख्या : मनुष्य जन्म से
ही क्षुद्र अर्थात छोटा होता है लेकिन अपने संस्कारों से ही वह द्विज अर्थात दूसरा
जन्म धारण करता है। दूसरे जन्म से तात्पर्य वह वैश्य, क्षत्रिय या
ब्रह्मण बनता है या इनसे भी श्रेष्ठ वह ऋषि हो जाता है।
श्लोक : 'ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धाराय' (यर्जुवेद 38-14)
भावार्थ : हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण
करो।
व्याख्या : अर्थात मनुष्य अपने हित हेतु ही ब्राह्मण, क्षत्रिय या
वैश्य के वरण को धारण करता है।
श्लोक : उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं,
क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरू हैं और शुद्र पैर हैं। अर्थात चरण वंदन उस परम
पिता परमात्मा के पैरे को शुद्र माना गया है जिसकी हम वंदना करते हैं। (यर्जुवेद 31-11)
श्लोक : चातुर्वर्ण्य मया
सृष्टां गुणकर्मविभागशः।
भावार्थ : मैंने गुण, कर्म के भेद से
चारों वर्ण बनाए। महाभारत काल में वर्ण-व्यवस्था को गुण
और कर्म के अनुसार परिभाषित किया गया है। चारों वर्णों के कर्तव्य अनेक स्थलों पर
बतलाए गए हैं। सारे वर्ण अपने-अपने वर्णानुसार कर्म करने में तत्पर रहते थे और इस प्रकार
आचरण करने से धर्म का ह्रास नहीं होता था।- महाभारत आदि पर्व 64/8/24-34)
मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम्
क्षत्रियाणं तु वीर्यतः।' अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की
बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता
होने के कारण ब्रह्म-विद्या का
अधिकारी समझा गया।
अतः जाति-व्यवस्था की
संकीर्णता छोड़ दें। गुण, कर्म और स्वभाव
के अनुसार ही वर्ण का निर्णय होना होता है, जिसे जाति मान लिया गया है। वर्ण का अर्थ
समाज या जाति से नहीं वर्ण का अर्थ स्वभाव और रंग से माना जाता रहा है।
स्मृति के काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण व्यवस्था को व्यवस्थित किया
गया था। जो जैसा कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, जैसा की उसके
स्वभाव में है तब उसे उक्त वर्ण में शामिल समझा जाए। आज इस व्यवस्था को जाति
व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था समझा जाता है।
कुछ व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी स्वयं को ऊँचा या ऊँची जाति
का और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं। बाद में
इस समझ को क्रमश: बढ़ावा मिला मुगल
काल, अंग्रेज काल और फिर भारत की
आजादी के बाद भारतीय राजनीति के काल में जो अब विराट रूप ले चुका है।
धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता और मंत्रों तथा
सूत्रों की मनमानी व्याख्या करता रहता है।
जाति तोड़ों समाज जोड़ों- हमारे यहाँ
अनेकों जाति की अब तो अनेक उपजातियाँ तक बन गई है। तथाकथित ब्राह्मण समाज में ही
दो हजार आंतरिक भेद माने गए हैं। केवल सारस्वत ब्राह्मणों की ही 469 के लगभग शाखाएँ
हैं। क्षत्रियों की 990 और वैश्यों तथा क्षुद्रों की तो इससे भी अधिक उपजातियाँ है।
अपने-अपने इस संकुचित दायरे के
भीतर ही विवाह होते रहते हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि भारत की सांस्कृतिक एकता टूट गई। जब
कोई एकता टूटती है तभी उसको जोड़ने के प्रयास भी होते हैं।
हिन्दू आम
तौर पर एकेश्वरवादी नहीं होते। वह ईश्वर को छोड़कर तरह-तरह के देवी, देवता, नाग, झाड़, पितर और गुरुओं की पूजा करते
रहते हैं, जबकि वेद स्पष्ट तौर पर इसके
खिलाफ हैं। वेद की कई ऋचाओं में एकेश्वरवाद की घोषणा की गई है। वेद के अंतिम भाग
को वेदांत और उपनिषद् कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण, भगवद गीता आदि सभी में
एकेश्वरवाद की घोषणा की गई है।
जिन्होंने
वेद पढ़े हैं वे जानते हैं कि प्रकृति, सांसारिक वस्तुएं, मानव और
स्वयं को पूजना कितना बड़ा पाप है। पापी हैं वे लोग जो खुद को पूजवाते हैं। ऐसे
संत, ऐसे गुरु और ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना ही धर्म सम्मत आचरण
है। यहां प्रस्तुत है कुछ श्लोक जिससे इस बात का पता चले कि हिन्दू धर्म भी
एकेश्वरवादी धर्म है।
ईश्वर न तो
भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या
उसकी अन्य कोई शक्ति। ईश्वर एक ही है अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने
जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी
ईश्वर नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी ईश्वर नहीं
है।
उपनिषद्
अनुसार :
एकम
अद्वितीयम अर्थात वह सिर्फ एक ही है बगैर किसी दूसरे के। एकम् एवाद्वितियम अर्थात
वह केवल एक ही है। नाकस्या कस्किज जनिता न काधिप अर्थात उसका न कोई मां-बाप है न
ही भगवान।
न तस्य
प्रतिमा अस्ति अर्थात उसकी कोई मूर्ति (पिक्चर, फोटो, छवि, मूर्ति
आदि) नहीं हो सकती। न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम
अर्थात उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आंखों से
देखा नहीं जा सकता।- छांदोग्य और श्वेताश्वेतारा उपनिषद।
'उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है
जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो
मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व
सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने
कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध
प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8- 1।।-तैत्तिरीयोपनिषद
''जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु
जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही
ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं वह
ईश्वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों के द्वारा कोई सुन नहीं सकता, किंतु
जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु
कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर
नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राण शक्ति प्रेरणा
प्राप्त करता है उसे तू ईश्वर जान। प्राणशक्ति से चेष्ठावान हुए जिन तत्वों की
उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है।।।4,5,6,7,8।।-केनोपनिषद।
भगवद गीता
अनुसार :
.....जो सांसारिक इच्छाओं के अधिन
हैं उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए है। वह जो मुझे
जानते हैं कि मैं ही हूं, जो अजन्मा हूं, मैं ही हूं
जिसकी कोई शुरुआत नहीं, और सारे जहां का मालिक हूं।-
भगवद गीता
भगवान
कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और
अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही
मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और
अजन्मा है, परंतु मनुष्य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत
क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति
और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति
ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।
व्याख्या
: अर्थात भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य उस परमात्मा को
अजन्मा और अनादि अर्थात जिसने कभी जन्म नहीं लिया और न ही जिसका कोई प्रारम्भ है
तो अंत भी नहीं, तब वह निराकार है ऐसा जानने
वाले तत्वज्ञ मनुष्य ही ज्ञानवान है। ऐसा जानने या मानने से ही सब पापों से मुक्ति
मिल जाती है। परंतु मनुष्य, जीव-जंतु और दिखाई देने वाला
यह समस्त जड़-जगत ईश्वर नहीं है, लेकिन यह सब ईश्वर के प्रभाव
से ही जन्मते और मर जाते हैं। इनमें जो भी बुद्धि, भावनाएं, इच्छाएं और
संवेदनाएं होती है वह सब ईश्वर की इच्छा से ही होती है।
वेद के
अनुसार :
यजुर्वेद
में ईश्वर के बारे में लिखा है। न तस्य प्रतिमा अस्ति अर्थात उसकी कोई छवि नहीं हो
सकती। इसी श्लोक में आगे लिखा है- वही है जिसे किसी ने पैदा नहीं किया, और वही
पूजा के लायक है। वह शरीर-विहीन है और शुद्ध है।- यजुर्वेद, अध्याय 32-40, श्लोक 3-8-9।
अन्धात्मा
प्रविशन्ति ये अस्संभुती मुपस्ते अर्थात वे अन्धकार में हैं और पापी हैं, जो
प्राकृतिक वस्तुओं को पूजते हैं जैसे प्राकृतिक वस्तुएं-सूरज, चांद, जमीन, पेड़, जानवर आदि।
आगे लिखा है- वे और भी ज्यादा गुनाहगार हैं और अन्धकार
में हैं जिन्होंने सांसारिक वस्तुओं को पूजा जैसे टेबल, मेज, तराशा हुआ
पत्थर आदि। देव महा ओसी अर्थात ईश्वर सबसे बड़ा, महान है।- अथर्ववेद,भाग- 20, अध्याय-58 श्लोक-3...
एकम् सत्
विप्र बहुधा वदन्ति अर्थात विप्र लोग मुझे कई नाम से बुलाते हैं।- ऋग्वेद
मा
चिदंयाद्वी शंसता अर्थात किसी की भी पूजा मत करो सिवाह उसके, वही सत्य
है और उसकी पूजा एकांत में करो। वही महान है जिसे सृष्टिकर्ता का गौरव प्राप्त है।
या एका इत्तामुश्तुही अर्थात उसी की पूजा करो, क्योंकि उस जैसा कोई नहीं और
वह अकेला है।- ऋग्वेद
एकम्
ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते
किंचन अर्थात ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं हैं, नहीं है, नहीं है, जरा भी
नहीं है।
पूरे विश्व में यह वाक्य प्रचलित है, 'नाम में क्या रखा
है।' सही भी है कि नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ भी हो सकता
है, लेकिन उपनाम में सचमुच में ही कुछ न कुछ है तभी तो
भाषाविदों के नेतृत्व में ब्रिटेन के ब्रिस्टल स्थित पश्चिमी इंग्लैंड
यूनिवर्सिटी ( उपनामों पर शोध के लिए लाखों
पॉउंड खर्च कर रही है।
उपनामों पर शोध करके उनके पीछे के इतिहास को सार्वजनिक किया जाएगा और यह भी की
उपनामों के इस डाटा को सर्चेबल सॉफ्टवेयर में डालकर सुरक्षित रखा जाएगा। उपनाम को
अंग्रेजी में सरनेम (surname) कहा जाता है।
अब जब हम ब्रिटिश नागरिक की बात करते हैं जो उनमें वे भारतीय भी शामिल होते
हैं जिनके पूर्वज कई वर्षों पूर्व ही ब्रिटेन में जाकर बस गए थे और जिनकी पीढ़ियाँ
अब पूरी तरह से ब्रिटिश हैं। इन भारतीय ब्रिटिश नागरिकों के उपनामों पर भी शोध
होगा, जिनमें शामिल है पटेल, सिंह, अहमद और स्मिथ।
भारत में तो उपनामों का समंदर है। अनगिनत उपनाम जिन्हें लिखते-लिखते शायद सुबह से शाम हो जाए। यदि उपनामों पर शोध करने
लगे तो कई ऐसे उपनाम है जो हिंदू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं।
दरअसल भारतीय उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है यह ऋषिओं के नाम के आधार पर
निर्मित हुए हैं। ऋषि-मुनियों के ही
नाम 'गोत्र' भी बन गए।
कालान्तर में जैसे-जैसे राजा-महापुरुष बढ़े
उपनाम भी बढ़ते गए। कहीं-कहीं स्थानों के
नाम पर उपनाम देखने को मिलते हैं। हालाँकि सारे भारतीय एक ही कुनबे के हैं, लेकिन समय सब कुछ
बदलकर रख देता है।
भारत में यदि उपनाम के आधार पर किसी का इतिहास जानने जाएँगे तो हो सकता है कि
कोई मुसलमान या दलित हिंदुओं के क्षत्रिय समाज से संबंध रखता हो या वह ब्राह्मणों
के कुनबे का हो। लेकिन धार्मिक इतिहास के जानकारों की मानें तो सभी भारतीय किसी
ऋषि,
मुनि या मनु की संतानें हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, वर्ण या रंग का हो।
वंश बनी जाति : वैदिक काल में तो
कोई उपनाम नहीं होते थे। स्मृति काल में वंश पर आधारित उपनाम रखे जाने लगे, जैसे पूर्व में
दो ही वंश थे- सूर्यवंश और चंद्रवंश। उक्त
दोनों वंशों के ही अनेकों उपवंश होते गए। यदुवंश और नागवंश दोनों चंद्रवंश के
अंतर्गत माने जाते हैं। अग्निवंश, इक्ष्वाकु वंश सूर्यवंश के अंतर्गत हैं। सूर्यवंशी प्रतापी
राजा इक्ष्वाकु से इक्ष्वाकु वंश चला। इसी इक्ष्वाकु कुल में राजा रघु हुए जिसने
रघुवंश चला।
उक्त दोनों वंशों से ही क्षत्रियों, दलितों, ब्राह्मणों और वैश्यों के अनेकों उपवंशों
का निर्माण होता गया। माना जाता है कि सप्त ऋषि के नामों के आधार पर ही भारत के
चारों वर्णों के लोगों के गोत्र माने जाते हैं। गोत्रों के आधार पर भी वंशों का
विकास हुआ। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख सभी किस न किसी भारतीय वंश से ही संबंध रखते
हैं। यदि जातियों की बाद करें तो लगभग सभी द्रविड़ जाति के हैं। शोध बताते हैं कि
आर्य कोई जाति नहीं होती थी।
बदलते उपनाम : कई ऐसे उपनाम है
जो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा प्रांत या धर्म बदलने के साथ बदल गए हैं। जैसे
कश्मीर के भट्ट और धर जब इस्लाम में दीक्षित हो गए तो वे अब बट या बट्ट और डार
कहलाने लगे हैं। दूसरी और चौहान, यादव और परमार उपनाम तो आप सभी ने सुना होगा। जब ये उत्तर
भारतीय लोग महाराष्ट्र में जाकर बस गए तो वहाँ अब चव्हाण, जाधव और पवांर
कहलाते हैं। पांडे, पांडेय और पंडिया यह तीनों उपनाम ब्राह्मणों में लगते हैं।
अलग-अलग प्रांत के कारण इनका
उच्चारण भी अलग हो चला।
कामन उपनाम : नाम की तरह बहुत
से ऐसे उपनाम है जो सभी धर्म के लोगों में एक जैसे पाए जाते हैं जैसे पटेल, शाह, राठौर, राणा, सिंह, शर्मा, स्मिथ आदि। चौहान
और ठाकुर उपनाम कुछ भारतीय ईसाई और मुसलमानों में भी पाया जाता है। बोहरा या वोहरा
नाम का एक मुस्लिम समाज है और हिंदुओं में बोहरा उपनाम का प्रयोग भी होता है।
दाऊदी बोहरा समाज के सभी लोग भारतीय गुजराती समाज से हैं।
स्थानों पर आधारित उपनाम : जैसे कच्छ के
रहने वाले क्षत्रिय जब कच्छ से निकलकर बाहर किसी ओर स्थान पर बस गए तो उन्हें
कछावत कहा जाता था। बाद में यही कछावत बिगड़कर कुशवाह हो गया। अब कुशवाह उपनाम
दलितों में भी लगाया जाता है और क्षत्रियों में भी। महाराष्ट्र में स्थानों पर
आधारित अनेकों उपनाम मिल जाएँगे जैसे जलगाँवकर, चिपलुनकर, राशिनकर, मेहकरकर आदि। दूसरे प्रांतों में भी स्थान
पर आधारित उपनाम पाए जाते हैं, जैसे मांडोरिया, देवलिया, आलोटी, मालवी, मालवीय, मेवाड़ी, मेतवाड़ा, बिहारी, आदि।
पदवी बने उपनाम, उपनाम बने जाति : राव, रावल, महारावल, राणा, राजराणा और
महाराणा यह भी उपाधियाँ हुआ करती थी राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में। अन्य भी कई
पदवियाँ है जैसे शास्त्र पढ़ने वालों को शास्त्री, सभी शास्त्रों के शिक्षक को आचार्य, दो वेदों के
ज्ञाता को द्विवेदी, चार के ज्ञाता चतुर्वेदी कहलाते थे। उपाध्याय, महामहोपाध्याय
उपाधियाँ भी वेदों के अध्यन या अध्याय पर आधारित होती थी। अंग्रेजों के काल में
बहुत सी उपाधियाँ निर्मित हुई, जैसे मांडलिक, जमींदार, मुखिया, राय, रायबहादुर, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, पटेल इत्यादि।
'ठाकुर' शब्द से कौन परिचित नहीं है। सभी जानते
हैं कि ठाकुर तो क्षत्रियों में ही लगाया जाता है, लेकिन आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि यह
ब्राह्मणों में भी लगता है। ठाकुर भी पहले कोई उपनाम नहीं होता था यह एक पदवी होती
थी। लेकिन यह रुतबेदार वाली पदवी बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुई। खान, राय, राव, रावल, राणा, राजराणा और
महाराणा यह भी उपाधियाँ या पदवी हुआ करती थी।
व्यापार पर आधारित उपनाम : भारत के सभी
प्रांतों में रहने वाले सभी धर्म के कुछ लोगों का व्यापार पर आधारित उपनाम भी पाया
जाता है। जैसे भारत में सोनी उपनाम बहुत प्रसिद्ध है जो सोने या सुनार का बिगड़ा
रूप है। कालांतर में ये लोग सोने का धंधा करते थे तो इन्हें सुनार भी कहा जाता था।
ज्यादातर लोग अब भी यही धंधा करते हैं। लुहार उपनाम से सभी परिचित हैं। गुजरात में
लोहेवाला, जरीवाला आदि प्रसिद्ध है। लकड़ी का सामान बनाने वाले सुतार या सुथार उपनाम का
प्रयोग करते हैं। ऐसे अनगिनत उपनाम है जो किसी न किसी व्यवसाय पर आधारित है।
भारत के प्रसिद्ध उपनाम : सिंह, ठाकुर, शर्मा, तिवारी, मिश्रा, खान, पठान, कुरैशी, शेख, स्मिथ, वर्गीस, जोशी, सिसोदिया, वाजपेयी, गाँधी, राठौर, पाटिल, पटेल, झाला, गुप्ता, अग्रवाल, जैन, शाह, चौहान, परमार, विजयवर्गीय, राजपूत, मेंडल, यादव, कर्णिक, गौड़, राय, दीक्षित, भट्टाचार्य, बनर्जी, चटर्जी, उपाध्याय, डिसूजा, अंसारी, कुशवाह, पोरवाल, भोंसले, सोलंकी, देशमुख, आपटे, प्रधान, जादौन, जायसवाल, गौतम, भटनागर, श्रीवास्तव, निगम, सक्सेना, चौपड़ा, कपूर, कुलकर्णी, चिटनीस, वाघेला, सिंघल, पिल्लई, स्वामी, नायर, सिंघम, गोस्वामी, रेड्डी, नायडू, दास, कश्यप, पुराणिक, दासगुप्ता, सेन, वर्मा, चौधरी, कोहली, दुबे, चावला, पांडे, महाजन, बोहरा, काटजू, आहूजा, नागर, भाटिया, चतुर्वेदी, चड्डा, गिल, सहगल, टुटेजा, माखिजा, नागौरी, जैदी, टेगोर, भारद्वाज, महार, कहार, सुर्यवंशी, शेखावत, राणा, कुमार, धनगर, डांगे, डांगी, अहमद, सुतार, विश्वकर्मा, पाठक, नाथ, पंडित, आर्य, खन्ना, माहेश्वरी, साहू, झा, मजूमदार आदि।
शर्मा और मिश्रा : शर्मा ब्राह्मणों
का एक उपनाम है। दक्षिण भारत और असम में यह सरमा है। वक्त बहुत कुछ बदल देता है, लेकिन उपनाम
व्यक्ति बदल नहीं पाता, इसीलिए बहुत से भारतीय ईसाइयों में शर्मा लगता है। जम्मू-कश्मीर के कुछ मुस्लिम भी शर्मा लगाते हैं। कुछ जैन और
बौद्धों में भी शर्मा लगाया जाता है। वर्तमान में भारत में शर्मा उपनाम और भी
कई अन्य समाज के लोग लगाने लगे हैं। शर्मा उत्तर और पूर्वात्तर भारतीय लोग हैं
जिनकी बसाहट उत्तर-पश्चिम भारत से
नेपाल तक रही है।
मिश्र या मिश्रा दोनों एक ही है। यह मिश्रित शब्द से बना है। मिश्र, मिश्रन, मिश्रा, मिश्री आदि। इस
शब्द का प्रभाव भारत सहित विश्व के कई अन्य भागों पर भी रहा है। मूलत: यह उत्तर भारतीय ब्राह्मण होते हैं जो अब भारत के उड़ीसा और
विदेश में गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो और मॉरिशस
में भी बहुतायत में पाए जाते हैं। इजिप्ट को मिस्र भी कहा जाता है। मिस्र के विश्व
प्रसिद्द पिरामिडों को कौन नहीं जानता।
खान और पठान : चंगेज खाँ या खान
का नाम आपने सुना ही होगा। वह मंगोलियाई योद्धा था उसके बाद ही खान शब्द का उपयोग
भारत में किया जाने लगा। मान्यता यह भी है कि मध्य एशिया में मुलत: यह 'हान' हुआ करता था
किंतु यह शब्द बिगड़कर खान हो गया।
वैसे तो खान उपनाम तुर्क से आया है जिसका अर्थ शासक, मुखिया या ठाकुर
होता है। यह एक छोटे क्षेत्र का मुखिया होता है। भारत में मुगल काल में 100 भारतीय मुसलमानों
या मुस्लिम परिवारों पर एक 'खान' नियुक्त किया जाता था। जब इन नियुक्त किए गए लोगों की तादात
बढ़ती गई तो धीरे-धीरे जिसके जो भी
उपनाम रहे हों, वह तो छूट गए अब
खान ही उपनाम हो गया।
क्या संस्कृत के पठन-पाठन से ही पठान
शब्द की उत्पत्ति हुई है, यह अभी शोध का
विषय है। हालाँकि माना जाता है कि पख्तून का अप्रभंश है पठान। यह भी कि पख्तून
जनजाति के कबिलों के समूह में से पठानों का समूह भी एक समूह था। आजकल पख्तूनों की
पश्तून भाषा अफगानिस्तान के पख्तून और पाकिस्तान के बलूच इलाके में बोली जाती है।
एक शहर का नाम है पठानकोट जो भारतीय पंजाब में है। वक्त बदला तो सब कछ बदल गया और
अब यह कहना कि सभी पठान या तो अफगान के हैं या पंजाब के, यह कहना गलत होगा
क्योंकि बहुत से भारतीयों ने तो इस्लाम ग्रहण करने के बाद पठान उपनाम लगाना शुरू
कर दिया था।
सिंह इज किंग : सिंह, सिंग, सिंघ, सिंघम, सिंघल, या सिन्हा सभी
शब्द का उपयोग हिंदू तथा सिक्खों में किया है। मूलत:
सिंह शब्द के ही बाकी सभी शब्द बिगड़े हुए रूप है। सिंह को नाम या उपनामों की
श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन बहुत से लोग इसका उपनाम के रूप में प्रयोग करते हैं।
हालाँकि इस शब्द का इस्तेमाल क्षत्रियों के अलावा भी अन्य कई समाज के लोग करते हैं, क्योंकि यह शब्द
उसी तरह है जिस तरह की कोई अपने नाम के बाद 'कुमार' या 'लाला' लगा ले। बब्बर शेर को सिंह कहा जाता है।
अब तो सिंह इज किंग है।
भारत में नामों का बहुत होचपोच मामला है। बहुत से गोत्र तो उपनाम बने बैठे हैं
और बहुत से उपनामों को गोत्र माना जाता है। अब जैसे 'भारद्वाज' नाम भी है, उपनाम भी है और
गोत्र भी। जहाँ तक सवाल गोत्र का है तो भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों
चारों में लगता है। जिस किसी का भी भारद्वाज गोत्र है तो यह माना जाता है कि वह
सभी ऋषि भारद्वाज की संतानें हैं। अब आप ही सोचें उनकी संतानें चारों वर्ण से हैं।
अब आप ही सोचिए यदि विदेशी शोधकर्ता भारतीय उपनामों के इतिहास या उनकी
उत्पत्ति के बारे में शोध करेंगे तो गच्चा खा जाएँगे। उन्हें यहाँ ज्यादा मेहनत और
पैसा खर्च करना पड़ेगा। हालाँकि यह कार्य मजेदार है और इससे हकीकत निकलकर सामने
आएगी।
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