हिन्दू धर्म : हिंदू शब्द की उत्पत्ति का रहस्य
हिन्दू धर्म का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह परम्परा वेदकाल से पूर्व की मानी जाती है, क्योंकि
वैदिककाल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। सदियों से वाचिक परंपरा चली आ रही है फिर इसे लिपिबद्ध करने का काल भी बहुत लंबा रहा है।
जब हम इतिहास की बात करते हैं तो वेदों की
रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह
धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित
किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जिसे वेदत्रयी कहा
जाता था। मान्यता अनुसार वेद का विभाजन राम के जन्म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय
में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया।
दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि
कृष्ण के समय में वेद व्यास ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था। इस मान
से लिखित रूप में आज से 6508
वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5300 वर्ष पूर्व होने के तथ्य ढूँढ लिए गए हैं।
हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व
आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू. मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी
धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म दो हजार ई.पू., बौद्ध धर्म पाँच सौ ई.पू., ईसाई धर्म सिर्फ दो हजार
वर्ष पूर्व, इस्लाम धर्म आज से 14 सौ
वर्ष पूर्व हुआ।
काव्यमय इतिहास
दरअसल हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा
बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रृंगारिक होता गया
जिसे आज का आधुनिक मन इतिहास मानने को तैयार नहीं है।
लेकिन धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म
की कुछ और धारणाएँ हैं। मान्यता यह भी है कि 90 हजार वर्ष पूर्व इसकी
शुरुआत हुई थी। रामायण, महाभारत और पुराणों में सूर्य और
चंद्रवंशी राजाओं की वंश परम्परा का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा भी अनेक वंश की
उत्पति और परम्परा का वर्णन है। उक्त सभी को इतिहास सम्मत क्रमबद्ध लिखना बहुत ही
कठिन कार्य है, क्योंकि पुराणों में उक्त इतिहास को अलग-अलग
तरह से व्यक्त किया गया है जिसके कारण इसके सूत्रों में बिखराव और भ्रम निर्मित
जान पड़ता है किंतु जानकारों के लिए यह भ्रम नहीं है।
दरअसल हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र
जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रृंगारिक होता
गया जिसे आज का आधुनिक मन इतिहास मानने को तैयार नहीं है। वह दौर ऐसा था जबकि कागज
और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों
पर और मन पर।
जब हम हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ते
हैं तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है
जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को
सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम
स्वायंभव मनु था और प्रथम स्त्री थी शतरूपा। महाभारत में आठ मनुओं का उल्लेख है।
इस वक्त धरती पर आठवें मनु वैवस्वत की ही संतानें हैं। आठवें मनु वैवस्वत के काल
में ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था।
पुराणों में हिंदू इतिहास की शुरुआत
सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है। ऐसा कहना कि यहाँ से शुरुआत हुई यह शायद
उचित न होगा फिर भी हिंदू इतिहास ग्रंथ महाभारत और पुराणों में मनु (प्रथम मानव)
से भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का उल्लेख मिलता है।
हिंदू धर्म के इस चैनल में हम आपको
बताएँगे कि आखिर में हिंदू धर्म का क्रमश: इतिहास क्या है। क्या है वैदिक प्रतीकों
और पौराणिक कथाओं का सच। क्या है सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय की धारणा के अलावा अब
तक हुए राजाओं और धर्म पुरुषों की गाथा।
हिन्दू धर्म को सनातन, वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू एक
अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता
था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त
सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर
एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती
है।
भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि
ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल
जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है।
इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में
परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को
हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी
कहा जाता है।
ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में
'हिन्दू' और 'आर्य'
शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि
चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति इंदु से हुई थी। इंदु
शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है।
अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या
'हिंदू' कहने लगे।
हिन्दू सनातन धर्म के धर्मग्रंथ वेद और
इतिहास ग्रंथ पुराण में उल्लेखित महत्वपूर्ण बातों के बारे में संक्षिप्त में
अंकों के माध्यम से बताए जा सकने वाले प्रमुख क्रम की जानकारी, जिसे जानकर हो सकता है छ: मुक्ति : 1) सार्ष्टि (ऐश्वर्य), (2) सालोक्य (लोक की प्राप्ती), (3) सारूप (ब्रह्म स्वरूप), (4) सामीप्य (ब्रह्म के पास), (5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता), (6) लीनता या सामुज्य (ब्रह्म में लीन हो जाना)। ब्रह्मलीन हो जाना ही पूर्ण मोक्ष है।
छ: शिक्षा : वेदांग, सांख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद।
छ: ऋतु : बसंत, ग्रीष्म, शरद, हेमंत और शिशिर।
सप्तऋषि : कष्यप, भारद्वाज, गौतम, अगस्त्य, वशिष्ट।
सात छंद : गायत्री, वृहत्ती, उष्ठिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति।
सात योग : ज्ञान, कर्म, भक्ति, ध्यान, राज, हठ, सहज।
सात भूत : भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल और क्षेत्रपाल।
सात वायु : प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, परिवह, परावह।
सात द्वीप : जम्बूद्वीप, पलक्ष द्वीप, कुश द्वीप, शालमाली द्वीप, क्रौंच द्वीप, शंकर द्वीप, पुष्कर द्वीप।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल।
सात लोक : भूर्लोक, भूवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक। सत्यलोक को ही ब्रह्मलोक कहते है।
सात समुद्र : क्षीरसागर, दुधीसागर, घृत सागर, पयान, मधु, मदिरा, लहू।
सात पर्वत : सुमेरु, कैलाश, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सपेल? माना जाता है कि गंधमादन भी है।
सप्त पुरी : अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका।
अष्ट विनायक : वक्रतुंड, एकदंत, मनोहर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विध्नराज, धूम्रवर्ण।
आठ भैरव : रुद्र, संहार, काल, असिति, क्रौध, भीषण, महा, खट्वांग।
आठ योगांग : यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधी।
आठ नदी : गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु, कावेरी, ब्रह्मपुत्र
आठ वसु : अहश, ध्रुव, सोम, धरा, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष। (यह रहने के आठ स्थान है तथा अग्नि के आठ
प्रकार भी। यह अदिति के आठ पुत्रों के नाम भी है)
आठ धातु : सोना, चांदी, लोहा, तांबा, शीशा, कांसा, रांगा, पीतल।
आठ प्रहर : दिन के चार और रात के चार मिलाकर आठ प्रहर होते हैं। यानि
एक पहर तीन घंटे का होता है। जैसे प्रात:काल, मध्यकाल, संध्याकाल, ब्रह्मकाल आदि।
नवधा भक्ति : श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चना, वंदना, मित्र, दाम्य, आत्मनिवेदन।
नौ विधि : पक्ष, महापक्ष, शंख, मकर, कश्यप, कुकंन, मुकन्द, नील, बार्च।
नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंद, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिरात्रि। ऐसा भी कह सकते हैं- काली, कात्यायानी, ईशानी, चामुंडा, मर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता तथा वैष्णवी।
दस दिशा :
(दस दिग्पाल), पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, वायव, नैऋत्य, आग्नेय और ईशान।
दस अवतारी पुरुष : मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशु, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की।
ब्रह्मा के दस मानस पुत्र :
(मन से उत्पन्न)
मरिचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्य, प्रचेता, भृगु, नारद एवं महातपस्वी वशिष्ट।
साधुओं के दस संप्रदाय:-
1.गिरि, 2.पर्वत, 3.सागर, 4.पुरी, 5.भारती, 6.सरस्वती, 7.वन, 8.अरण्य, 9.तीर्थ और 10.आश्रम।
दस महाविद्या : काली, तारादेवी, ललिता-त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंकि और कमला।
।ॐ।।पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते।।- ईश उपनिषद
बहुत से धर्म हैं, जो दो तरह की शक्तियों को मानते हैं-
ईश्वर और शैतान, नर और मादा, सकारात्मक
और नकारात्मक आदि। बहुत से धर्म मानते हैं कि सभी के मूल में एक ही है। हालांकि
हिन्दू धर्म शुद्ध रूप से अद्वैतवाद है फिर भी तीन शक्तियों का संसार में महत्व
रहा है। सूक्ष्म रूप से देखने पर यह एक, दो या तीन नहीं होते,
अद्वैत होते हैं लेकिन व्यावहारिक तौर पर तीन हैं।
संसार में आमतौर पर देखने पर तीन तरह की
शक्तियां नजर आती हैं। जैसे इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन। तीन शक्तियां- ब्रह्मा, विष्णु
और महेश। तीन काल- भूत, भविष्य और वर्तमान। तीन प्रकल्प-
प्रात:, मध्याह्न और संध्या। जीवन के तीन पड़ाव- बचपन,
जवानी और बुढ़ापा। जीवन की तीन यात्रा- जन्म, जीवन
और मृत्यु। तीन तरह की ऊर्जा- सकारात्मक, नकारात्मक और
मिश्रित आदि। इसी तरह संपूर्ण संसार में तीन का महत्व है। आओ जानते हैं कि क्या-
क्या है तीन।
* अ, ऊ और म- तीन अक्षर से मिलकर बना ॐ।
* त्रिभूज और पिरामिठ का महत्व सभी
जानते हैं।
* वेदत्रयी- ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद।
* मंत्रों के विभाग- पद्य, गद्य और गान।
* त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश।
* त्रिदेवी- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती।
* तीन भगवान- राम, कृष्ण और बुद्ध।
* तीन गुण- सत्वगुण,
रजोगुण और तमोगुण।
* तीन आराधना : पूजा-आरती,
कीर्तन और प्रार्थना।
* त्रियोग : आसन, प्राणायाम और ध्यान।
*तीन अक्षर- अ, उ और म= ॐ।
* तीन मंत्र- गायत्री, महामृत्युंजय और दुर्गा।
* तीन विद्या- मंत्र, तंत्र और यंत्र
* तीन प्रकार का जप : वाचिक,
उपांशु एवं मानसिक।
* तीन साधना : देव साधना, पितृ साधना और योग साधना।
* त्रैलोक्य- पाताल, धरती और आकाश। अर्थात भू, भुव और स्वर्ग।
* तीन तरह के भक्त : उत्तम, मध्यम और साधारण।
* आत्मा की तीन शक्तियां : मन, बुद्धि और संस्कार।
* तीन प्रकार के हठ : बाल हठ, स्त्री हठ और राज हठ।
* तीन प्रकार के विश्वासी लोग : विश्वासी, अविश्वासी, दुविधा।
* तीन प्रकार की बुद्धि : रबड़ बुद्धि, चमड़ा बुद्धि, तैलीय बुद्धि।
* तीन प्रकार के व्यक्ति : मूर्ख, सामर्थ्यहीन और बुद्धिहीन
* तीन तरह की बुद्धि : जड़-प्राण बुद्धि, मन-तर्क बुद्धि और ज्ञान-विवेक बुद्धि।
* तीन प्रकार की विद्या : लौकिक विद्या (संसार), योग विद्या (लोक-परलोक) और आत्मविद्या (आत्मा-परमात्मा)।
* तीन सृष्टियां : जीव सृष्टि, ईश्वरीय सृष्टि और ब्रह्म
सृष्टि। जीव सृष्टि क्षर पुरुष से है, ईश्वरीय सृष्टि अक्षर ब्रह्म से है तथा ब्रह्म सृष्टि
अक्षरातीत परब्रह्म से है। इन तीनों का धाम (निवास स्थान) भी क्रमशः अलग-अलग ही है।
* तीन प्रकार की भक्ति : अपोरा सिद्धा (दान-परोपकार), संग सिद्धा (सत्संग, सहयोग, तीर्थ, धर्म प्रचार), और स्वरूप सिद्धा ( नाम संकीर्तन, ध्यान, प्रार्थना)।
* तीन तरह की पूजा : सात्विक (राम, कृष्ण और दुर्गा आदि की), राजसिक (यक्ष, राक्षस आदि की) और तामसिक (भूत, जिन्न, पिशाच, पितृ आदि)
*तीन गुरु : दत्तात्रेय, हनुमान और माता-पिता।
*तीन देवता- कुल, ग्राम और स्थान।
*तीन देवियां- कुल, ग्राम और स्थान।
*तीन स्वर : मंद, मध्यम और उच्च।
*तीन रस : सोम रस, सूरा रस और मद्य रस।
*तीन ऋण : देव, ऋषि और पितृ।
*तीन प्रमुख कल्प : ब्रह्म, वराह और पद्य।
*तीन कर्म संग्रह : कर्ता, करण और क्रिया।
*तीन कर्म प्रेरणा : ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय।
*त्रिदोष : वात, पित्त, कफ।
*तीन उपस्तभ्य : आहार, स्वप्न और ब्रह्मचर्य
*त्रिबंध : जालंधर, मूल और उड्डीयान।
* भोजन के तीन प्रकार : सात्विक, राजसी और तामसी।
*तीन प्रकार के कर्म : संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमण
कर्म।
*त्रिविध ताप : आधिभौतिक (सांसारिक), आधिदैविक (देवी), एवं आध्यात्मिक (कर्म)।
* तीन प्रकार की जीवन शैली : 1. पदार्थापेक्ष जीवनशैली, 2. आत्मापेक्ष जीवनशैली और 3. उभयापेक्ष जीवनशैली।
*तीन वृक्ष: बड़, पीपल और नीम।
*तीन तीर्थ : देव तीर्थ, ऋषि तीर्थ और पितृ तीर्थ- कैलाश, प्रयाग और गया, पहाड़, नदी और समुद्र।
तीन त्योहार : कुंभ, मकर संक्रांति और
कृष्णजन्माष्टमी।
*तीन योग : ज्ञान, कर्म और भक्ति।
*तीन भक्त : हनुमान, प्रहलाद और एकलव्य।
*तीन प्रकार के भक्त : .........................।
*तीन प्रकार के सिद्ध :..................।
*तीन मंगल स्वर : घंटी, शंख, बांसुरी।
*तीन मंगल प्रतीक : ॐ, स्वस्तिक और रंगोली।
*तीन मंगल स्थापना : कलश, दीपक और विग्रह।
*तीन पवित्र सूत्र : मंगलसूत्र, रक्षा सूत्र और संकल्प सूत्र
*त्रिफला : आंवला, बहेड़ा और हरड़ मिलकार बनता
स्वास्थ्यवर्धक त्रिफला।
*त्रिकालदर्शी : भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता।
*त्रिकाल संध्या पूजन : प्रात:काल संध्या पूजन, मध्याह्न संध्या पूजन और सायं
संध्या पूजन।
*तीन प्रकार के ग्रहण : सूर्य ग्रहण, चंद्रग्रहण और पाणिग्रहण।
* तीन तरह के विचार : भाव विचार, कर्म विचार और बुद्धि विचार।
उक्त तीन के बारे में थोड़ी
भी जानकारी आपके जीवन को बदलने की क्षमता रखती है।
वेद ही है एकमात्र धर्मग्रंथ : सबसे पहले ऋग्वेद की उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद ही हजारों वर्षों तक
हिन्दुओं का धर्मग्रंथ बना रहा और आज भी है। ऋग्वेद से ही फिर यजुर्वेद, सामवेद की उत्पत्ति हुई। इस तरह ये तीन वेद ही
पहले विद्यमान थे जिसे वेदत्रयी कहा जाता था। सबसे बाद में ऋग्वेद के कुछ श्लोकों
को निकालकर और अनुभव पर आधारित कुछ श्लोकों को जोड़कर अथर्ववेद की रचना हुई।
उल्लेखनीय है कि पारसियों का धर्मग्रंथ भी ऋग्वेद
पर आधारित है। दुनिया के सारे धर्मग्रंथ वेद पर आधारित ही हैं। अलग-अलग सिद्धपुरुषों
ने अपने-अपने क्षेत्र में वेद की वाणी का अपनी-अपनी भाषा में प्रचार-प्रसार किया।
इसके ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं।
वेद हैं श्रुति ग्रंथ : वेदों को श्रुति कहा जाता है। श्रुति अर्थात
जिसे ईश्वर से सुनकर लिखा गया। ठीक उसी तरह जिस तरह हज. मुहम्मद ने कुरआन को सुना
था। श्रुति ग्रंथों में वेदों के अलावा संहिता, ब्राह्मण-ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद
आते हैं। श्रुति ग्रंथों को छोड़कर सभी ग्रंथ स्मृति के अंतर्गत माने गए हैं।
गीता है वेदों का निचोड़ : वेद तो एक ही है, लेकिन उसके चार भाग हैं- ऋग, यजु, साम और अथर्व। वेद के सार या निचोड़ को वेदांत व अरण्यक कहा जाता है और
उसके भी सार को 'ब्रह्मसूत्र' कहते
हैं। वेदांत को उपनिषद भी कहते हैं। वेदांत अर्थात वेदों का अंतिम भाग या दर्शन।
वेद के कुछ श्लोकों का अध्ययन जंगल में ही
किया जाता था इसीलिए उसे अरण्यक ग्रंथ कहते हैं। दोनों का सार गीता है। गीता में
वेद के संपूर्ण इतिहास, दर्शन
और धर्म को संक्षिप्त में भगवान कृष्ण ने समझाया।
स्मृति ग्रंथ : वेद और उपनिषद के बाद नंबर आता है स्मृति
ग्रंथों का। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है- 'याद किया हुआ'। इसके अंतर्गत रामायण, महाभारत, 18 पुराण, गीता,
मनुस्मृति, 31 सूत्रग्रंथ, धर्मसूत्र, योगसूत्र, धर्मशास्त्र,
आगम ग्रंथ आदि ग्रंथ आते हैं उनमें भी वेदों के बाद सबसे पहले मनु
स्मृति, आपस्तम्ब स्मृति, दक्ष स्मृति,
पराशर स्मृति, विश्वामित्र स्मृति, व्यास स्मृति, लघुविष्णु स्मृति, शंख स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, वैवस्वत
मनु स्मृति, बृहस्पति स्मृति, बृहत्पराशर
स्मृति और शंख स्मृति आदि।
इतिहास ग्रंथ : 18 पुराण, रामायण और महाभारत को इतिहास ग्रंथों में
शामिल किया गया है। ये इतिहास ग्रंथ हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं हैं, लेकिन अक्सर पुराण को हिन्दुओं का धर्मग्रंथ माना जाता था। वेदव्यास ने तो
4 ही पुराण लिखे थे लेकिन उसके बाद में कई पुराणों की रचना
होने लगी। उनमें से कुछ पुराण बौद्धकाल में और कुछ मध्यकाल में लिखे गए जिनका धर्म
से कोई संबंध नहीं।
विश्व के प्रथम धर्मग्रंथ : वेद की वाणी को ईश्वर की वाणी कहा जाता है। वेद संसार के
सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है। 'श्रु' धातु
से 'श्रुति' शब्द बना है। 'श्रु' यानी सुनना। कहते हैं कि इसके मंत्रों को
ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था, जब वे गहरी तपस्या में लीन थे।
सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को वेद ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। ये चार ऋषि ही हिन्दुओं के
सर्वप्रथम ईशदूत हैं।
प्रथम ईशदूत:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।
मध्य में : स्वायम्भु, स्वरोचिष, औत्तमी, तामस मनु,
रैवत, चाक्षुष।
वर्तमान ईशदूत:- वैवश्वत मनु।
ऋषि-मुनि भी हैं ईशदूत : अग्नि, आयु, अंगिरा और आदित्य के ज्ञान को जिन्होंने संभाला
उन ऋषियों को हिन्दु धर्म में सबसे महान माना जाता है। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414
ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम
महिला ऋषियों के हैं। इस तरह वेद सुनने और वेद संभालने वाले ऋषि और मनु ही
हिन्दुओं के ईशदूत हैं।
वैवस्वत मनु मूल रूप से हिन्दुओं के कलिकाल के ईशदूत हैं। जलप्रलय
के बाद उन्होंने ही वेद की वाणी को बचाकर उसको पुन: स्थापित किया था।
गीता में अवतारी श्रीकृष्ण के माध्यम से ईश्वर कथन:- मैंने इस अविनाशी ज्ञान को सूर्य (आदित्य) से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा
इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग ज्ञान को राजर्षियों ने
जाना, किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में
लुप्तप्राय हो गया।
कृष्ण के इस वचन से यह सिद्ध हुआ कि ईश्वर ने कृष्ण के माध्यम से
ईश्वर ने वेद की वाणी को पुन: स्थापित किया अत: भगवान कृष्ण ही हैं हिन्दुओं के अंतिम
ईशदूत।
ईशदूत को छोड़
अन्य की ओर भागने वाले हिन्दू...हिन्दुओं
के भटकाव के कारण :
पहला कारण : यह सही नहीं है कि सभी हिन्दू भटके हुए हैं।
पुराणों और ज्योतिष ग्रंथों पर आधारित अपना जीवन जीने वाला हिन्दू पूर्णत: भटका
हुआ और भ्रमित है। हजारों देवी-देवताओं, पितरों, यक्षों, पिशाचों
आदि को पूजने वाला हिन्दू राक्षस धर्म का पालन करने वाला माना गया है।
पुराणों और पुराणकारों के कारण वेदों
का ज्ञान खो गया। वेदों के ज्ञान के खोने से वेद के संदेशवाहक भी खो गए। तथाकथित
विद्वान लोग वेदों की मनमानी व्याख्याएं करने लगे और पुराण ही मुख्य धर्मग्रंथ बन
गए।
दूसरा कारण : जैन और बौद्ध काल के उत्थान के दौर में जैन और बौद्धों की तरह हिन्दुओं
ने भी देवताओं की मूर्तियां स्थापित कर उनकी पूजा-पाठ और आरतियां शुरू कर दीं।
नए-नए पुराण लिखे गए। सभी लोग वैदिक प्रार्थना, यज्ञ और ध्यान को छोड़कर पूजा-पाठ और आरती जैसे कर्मकांड करने लगे। उसी
काल में ज्योतिष विद्या को भी मान्यता मिलने लगी थी जिसके कारण वैदिक धर्म का
ज्ञान पूर्णत: लुप्त हो गया।
तीसरा कारण : एक हजार वर्ष की मुस्लिम और ईसाई गुलामी ने हिन्दुओं को खूब
भरमाया और उनके धर्मग्रंथ, धर्मस्थल, धार्मिक रस्म, सामाजिक एकता आदि को नष्ट कर
उन्हें उनके गौरवशाली इतिहास से काट दिया।
धर्मांतरण के लिए
इस एक हजार साल की गुलामी ने हिन्दुओं को पूरी तरह से जातियों और कुरीतियों में
बांटकर उसे एक कबीले का धार्मिक समूह बनाकर छोड़ दिया, जो पूरी तरह आज वेद विरुद्ध है। यही कारण
रहा कि धर्मांतरण तेजी से होने लगा।
महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने जो शिक्षाएं दीं,
स्वयं भी उनका पालन किया। दयानंद जी के जीवन का अनुसरण करके जीवन को
उन्नति के सोपान पर ले जा सकते हैं। महर्षि दयानंद चारों वेदों के ज्ञाता तो थे ही,
वेदांग और शास्त्रों के भी प्रकांड विद्वान थे। आयुर्वेद में बताए
गए जीवन-सूत्रों का उन्होंने स्वयं पालन किया। भोर में उठ जाना, जल पीना, शौच जाना, घूमना,
आसन, प्राणायाम, ध्यान
करना, फिर स्वाध्याय और सात बजे तक नाश्ता लेकर जनहित के
कायरें में लग जाना..। यही थी उनकी दिनचर्या। वे दिन भर कठिन मेहनत करते, यहां तक कि भोजन की चिंता तक उन्हें नहीं रहती। वे शाकाहार ही करते। उनका
कहना था कि शाकाहार में अपरिमित शक्ति है।
महर्षि की दिनचर्या देखकर लोगों को हैरानी होती थी,
क्योंकि वे हमेशा कार्यो में व्यस्त रहते थे। एक घटना है। महर्षि
दयानंद के पास एक व्यक्ति आया और बोला-स्वामी जी, मैं क्या
करूं, जिससे सुखी हो जाऊं। दयानंद कुछ पल रुककर बोले,
हर कार्य को मन लगाकर पूरी शक्ति से करो, तो
निश्चित ही सुखी हो जाओगे। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया और सुखी हो गया। एक श्रेष्ठ
इंसान की जिंदगी कैसी होनी चाहिए, महर्षि उसके प्रतीक थे।
महर्षि कहते थे कि इंसान तभी समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह
कर सकता है, जब उसका शरीर पूर्णत: स्वस्थ हो। शरीर से कमजोर
व्यक्ति का मन भी उसके काबू में नहीं होता, तो वह परोपकार के
कार्य कैसे कर सकता है। महर्षि दयानंद ने समाज, देश, संस्कृति और धर्म की उन्नति के लिए अनेक कार्य किए।
महर्षि दयानंद की शिक्षाएं हमें बेहतर इंसान बनाती हैं। उन्होंने
ईश्वर की प्रार्थना पर बल दिया, क्योंकि इससे मन को
केंद्रित करने का अभ्यास होता है और हर कार्य को मनोयोग से कर पाने का आत्मविश्वास
आता है। उन्होंने यह भी कहा कि घर आए मेहमान को खिलाने के बाद ही खाना चाहिए।
माता-पिता या अपने बड़ों की सेवा और खाने के पहले आश्रितों को भोजन कराना वे
आवश्यक मानते थे और इनका पालन करते थे।
महर्षि का मानना था कि शारीरिक और सामाजिक उन्नति के बाद इंसान को
आत्मिक उन्नति करना चाहिए। वे इसके लिए सत्य को आवश्यक मानते थे। उन्होंने सत्य के
साथ-साथ प्रेम, करुणा, दया, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अभय,
सत्साहस, अपरिग्रह, त्याग,
परोपकार, न्याय, सदाशयता,
सहिष्णुता, धर्म और अन्य सद्गुणों को जीवन का
अहम हिस्सा बनाकर बता दिया कि इनके पालन से मनुष्य कितनी उन्नति कर सकता है। इसलिए
गांधीजी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, लाला
लाजपतराय सहित सभी महान हस्तियों ने उन्हें उस युग का सर्वश्रेष्ठ मानव कहकर
अभिनंदन किया।
उनका विचार था कि सत्यवादी कभी भी अन्यायी बलवान से न डरे और निर्बल
न्यायकारी व्यक्ति से विनम्र रहे। वे कहते थे, पत्थर
की मूर्ति के आगे सिर न झुकाकर भगवान की बनाई मूर्ति [मनुष्यों] के आगे ही सिर
झुकाना चाहिए। वे स्त्रियों को मातृ-शक्ति कहकर सम्मान देते थे।
महर्षि दयानंद ने पर्यटन करके देश की दशा का अध्ययन किया और गुलामी
से हो रहे देश, समाज, संस्कृति और शिक्षा की
दुर्दशा को नजदीक से देखा और बेहतरी के प्रयास किए। यदि इंसान प्रतिदिन अपने कायरें
की समीक्षा करे, तो वह बुराइयों से दूर होता जाएगा। इसलिए वे
प्रतिदिन अपनी समीक्षा करते थे। वे सत्यार्थ प्रकाश में कहते हैं-कोई कार्य दूसरों
के कहने से नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि से करना चाहिए। महर्षि
दयानंद अपरिग्रह और अहिंसा के पालन पर भी जोर देते थे।
जीवन की उन्नति कैसे हो, यह
महर्षि के जीवन से सीखा जा सकता है। उनका मानना था कि लालच, लोभ
और छल-कपट से इंसान कभी उन्नति नहीं कर सकता। महर्षि का प्रेरक जीवन आज भी हमारे
लिए मील के पत्थर की तरह है।
ऋग्वेद को संसार की सबसे प्राचीन और प्रथम
पुस्तक माना है। इसी पुस्तक पर आधारित है हिंदू धर्म। इस पुस्तक में उल्लेखित 'दर्शन'
संसार की प्रत्येक पुस्तक में मिल जाएगा। माना जाता है कि इसी
पुस्तक को आधार बनाकर बाद में यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
की रचना हुई। दरअसल यह ऋग्वेद के भिन्न-भिन्न विषयों का विभाजन और विस्तार था।
विश्व की प्रथम पुस्तक : वेद मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज
हैं। वेदों की 28 हजार
पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च
इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30
पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत
सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500
ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक
धरोहरों की सूची में शामिल किया है।
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति : हिन्दू धर्म को सनातन, वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू
एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा
जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार
सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी
आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक
से बहती है।
भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य
भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि
में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है।
इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में
परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को
हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी
कहा जाता है।
ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की
धर्म पुस्तक 'अवेस्ता'
में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य
इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की
उत्पत्ति इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय
गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु'
या 'हिंदू' कहने लगे।
आर्य शब्द का अर्थ : आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न
होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ
श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका
तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।
हिन्दू इतिहास की भूमिका : जब हम इतिहास की बात करते हैं तो वेदों की रचना
किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह
धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: कृष्ण के समय में वेद व्यास द्वारा पूरी तरह से वेद को
चार भाग में विभाजित कर दिया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के
आज से 5500 वर्ष पूर्व होने के तथ्य ढूँढ लिए गए।
हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व
आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू. (आज से 6500 वर्ष पूर्व) मध्य एशिया से हिमालय
तक फैले थे। कहते हैं कि आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की।
इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म 2 हजार ई.पू.। बौद्ध धर्म 500
ई.पू.। ईसाई धर्म सिर्फ 2000 वर्ष पूर्व।
इस्लाम धर्म 14 सौ साल पहले हुए।
लेकिन धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म
की कुछ और धारणाएँ भी हैं। मान्यता यह भी है कि 90 हजार वर्ष पूर्व इसकी शुरुआत हुई थी। दरअसल हिंदुओं ने
अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र
जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रंगारिक होता
गया। वह दौर ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर,
पत्थरों पर और मन पर।
जब हम हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ते
हैं तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है
जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को
सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम
स्वायंभव मनु था और प्रथम स्त्री थी शतरूपा।
पुराणों में हिंदू इतिहास की शुरुआत
सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है, ऐसा कहना की यहाँ से शुरुआत हुई यह शायद उचित न होगा फिर भी वेद-पुराणों
में मनु (प्रथम मानव) से और भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का इसमें उल्लेख मिलता है।
किसी भी धर्म के मूल तत्त्व उस धर्म को
मानने वालों के विचार, मान्यताएँ, आचार तथा संसार एवं लोगों के प्रति उनके
दृष्टिकोण को ढालते हैं। हिंदू धर्म की बुनियादी पाँच बातें तो है ही, (1.वंदना, 2.वेदपाठ,
3.व्रत, 4.तीर्थ, और 5.दान) लेकिन इसके अलावा निम्न सिद्धांत को भी जानें:-
1. ब्रह्म ही सत्य है: ईश्वर एक ही है और वही
प्रार्थनीय तथा पूजनीय है। वही सृष्टा है वही सृष्टि भी। शिव, राम, कृष्ण आदि सभी उस ईश्वर के संदेश वाहक है। हजारों देवी-देवता उसी एक के प्रति नमन हैं। वेद, वेदांत और उपनिषद एक ही
परमतत्व को मानते हैं।
2. वेद ही धर्म ग्रंथ है : कितने लोग हैं जिन्होंने वेद
पढ़े? सभी ने पुराणों की कथाएँ जरूर सुनी और उन
पर ही विश्वास किया तथा उन्हीं के आधार पर अपना जीवन जिया और कर्मकांड किए। पुराण, रामायण और महाभारत धर्मग्रंथ नहीं इतिहास
ग्रंथ हैं। ऋषियों द्वारा पवित्र ग्रंथों, चार वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य की दिव्यता एवं अचूकता पर
जो श्रद्धा रखता है वही सनातन धर्म की सुदृढ़ नींव को बनाए रखता है।
3. सृष्टि उत्पत्ति व प्रलय : सनातन हिन्दू धर्म की मान्यता
है कि सृष्टि उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अनंत
प्रक्रिया पर चलती है। गीता में कहा गया है कि जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अदृश्य से दृश्यमान हो जाता है
और जैसे ही रात होने लगती है,
सब कुछ वापस आकर अदृश्य में
लीन हो जाता है। वह सृष्टि पंच कोष तथा आठ तत्वों से मिलकर बनी है। परमेश्वर सबसे
बढ़कर है।
4. कर्मवान बनो : सनातन हिन्दू धर्म भाग्य से
ज्यादा कर्म पर विश्वास रखता है। कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है। कर्म एवं
कार्य-कारण के सिद्धांत अनुसार
प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के लिए पूर्ण रूप से स्वयं ही उत्तरदायी है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने मन, वचन एवं कर्म की क्रिया से अपनी नियति
स्वयं तय करता है। इसी से प्रारब्ध बनता है। कर्म का विवेचन वेद और गीता में दिया
गया है।
5. पुनर्जन्म : सनातन हिन्दू धर्म पुनर्जन्म
में विश्वास रखता है। जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की प्रक्रिया से
गुजरती हुई आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। आत्मा के
मोक्ष प्राप्त करने से ही यह चक्र समाप्त होता है।
6. प्रकति की प्रार्थना : वेद प्राकृतिक तत्वों की
प्रार्थना किए जाने के रहस्य को बताते हैं। ये नदी, पहाड़,
समुद्र, बादल, अग्नि,
जल, वायु, आकाश और हरे-भरे प्यारे वृक्ष हमारी
कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं अत: इनके प्रति कृतज्ञता के भाव
हमारे जीवन को समृद्ध कर हमें सद्गति प्रदान करते हैं। इनकी पूजा नहीं प्रार्थना
की जाती है। यह ईश्वर और हमारे बीच सेतु का कार्य करते हैं। यही दुख मिटाकर सुख का
सृजन करते हैं।
7.गुरु का महत्व : सनातन धर्म में सद्गुरु के समक्ष वेद
शिक्षा-दिक्षा लेने का महत्व है।
किसी भी सनातनी के लिए एक गुरु (आध्यात्मिक शिक्षक) का मार्ग दर्शन आवश्यक है। गुरु की शरण
में गए बिना अध्यात्म व जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ना असंभव है। लेकिन वेद यह भी कहते हैं कि अपना मार्ग स्वयं
चुनों। जो हिम्मतवर है वही अकेले चलने की ताकत रखते हैं।
8.सर्वधर्म समभाव : 'आनो भद्रा कृत्वा यान्तु
विश्वतः'- ऋग्वेद के इस मंत्र का अर्थ है कि किसी भी
सदविचार को अपनी तरफ किसी भी दिशा से आने दें। ये विचार सनातन धर्म एवं धर्मनिष्ठ
साधक के सच्चे व्यवहार को दर्शाते हैं। चाहे वे विचार किसी भी व्यक्ति, समाज, धर्म या सम्प्रदाय से हो। यही सर्वधर्म समभाव: है। हिंदू धर्म का प्रत्येक साधक या आमजन
सभी धर्मों के सारे साधु एवं संतों को समान आदर देता है।
9.यम-नियम : यम नियम का पालन करना प्रत्येक सनातनी का
कर्तव्य है। यम अर्थात (1)अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेय,
(4) ब्रह्मचर्य और (5)अपरिग्रह। नियम अर्थात (1)शौच, (2)संतोष,
(3)तप, (4)स्वाध्याय और (5)ईश्वर प्राणिधान।
10. मोक्ष का मार्ग : मोक्ष की धारणा और इसे
प्राप्त करने का पूरा विज्ञान विकसित किया गया है। यह सनातन धर्म की महत्वपूर्ण
देन में से एक है। मोक्ष में रुचि न भी हो तो भी मोक्ष ज्ञान प्राप्त करना अर्थात
इस धारणा के बारे में जानना प्रमुख कर्तव्य है।
12 संध्यावंदन : संधि काल में ही संध्या वंदन
की जाती है। वैसे संधि पाँच या आठ वक्त (समय) की मानी गई है, लेकिन सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त
की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना
की जाती है।
13 श्राद्ध-तर्पण : पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति
कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित
जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है।
श्राद्ध पक्ष का सनातन हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है।
14.दान का महत्व : दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति
छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए
इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और
उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्व का वर्णन किया गया है।
15.संक्रांति : भारत के प्रत्येक समाज या प्रांत के अलग-अलग त्योहार, उत्सव, पर्व, परंपरा और रीतिरिवाज हो चले हैं। यह लंबे काल और वंश
परम्परा का परिणाम ही है कि वेदों को छोड़कर हिंदू अब स्थानीय स्तर के त्योहार और
विश्वासों को ज्यादा मानने लगा है। सभी में वह अपने मन से नियमों को चलाता है। कुछ
समाजों ने माँस और मदिरा के सेवन हेतु उत्सवों का निर्माण कर लिया है। रात्रि के
सभी कर्मकांड निषेध माने गए हैं।
उन त्योहार, पर्व या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक
है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा, व्यक्ति विशेष या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक
धर्मग्रंथों, धर्मसूत्रों और आचार संहिता
में मिलता है। ऐसे कुछ पर्व हैं और इनके मनाने के अपने नियम भी हैं। इन पर्वों में
सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और
कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है।
16.यज्ञ कर्म : वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-(1) ब्रह्मयज्ञ (2)देवयज्ञ (3)पितृयज्ञ (4)वैश्वदेव यज्ञ (5)अतिथि यज्ञ। उक्त पाँच यज्ञों
को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं
विस्तार को नहीं।
17.वेद पाठ : कहा जाता है कि वेदों को अध्ययन करना और
उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के
समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है।
पशु, पक्षी,
पितर, दानव और देवताओं की जीवन चर्या के नियम
होते हैं, लेकिन मानव अनियमित जीवन शैली के चलते
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अलग हो चला है। रोग और शोक की गिरफ्त में
आकर समय पूर्व ही वह दुनिया को अलविदा कह जाता है। नियम विरुद्ध जीवन जीने वाला
व्यक्ति ही दुनिया को खराब करने का जिम्मेदार है।
सनातन धर्म ने हर एक हरकत को
नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी
प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और निरोगी ही बनाएँगे। नियम से
जीना ही धर्म है।
।।कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती।
कर पृष्ठे स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥
*प्रात:काल जब निद्रा से जागते हैं
तो सर्व प्रथम बिस्तर पर ही हाथों की दोनों हथेलियों को खोलकर उन्हें आपस में
जोड़कर उनकी रेखाओं को देखते हुए उक्त का मंत्र एक बार मन ही मन उच्चारण करते हैं
और फिर हथेलियों को चेहरे पर फेरते हैं।
पश्चात इसके भूमि को मन ही मन
नमन करते हुए पहले दायाँ पैर उठाकर उसे आगे रखते हैं और फिर शौचआदि से निवृत्त होकर
पाँच मिनट का ध्यान या संध्यावंदन करते हैं। शौचआदि के भी नियम है।
*संध्यावंदन : शास्त्र कहते हैं कि संध्यावंदन पश्चात ही
किसी कार्य को किया जाता है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल
में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे मुख्यत: संधि पाँच-आठ वक्त की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्या काल- उक्त दो वक्त की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के वक्त।
इस समय मंदिर या एकांत में शौच,
आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से परमेश्वर
की प्रार्थना की जाती है।
*घर से बाहर जाते वक्त : घर (गृह) से बाहर जाने से पहले माता-पिता के पैर छुए जाते हैं फिर पहले दायाँ
पैर बाहर निकालकर सफल यात्रा और सफल मनोकामना की मन ही मन ईश्वर के समक्ष इच्छा
व्यक्त की जाती है।
*किसी से मिलते वक्त : कुछ लोग राम-राम, गुड मार्नींग, जय श्रीकृष्ण, जय गुरु, हरि ओम,
साई राम या अन्य तरह से
अभीवादन करते हैं। लेकिन संस्कृत शब्द नमस्कार को मिलते वक्त किया जाता है और
नमस्ते को जाते वक्त।
फिर भी कुछ लोग इसका उल्टा भी
करते हैं। विद्वानों का मानना हैं कि नमस्कार सूर्य उदय के पश्चात्य और नमस्ते
सुर्यास्त के पश्चात किया जाता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदुओं ने अभिवादन
के अपने-अपने तरीके इजाद कर लिए हैं
जो की गलत है।
।ॐ। 'संस्कार'
शब्द का अधिक उपयुक्त पर्याय
अंग्रेजी का 'सेक्रामेंट' शब्द हो सकता है। संस्कार का सामान्य अर्थ
है-किसी को संस्कृत करना या
शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा
उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। इसी तरह किसी साधारण मनुष्य को विशेष प्रकार
की धार्मिक क्रिया-प्रक्रियाओं द्वारा श्रेष्ठ
बनाना ही सुसंस्कृत करना कहा जाता है।
संस्कृत भाषा का शब्द है
संस्कार। मन, वचन, कर्म और शरीर को पवित्र करना ही संस्कार
है। हमारी सारी प्रवृतियों और चित्तवृत्तियों का संप्रेरक हमारे मन में पलने वाला
संस्कार होता है। संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पुष्ट होता है
और हम सभ्य कहलाते हैं। व्यक्तित्व निर्माण में हिन्दू संस्कारों की महत्वपूर्ण
भूमिका होती है। संस्कार विरुद्ध आचरण असभ्यता की निशानी है। 'संस्कार' मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं।
मुख्यत: तीन भागों में विभाजित
संस्कारों को क्रमबद्ध सोलह संस्कार में विभाजित किया जा सकता है। ये तीन प्रकार
होते हैं'- (1) मलापनयन,
(2) अतिशयाधान और (3) न्यूनांगपूरक।
(1) मलापनयन : उदाहरणार्थ किसी दर्पण आदि पर
पड़ी हुए धूल, मल या गंदगी को पोंछना, हटाना या स्वच्छ करना 'मलापनयन' कहलाता है।
(2) अतिशयाधान : किसी रंग या पदार्थ द्वारा
उसी दर्पण को विशेष रूप से प्रकाशमय बनाना या चमकाना ‘अतिशयाधान’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार भी कहा जाता है।
(3) न्यूनांगपूरक : अनाज के भोज्य पदार्थ बन जाने
पर दाल, शाक, घृत आदि वस्तुएँ अलग से लाकर मिलाई जाती हैं। उसके हीन
अंगों की पूर्ति की जाती हैं,
जिससे वह अनाज रुचिकर और
पौष्टिक बन सके। इस तृतीय संस्कार को न्यूनांगपूरक संस्कार कहते हैं।
अतः गर्भस्थ शिशु से लेकर
मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने
को 'संस्कार' कहा जाता है। हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का बहुत महत्व
है। वेद, स्मृति और पुराणों में अनेकों संस्कार
बताए गए है किंतु धर्मज्ञों के अनुसार उनमें से मुख्य सोलह संस्कारों में ही सारे
संस्कार सिमट जाते हैं अत: इन संस्कारों के नाम है-
(1)गर्भाधान संस्कार, (2)पुंसवन संस्कार, (3)सीमन्तोन्नयन संस्कार, (4)जातकर्म संस्कार, (5)नामकरण संस्कार, (6)निष्क्रमण संस्कार, (7)अन्नप्राशन संस्कार, (8)मुंडन संस्कार, (9)कर्णवेधन संस्कार, (10)विद्यारंभ संस्कार, (11)उपनयन संस्कार, (12)वेदारंभ संस्कार, (13)केशांत संस्कार, (14)सम्वर्तन संस्कार, (15)विवाह संस्कार और (16)अन्त्येष्टि संस्कार।
संस्कार का अभिप्राय उन
धार्मिक कृत्यों हैं जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का योग्य सदस्य बनाकर उसके
शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करें। संस्कार
ही मनुष्य को सभ्यता का हिस्सा बनाए रखते हैं। लेकिन वर्तमान में हिंदुजन उक्त
सोलह संस्कार मनमाने तरीके से करके मत भिन्नता का परिचय देते हैं, जो कि वेद विरुद्ध है।
सनातन धर्म ने हर एक हरकत को
नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी
प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और निरोगी ही बनाएँगे। नियम से
जीना ही धर्म है।
भोजन के नियम :
भोजन की थाली को पाट पर रखकर
भोजन किसी कुश के आसन पर सुखासन में (आल्की-पाल्की मारकर) बैठकर ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मौन
रहने से लाभ मिलता है। भोजन भोजनकक्ष में ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मुख
दक्षिण दिशा में नहीं होना चाहिए। जल का ग्लास हमेशा दाईं ओर रखना चाहिए। भोजन अँगूठे सहित चारो
अँगुलियों के मेल से करना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों को साथ मिल-बैठकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन का समय
निर्धारित होना चाहिए।
शास्त्र कहते हैं कि योगी एक
बार और भोगी दो बार भोजन ग्रहण करता है। रात्रि का भोजन निषेध माना गया है। भोजन
करते वक्त थाली में से तीन ग्रास (कोल) निकाल कर अलग रखें जाते हैं तथा अँजुली में
जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाएँ से बाएँ गोल घुमाकर अँगुली से जल को छोड़ दिया
जाता है।
अँगुली से छोड़ा गया जल
देवताओं के लिए और अँगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। यहाँ सिर्फ
देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेष के लिए या मन कथन अनुसार
गाय, कव्वा और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता
है।
भोजन के तीन प्रकार :
जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा
मन। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सात्विक भोजन
से व्यक्ति का मन सकारात्मक सोच वाला व मस्तिष्क शांतिमय बनता है। इससे शरीर
स्वस्थ रहकर निरोगी बनता है। राजसिक भोजन से उत्तेजना का संचार होता है, जिसके कारण व्यक्ति में क्रोध तथा चंचलता
बनी रहती है। तामसिक भोजन द्वारा आलस्य, अति नींद,
उदासी, सेक्स भाव और नकारात्मक धारणाओं से
व्यक्ति ग्रसित होकर चेतना को गिरा लेता है।
सात्विक भोजन से व्यक्ति
चेतना के तल से उपर उठकर निर्भिक तथा होशवान बनता है और तामसिक भोजन से चेतना में
गिरावट आती है जिससे व्यक्ति मूढ़ बनकर भोजन तथा संभोग में ही रत रहने वाला बन
जाता है। राजसिक भोजन व्यक्ति को जीवन पर्यंत तनावग्रस्त, चंचल, भयभीत और अति भावुक बनाए रखकर सांसार में उलझाए रखता है।
जल के नियम :
भोजन के पूर्व जल का सेवन
करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन
पश्चात करना निम्नतम माना गया है। भोजन के एक घंटा पश्चात जल सेवन किया जा सकता
है। भोजन के पश्चात थाली या पत्तल में हाथ धोना भोजन का अपमान माना गया है। दो
वक्त का भोजन करने वाले के लिए जरूरी है कि वह समय के पाबंद रहें। संध्या काल के
अस्त के पश्चात भोजन और जल का त्याग कर दिया जाता है।
पानी छना हुआ होना चाहिए और
हमेशा बैठकर ही पानी पीया जाता है। खड़े रहकर या चलते फिरते पानी पीने से ब्लॉडर और
किडनी पर जोर पड़ता है। पानी ग्लास में घुंट-घुंट ही पीना चाहिए। अँजुली
में भरकर पीए गए पानी में मीठास उत्पन्न हो जाती है। जहाँ पानी रखा गया है वह
स्थान ईशान कोण का हो तथा साफ-सुधरा होना चाहिए। पानी की शुद्धता जरूरी
है।
विशेष : भोजन खाते या पानी पीते वक्त भाव और विचार
निर्मल और सकारात्मक होना चाहिए। कारण की पानी में बहुत से रोगों को समाप्त करने
की क्षमता होती है और भोजन-पानी आपकी भावदशा अनुसार अपने
गुण बदलते रहते हैं।
वेदों के अलावा गृहसूत्रों
में संस्कारों का उल्लेख मिलता है। स्मृति और पुराणों में इसके बारे में विस्तृत
जानकारी मिलती है। वेदज्ञों अनुसार गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों
का शोधन, सफाई आदि कार्य को विशिष्ट विधि व मंत्रों
से करने को 'संस्कार' कहा जाता है। यह इसलिए आवश्यक है कि
व्यक्ति जब शरीर त्याग करे तो सद्गति को प्राप्त हो।
कर्म के संस्कार : हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह
ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता
है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये
संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम
से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व
इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियाँ भी इन पर
प्रभाव डालती हैं।
ये 'संस्कार' ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे 'संचित कर्म' कहते हैं। इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक
जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है।
अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण
मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है।
अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण
मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन
संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व
का निर्माण होता है।
उक्त संस्कारों के अलावा भी
अनेकों संस्कार है जो हमारी दिनचर्या और जीवन के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से जुड़े
हुए हैं, जिन्हें जानना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य
माना गया है और जिससे जीवन के रोग और शोक मिट जाते हैं तथा शांति और समृद्धि का
रास्ता खुलता है। यह संस्कार ऐसे हैं जिसको निभाने से हम परम्परागत व्यक्ति नहीं
कहलाते बल्कि यह हमारे जीवन को सुंदर बनाते हैं। ॐ।
तीर्थ करने का बहुत पुण्य है। कौन-सा है एक मात्र तीर्थ? तीर्थाटन का समय क्या है?
अयोध्या, काशी, मथुरा,
प्रयाग, चार धाम और कैलाश में कैलाश की महिमा
ही अधिक है वही प्रमुख तीर्थ है। हिंदू धर्म के चार संप्रदाय हैं- 1.वैष्णव 2.शैव, 3.शाक्त और 4.ब्रह्म (अन्य)। चारों के तीर्थ हैं।
जो मनमानें तीर्थ और तीर्थ पर जाने
के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थ से ही वैराग्य और
सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थ यात्रा का समय संक्रांति के बाद माना गया है
जबकि सुर्य उत्तरायण होता है। तीर्थ में सबसे प्रमुख कैलाश मानसरोवर को माना गया
है। इसके बाद क्रमश: चार धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, सप्तपुरी का नंबर आता है।
1.कैलाश मानसरोवर।
2.चार धाम : बद्रीनाथ,
द्वारका, रामेश्वरम, जगन्नाथ
पुरी।
3.द्वादश ज्योतिर्लिंग : सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल,
भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ
विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर, बैद्यनाथ।
4.इक्कावन शक्तिपीठ : हिंगुल या हिंगलाज, शर्कररे, सुगंध,
अमरनाथ, ज्वाला जी, त्रिपुरमालिनी
भीषण, जय दुर्गा बैद्यनाथधाम, गुजयेश्वरी
मंदिर, दाक्षायनी नि अमर मानसरोवर, बिराज
नाभि विमला जगन्नाथ, गण्डकी चण्डी चक्रपाणि, देवी बाहुला भीरुक, चंद्रिका कपिलांबर, त्रिपुर सुंदरी त्रिपुरेश, छत्राल भवानी चंद्रशेखर,
त्रिस्रोत भ्रामरी अंबर, कामाख्या उमानंद,
जुगाड्या क्षीर खंडक, कालीपीठ कालिका नकुलीश,
ललिता भव, जयंती क्रमादीश्वर, विमला सांवर्त, मणिकर्णिका विशालाक्षी एवं मणिकर्णी
काल भैरव, भद्रकाली श्रवणी निमिष, सावित्री
स्थनु, मणिबन्ध गायत्री सर्वानंद, श्री
शैल महालक्ष्मी शंभरानंद, कांची देवगर्भ रुरु, काली असितांग, नर्मदा भद्रसेन, वक्ष शिवानी चंदा, उमा भूतेश, शुचि
नारायणी संहार, वाराही महारुद्र, अर्पण
वामन, श्री संदरी सुंदरानंद, कपालिनी
(भीमरूप) शर्वानंद, चंद्रभागा वक्रतुण्ड, अवंति लम्बकर्ण, भ्रामरी विकृताक्ष, सर्वशैल राकिनी/विश्वेश्वरी वत्सनाभ/दण्डपाणि, बिरात
अम्बिका अमृतेश्वर, रत्नावली कुमारी शिवा, उमा महोदर, कलिका देवी योगेश, कर्नाट
जयदुर्गा अभिरु, महिषमर्दिनी वक्रनाथ, यशोरेश्वरी
चंदा, अट्टहास फुल्लरा विश्वेश, नंदिनी
नंदिकेश्वर, इंद्रक्षी राक्षसेश्वर।
5.सप्तपुरी : काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका,
माया, कांची और अवंति (उज्जैन)।
6. अन्य तीर्थ :
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