मेवाड़-मुकुट-संघर्ष की कहानी!
- योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र)

'रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था
जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था'
(वीर रस के प्रख्यात कवि, पं. श्याम नारायण पण्डेय, उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के थे एवं उन्होंने महाराणा प्रताप और चेतक पर कविताएं लिखी थीं। उनकी प्रमुख रचनाओं में हल्दीघाटी, चेतक की वीरता, राणा प्रताप की तलवार और जौहर शामिल हैं।)
ऐसे आमंत्रणों / प्रलोभनों की बात जहाँ होती है और खासकर रात में बच्चों के बाहर रहने की, घर के अभिभावक ऐसा करने की मनाही कर देते हैं, पर मेरा उस गाँव में मौसी का घर था और मेरे मौसेरे भाई ही उस स्कूल के हेडमास्टर थे, मुझे जाने की और नाटक देखने की अनुमति मिल गई। नाटक देखने हमलोग रात होते ही स्टेज के सामने बैठ गये और बड़ी उत्सुकता से नाटक शुरू होने की वाट जोहते रहे, लेकिन नाटक शुरू होने में काफी देरी हो रही थी। खैर, नाटक शुरू हुआ और हम बच्चों ने एक-एक दृश्य, बातचीत को मन में संजोना शुरू कर दिया। दिखाया गया कि कैसे महाराणा सांगा की मृत्यु पर रानी कर्णावती या कर्मवती जो बूूंदी के शासक हाड़ा नरबध्दु की पुत्री थीं तथा जिनका विवाह मेेेवाड़ के राणा सांगा केे साथ हुआ था तथा जो अल्प काल के लिये बूँदी की शासिका भी रहीं और जो राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की माँ थीं और महाराणा प्रताप की दादी थीं तथा जिनके द्वारा मेवाड़ का दूसरा जौहर 8 मार्च, 1535 को कर लिया गया था तथा उदयसिंह की माँ रानी कर्णावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक उदय सिंह की परवरिश करने का दायित्व एक त्याग की मूर्ती सन्नारी पन्नाधाय ने संभाला था। पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की। पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थीं। राणा-राणी तथा उनके वंशजों की हत्या हो जा सकने के अंदेशे में उनके पुत्र उदय सिंह को पन्नाधाय द्वारा छिपाकर पाला गया, क्योंकि उदय सींह के तीन भाई षड़यंत्रों के अंतर्गत मारे जा चुके थे। पन्नाधाय का अपना पुत्र चन्दन भी बालक उदय के साथ ही रहता था। दोनों बच्चे साथ-साथ ही पलते भी थे।
महाराणा सांगा की मृयु हो जाने से उनके एक पुत्र बनबीर सिंह ने राणा सांगा के बचे पुत्र बालक उदय की हत्या कर देने की ठान ली, ताकि वह खुद राणा बना रह सके! उसने सोते में उदय को मार देने की अपनी योजना बना ली! पन्नाधाय को इसका पता गुप्त रूप से चल गया और उसका वात्सल्य-प्रेम उमड़ पड़ा, क्योंकि बालक उदय को तो वही माँ की तरह पाल रही थी, अपने पुत्र चन्दन के साथ-साथ। उसका दिल हाहाकार कर उठा कि जिस मेवाड़ के मुकुट उदय सिंह को उसने माता बनकर पाला, उसकी हत्या उसके सामने ही हो रही है और वह मेवाड़ के मुकुट को बचा नहीं पा रही है! राजभक्ति और जोर मारी तो उसने अपने बेटे चन्दन को उदय के पलंग पर सुला दिया और उदय को चन्दन के बिछावन पर। आधी रात्रि होते ही अंधियारे में बनबीर सिंह हाथ में नंगी तलवार लेकर आया और पन्नाधाय को बालक उदय को बताने का आदेश दिया। पन्नाधाय हड़बड़ा गई और किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर उसने पलंग पर सोये बच्चे की ओर इशारा कर दिया। बनबीर सिंह ने आव न देखा ताव और सोते हुए बच्चे को अपनी तलवार से काट डाला। बच्चा माँ-माँ की तेज लम्बी आवाज निकाल कर सदा के लिए सो गया। बनबीर अपने हाथ में खून टपकते तलवार के साथ नैपथ्य में विलीन हो गया। पन्नाधाय का दिल जार-जार रो रहा था, पर होंठ सिले हुए थे। नाटक के दर्शकों का दिल हा-हाकार कर उठा और मन में होने लगा कि अभी बनबीर को भी पकड़कर मार डालें!
पन्नाधाय बालक उदय को लेकर कहीं विलीन हो गई। इतिहास कहता है कि यही उदय सिंह जो महाराणा प्रताप के पिता थे, मेवाड़ के राणा बने, पर, मुगलों से होते युद्ध को देख जंगल में भी चले गये थे। एकबार तो चढ़ाई होने पर आक्रामक सेना को बिना लड़े ही किले की चावी ही दे दी। ये अपनी रानियों के साथ भोग-विलास में रहते थे और अधीकतर अपनी राजधानी चित्तौड़ से बाहर ही रहते थे।
इनके बड़े पुत्र महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया की माँ महारानी जयबंताबाई थी। महाराणा उदयसिंह की दूसरी रानी धीरबाई, जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं | मृत्यु के पूर्व ही महाराणा उदय सिंह ने अपनी दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र कुंवर जगमाल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित भी कर दिया था। पिता की मृत्यु के बाद वह राणा बन भी गया था, लेकिन सारे स्थानीय रजवाड़ों ने मिलकर प्रताप सिंह सिसोदिया को राजसिंहासन पर बैठाकर उसे महाराणा बना दिया। प्रताप केे उत्तराधिकारी हो जाने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला गया।
'महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दूसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे।'
महाराणा प्रताप के जीवन का सबसे बड़ा युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध है, जो सन् १५७६ में लड़ा गया। हल्दी घाटी दो पहाड़ियों के बीच एक संकरा रास्ता था और हल्दी रंग के पत्थरों से भी बना था, जिसपर अकबर बादशाह कब्जा करना चाहता था, ताकि आगरा का रास्ता उसके अधिकार में रहे, पर मुगलों की ओर के राजा मानसिंह ने इस संकरे दर्रे से विशालकाय हाथियों को ले जाना उचित नहीं समझा, इसीलिए रास्ता बंद कर वहीं डटा रहा। 'लड़ाई का यह स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में था। महाराणा प्रताप ने लगभग ३००० घुड़सवारों और ४०० भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग ५०००-१०००० लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घंटे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, प्रताप ने खुद को जख्मी पाया और पराजय को निश्चित समझकर पलायन को सोचा। जिसके लिए उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग १६०० पुरुषों की थी। मुगल सेना ने ३५००-७८०० लोगों को खो दिया, जिसमें ३५० अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे (मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, पर, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों से उन्हें
हटा लिया।'
एख आन्य वीवरण के अनुसार 'हल्दीघाटी युद्ध में ५०० भील लोगो को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के ८०,००० की सेना का सामना किया। हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा जी का योगदान सराहनीय रहा। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें अनुमानत: १७,००० लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंताजनक होती चली गई। तभी २५,००० सैनिकों के १२ साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह सहसा महारणा प्रताप के पास आये और वे भी अमर हो गये।'
महाराणा प्रताप के जीवन में हल्दीघाटी का युद्ध बड़ा निर्णायक सिद्ध हुआ, 'इतिहास का ये युद्ध हल्दीघाटी के दर्रे से शुरू हुआ लेकिन महाराणा वहां नहीं लड़े थे, उनकी लड़ाई खमनौर में चली थी.
मुगल इतिहासकार अबुल फजल ने इसे “खमनौर का युद्ध” कहा है।'
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप अकबर की सेना से जीत गये थे, क्योंकि उसके बाद भी वे जमीन के पट्टे जारी करते थे।
दिवेर का युद्ध
"हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हो चुका था । महाराणा के पास थोड़ेसे ही सैनिक बचे थे। क्योंकि अधिकतर अपनी मातृभूमि पर न्योछावर हो चुके थे। ज़्यादातर किले महाराणा के हाथों से निकल चुके थे। पर अकबर उन्हें परास्त न कर पाया था, न ही बंदी बना पाया था। महाराणा के ललाट पर चिंता की लकीरें थीं। आगे का मार्ग अत्यंत कठिन जान पड़ता था। पर धमनियों में रक्त का उबाल कम नहीं होता था। मेवाड़ के भविष्य में यूँ अंधेरा नहीं छा सकता था। पर भोजन के लिए अन्न और लड़ने के लिए वीर एवं हथियार की आवश्यकता थी। यूँ तो कुल देवता एकलिंगजी सभी कुछ कर सकते हैं पर इस समय की विषम परिस्थिति में उनके सिवाय कोई अन्य सहारा भी न था। निराशा के इस घोर अंधेरे से बाहर निकलना ही होगा। महाराणा प्रताप के बड़े पुत्र कुँवर अमर सिंह भी मदद के लिए आस पास के रजवाड़ों के पास गए थे, पर मदद की विशेष आशा न थी। मुग़ल सल्तनत से कोई बैर लेना नहीं चाहता था एवं जागीरदारों के लिए ये अवसर लगान न देने के लिए स्वर्णिम समय था। महाराणा की धाक में कमी जरूर आ गयी थी, कुंभलगढ़ गोगुंदा, उदयपुरऔर आस पास के ठिकाने अब मुगलों के अधिकार मे थे, पर उनसे सीधे सीधे उलझने का साहस किसीमें न था। फिर मुगलिया फौजों के अत्याचारों से भी आम जन-मानस उद्वेलित था।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद 40000 निर्दोष राजपूतों की हत्या कर दी गयी थी। वो भी उनकी जो कभी फौज का हिस्सा भी न थे।
इसी समय भामाशाह का प्रवेश होता है। उनकी कहानी भी बड़ी रोचक है। सहसा खबर मिली कि भामाशाह प्रताप के दर्शनों की आज्ञा चाहते हैं। "महाराणा की सात फुट दो इंच की काठी पर आशा-निराशा के बादल आ जा रहे थे। उन्हें आदर सहित बुलाया गया। भामाशाह ने उनके राज में काफी धन अर्जन किया था, वो उनके राज के प्रतिष्ठित व्यापारी तथा प्रतिप के अभिन्न मित्र थे। उनके पुरखे महाराणा के राज मे मंत्री और खजांची रह चुके थे। भामाशाह का परिवार अकूत धन का स्वामी था। महाराणा ने उठकर अपने मित्र का स्वागत किया। इधर उधर के हाल-समाचार के बाद भामा ने महाराणा को अपनी सारी संपत्ति भेंट कर दी। कुल 2.25 लाख स्वर्ण मुद्राएँ लेकर वे महाराणा की सेवा में उपस्थित थे। यह रकम 25000 की फौज के बारह वर्ष के रख-रखाव के लिए काफी थी। महाराणा की आँखें भर आयीं। भामाशाह हाथ जोड़े खड़े थे। सभा ने हर-हर-महादेव के नारे से उनका अभिनंदन किया। एकलिंग जी ने महाराणा की सुन ली थी। "
"महाराणा ने इस धन से 40000 की सेना का गठन किया। सिर्फ मरजीवड़ों को ही शामिल किया। अकबर अक्सर अपनी सेना लेकर उन्हें पकड़ने के लिए अपने सेनापति भेजते रहता था। पर अब राणा का लक्ष्य साफ था। वे अरावली के घुमावदार पहाड़ियों के भूल भुलैया वाले रास्ते पर छापामार युद्ध करने लगे और मुगलों का रसद और हथियार लूटने लगे। सन 1576 से 1581 तक अकबर ने सात बार राणा को परास्त करने के लिए विभिन्न सेनापतियों को भेजा, एक बार तो स्वयं भी आया, पर लगातार छह महीने रहने के बाद वापस लौट गया। राणा की पूंजी उनकी हिम्मत थी। अपने से चार गुना बड़ी फौज से भी लड़ने में उनको भय न था। फिर उनके मरजीवड़े हमेशा केशरिया साफा बांध के निकलते थे, प्राणों का उत्सर्ग या विजय यही, उनका नारा था। अकबर ने इन सालों में कुल 1.50 लाख सैनिक भेजे जिसमें से ज़्यादातर खेत रहे थे। पर मेवाड़ का शेर अभी भी स्वतंत्र था।
महाराणा और भामाशाह ने युद्ध की तैयारियों का जायजा लिया। भामाशाह ने बताया कि मुगल समझ रहे हैं कि महाराणा धीरे-धीरे अपने कदम मेवाड़ से पीछे खींच रहे हैं। अतः यह उचित अवसर है जब धावा बोला जाय। महाराणा कुमार अमर और भामाशाह ने मिलकर तय किया कि वे दिवेर पर धावा बोलेंगे। कुँवर अमर सिंह ने बताया - दिवेर की सुरक्षा अभी सुल्तान खान के पास है जो अकबर का चाचा है। वहाँ हजारों की संख्या में मुगलों की शाही सेना तैनात है। वो कभी सोच भी न सकेंगे कि हम उनपर यहाँ हमला कर सकते हैं।
महाराणा ने कुँवर से पूछा – क्या इडर और सिरोही के शासक हमारी मदद करेंगे? मत भूलो कि जालोर , नाडोल और बूंदी के शक्तिशाली शासक अकबर को कर देते हैं। उनका खुलकर विद्रोह करना संभव न होगा।
कुँवर ने जबाब दिया कि उन्होंने इन सभी रियासतों को टटोला है और कोई भी अकबर से खुश नहीं है। अकबर के हरम की 7000 स्त्रियॉं मे से ज़्यादातर इसी भूभाग से हैं। अतः उनमें काफी क्रोध है। जबाब से संतुष्ट होकर दिवेर युद्ध की योजना बनी विजयदशमी के दिन धावा बोलने की सहमति बनी। सुल्तान खान को हराना कठिन अवश्य था पर अगर हरा पाये तो राजस्थान की भूमि से अकबर के प्रभुत्व को उखाड़ा जा सकता था।
सेना को दो भागों मे विभक्त किया गया, एक टुकड़ी का नेतृत्व स्वयं राणा और दूसरे का नेतृत्व कुँवर अजय सिंह के हाथों सौंपा गया। विजयदशमी के दिन, 1582 ईस्वी में, महाराणा ने पूरी शक्ति से हमला किया। तब तक जालोर , नाडोल और बूंदी खुलकर महाराणा के समर्थन में आ गए थे। इडर और सिरोही ने भी अपना समर्थन दे दिया था। इस हमले से सुल्तान खान, जो अय्याश हाकिम था और अपनी काबिलियत के बजाय भतीजे अकबर के दम पर दिवेर में काबीज था, के पैर उखड़ गए। मुगलों की संख्या यूं तो महाराणा के सैनिकों से काफी ज्यादा थी पर बिजली की गति से टूट पड़ी इस मेवाड़ी सेना ने शाही सेना को गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया। हर-हर-महादेव, एकलिंग महाराज की जय के नारों से आकाश गूंज उठा। सुल्तान खान अपनी विशाल सेना के साथ मैदान छोडकर भागने लगा। महाराणा और कुँवर अमर सिंह ने आमेर तक उनका पीछा किया और सेना समेत उसे घेर लिया। कुँवर अमर सिंह का भाला इतना तेज चला कि वह सुल्तान खान का शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन मे गड गया। सुल्तान खान एक मूर्ति की तरह जमीन में गड़ा पड़ा था। उधर एक अन्य टुकड़ी के नायक बहलोल खान पर राणा की तलवार ऐसी चली कि वह घोड़े समेत दो टुकड़ों में कट गया। युद्ध का यह भयावह रूप देखकर मुगल सैनिक भाग खड़े हुए। महाराणा ने पूरी शाही सेना को नष्ट कर दिया। हल्दी घाटी का यह दूसरा युद्ध मुग़ल बादशाह के लिए करारी हार बन गया।"
युद्ध के इतिहास में थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़ के नाम से जाना जाता है यह पराजय जिसमें कर्नल टॉड ने राणा के योद्धाओं की तुलना स्पार्टा के वीरों से की है।
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत बनी कि "मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया करते हैं"।
"अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुगल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने अजमेर तक मुगलों को खदेड़ा। भीषण युद्ध के बाद बचे-खुचे 36000 मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर के युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुंदा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही, माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्ज़ा कर लिया।
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के अधिकतर ठिकाने/ दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए। यहां तक कि मेवाड़ से गुजरने वाले मुगल काफिलों को महाराणा को रकम देनी पड़ती थी।"
महाराणा प्रताप के बाद उनके बड़े पुत्र अमर सिंह महाराणा हुए, जिन्होंने अपने राज्य की स्तंत्रता बनाये रखी, लेकिन जीवन के अंतिम पाँच वर्ष के पहले अपने पुत्र कर्ण सिंह के अथक प्रयास से मुगलों के साथ तय हुई संधी की स्वीकृति उन्होंने दे दी। उधर बादशाह जहाँगीर ने भी अपनी दशों अंगुलियों की एक सूती कपड़े पर छाप देकर संधी का प्रस्ताव महाराणा अमर सिंह के पास भेजा।
बाद में महारणा कर्ण सिंह को भी बादशाह शाहजहाँ के दरबार में बड़ा ओहदा मिला।
इस तरह मेवाड़ का मुकुट जो राणा सांगा (बाबर के समय) से लेकर, महाराणा उदय सिंह, महाराणा प्रताप सिंह (अकबर के समय), महारणा अमर सिंह (जहाँगीर के समय) एवं महारणा कर्ण सिंह (शाहजहाँके समय) के, शिरों पर सुशोभित होता रहा, वह सबके लिए वास्तव में काँटों का ताज रहा, जहाँ शौर्य की कीमत हर समय जान से अधिक रही। ऐसे रण-बाँकुरों पर पूर्ववर्ती मेवाड़ ही नहीं पूरे भारतवर्ष को गर्व है!
उन वीरों को शत-शत नमन!
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