सूर्यग्रहण एक रोमाञ्चक घटना है
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
सूर्यग्रहण एक रोमाञ्चक घटना है, यदि आपने सूर्यग्रहण देखा है और उसकी स्मृति नहीं है तो जान लीजिये कि आपका देखा हुआ सूर्यग्रहण पूर्ण नहीं था, अर्थात् खग्रास स्थिति निर्मित नहीं हुई।
खण्डग्रास और कंकणाकृति ग्रहण में अन्धकार नहीं हो पाता है।
ऋक् संहिता में भी सूर्यग्रहण सम्बन्धी ऋचा हैं |
शांखायन ब्राह्मण (२४/३) में इसका उल्लेख है कि विषुव से ३ दिन पहले ग्रहण हुआ था । अत्रि ने शरद विषुव से तीन दिन पहले हुये सूर्यग्रहण पर सप्तदश स्तोम कृत्य किया .
इसकी तिथि 24-10-4593 ई.पू. प्राप्त होती है ।
अर्थात् शांखायन ब्राह्मण में ग्रहण का उल्लेख वर्तमान से 6600 वर्ष पहले का है।
अत्रि ऋषि का क्षेत्र बिन्ध्य के चित्रकूट में ही रहा है। और शरद सम्पात से ३ दिवस पूर्व कब चित्रकूट में पूर्ण सूर्यग्रहण हुआ था यह स्वयं ज्ञात कर लें ।
बौद्धों ने जो साहित्य कॉपी किया, अधिकांश का भोट(तिब्बती),चीनी भाषा में अनुवाद हुआ।
भारत में आक्रान्ताओं ने जब विश्वविद्यालय और पुस्तकालय जलाये तब भी वे ग्रन्थ भोटतिब्बत और चीन में होने से सुरक्षित रहे।
#आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प में राहु चन्द्र सूर्य की गतियों के आधार पर ग्रहण का गणित करने की बात है।
ग्रहणकाल में इन्द्र, रुद्र, विष्णु की उपासना मन्त्रजप से करने हेतु भी कहा गया है।
ग्रहण गणना के निमित्त बड़ी सुन्दर बात कह दी गई
सम्यग् ज्ञानविहीनानां बालिशानामियं क्रिया।
अर्थात् ठीक ज्ञान न होने पर यह क्रिया बच्चों के खेल जैसी होगी.....
आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प किस काल की रचना मानी जाती है?
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी
भारत का प्राचीन खगोल विज्ञान और वैज्ञानिक
भारतीय खगोल शास्त्र का इतिहास बहुत पुराना है, इसकी जड़ें सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल तक जाती है, 1500 ईसा पूर्व खगोल शास्त्र को वैदिक युग में वेदों के अध्ययन के एक हिस्से के रूप में जोड़ लिया गया था, सबसे पुराना खगोल शास्त्र का ग्रंथ वेदांग ज्योतिष हे जिसे 1200 ईसापूर्व लिखा गया था. .
पांचवी सदी में भारतीय खगोलशास्त्र को आर्यभट्ट ने काफी विकसित किया उन्होंने उस समय के सभी खगोल शास्त्र के ज्ञान को अपने ग्रंथ आर्यभट्टिया मैं समाहित किया. आगे चलकर भारतीय खगोल शास्त्र नें मुस्लिम खगोल शास्त्र, चीनी खगोल शास्त्र और यूरोपियन खगोल शास्त्र को प्रभावित किया.
आर्यभट्ट के काम को आगे चलकर ब्रह्मगुप्त, वराह मिहिर, लल्ला जैसे खगोल शास्त्रियों ने आगे बढ़ाया.
मध्यकाल में भी भारतीय खगोल शास्त्र का कुछ ना कुछ कार्य होता रहा राजाओं ने कई वेधशालाओं का निर्माण किया तथा 16वीं शताब्दी में केरल के खगोल और गणित विद्यालय में खगोल शास्त्र पर काफी कम हुआ.
प्राचीन भारत में कई महान खगोल शास्त्री हुए हैं जिन्होंने कई खगोल विज्ञान के सिद्धांतों और यंत्रों का आविष्कार किया, इससे खगोल विज्ञान का काफी विकास हुआ, मध्यकाल में राजाओं ने अंतरिक्ष वेधशाला का निर्माण किया तथा खगोल शास्त्रियों की बहुत आर्थिक मदद की.
भारत के कुछ प्राचीन खगोल वैज्ञानिक और उनके योगदान का वर्णन हम संक्षिप्त रूप से यहां कर रहे हैं.
लागध (Lagadha) :- ईसा से हजार वर्ष पूर्व लागध ने वेदांग ज्योदिश नाम के ग्रन्थ की रचना की, इस ग्रन्थ में आकाशीय घटनाओं के समय का वर्णन किया गया हे जिनका उपयोग सामाजिक और धार्मिक कार्यों के समय का निर्धारण करने में किया जाता था. इस ग्रन्थ में समय, मौसम चन्द्र महीनों सूर्य महीनो आदि का वर्णन है. इस ग्रन्थ में 27 नक्षत्र समूहों, ग्रहणों, साथ ग्रहों, और ज्योतिष की १२ राशियों का ज़िक्र हे.
आर्यभट :- आर्यभट का समय कल 476 -550 CE हे, आर्यभट ने खगोल शाश्त्र के दो ग्रंथो की रचना की, आर्यभट्टिया और आर्यभट्ट सिद्धांत, इन ग्रंथों में आर्यभट ने पहली बार बताया की प्रथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है, तथा यही कारण हे की सभी तारे पश्चिम की और जाते हुए दिखाई देतें है, आर्यभट ने लिखा की पृथ्वी एक गोला हे जिसका व्यास 39967 Km. है, आर्यभट ने ही चंद्रमा के चमकने का कारण बताया और कहा के या सूर्य के प्रकाश की वजह से चमकता है.
ब्रह्मगुप्त :- ब्रह्मगुप्त का समयकाल 598-668 CE हे, इन्होने ब्रह्मगुप्त सिद्धांत नमक ग्रन्थ की रचना की, इस ग्रन्थ का बगदाद में अरबी भाषा में अनुवाद किया गया और इसने इस्लामिक गणित और खगोल विज्ञान पर बहुत प्रभाव डाला, इस ग्रन्थ में दिन के समय की शुरुवात रात्रि 12 बजे बताई गयी, ब्रह्मगुप्त ने यह सिद्धांत लिखा की सभी द्रव्यमान वाली चीजें पृथ्वी की और आकर्षित होती है,
वरहामिहिर: वरहामिहिर का समय कल 505 CE माना जाता हे, वरहामिहिर ने भारतीय,ग्रीक,मिश्र और रोमन खगोल शास्त्र का अध्यन किया, उन्हें इस समस्त ज्ञान को अपने ग्रन्थ पंकसिद्धान्तिका में एक जगह एकत्रित किया.
भास्कर 1 : इनका समयकाल 629 CE इन्होने तीन ग्रंथो महाभास्कर्य, लघु भास्कर्य, और आर्य भट्टिया भाष्य नमक ग्रंथो की रचना की. इन ग्रंथो में खगोल विज्ञान के कई सिद्धांतों का वर्णन है.
लल्ला : लल्ला नामक खगोल वैज्ञानिक 8 वि सदी में हुए हैं, इन का प्रमुख ग्रन्थ शिष्याधिव्र्द्धिदा है, इसमें आर्य भट्ट के कई सिद्धांतो को ठीक किया गया हे.
भास्कर द्वितीय – इनका समय काल 1114 इसवी का हे, यह उज्जैन की वेधशाला के प्रमुख थे, इन्होने सिद्धांत शिरोमणि और करानाकुतुहलाह नमक ग्रंथो की रचना की.
इनके आलावा भारत में कई और खगोल शाश्त्री हुए जिन्होंने कई नए ग्रंथो की रचना कर खगोल विज्ञान के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया, इनमे श्रीपति, महेंद्र सूरी, नीलकंठ सोमाया, अच्युता पिसरति प्रमुख हैं.
मैं यहाँ कुछ वेदों के मंत्रो से उद्धरण प्रस्तुत करके प्रमाण सहित संक्षेप में खगोल विज्ञान की सभी जानकारी वेदों में प्राचीन समय से या यूँ कहें की सृष्टि की आदि में ही ईश्वर से प्राप्त होती है , उनको यहाँ दे रहा हूँ ।
आर्य उच्च कोटि के विद्वान थे, इसको हम इस प्रकार सिद्ध कर सकते है :-
1. पृथ्वी के आकार का ज्ञान:-
चक्राणास परीणह पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमाना ।
न हिन्वानाससित तिरुस्त इन्द्र परि स्पशो अद्धात् सूर्येण ॥ -ऋग्वेद१-३३-८
मंत्र से स्पष्ट है कि पृथ्वी गोल है तथा सूर्य के आकर्षण पर ठहरी है। शतपथ में जो परिमण्डल रूप है वह भी पृथ्वी कि गोलाकार आकृति का प्रतीक है।
भास्कराचार्य जी ने भी पृथ्वी के गोल होने व इसमें आकर्षण (चुम्बकीय) शक्ति होने जैसे सभी सिद्धांतों वेदाध्ययन के आधार पर ही अपनी पुस्तक सिद्धान्त शिरोमणि(गोलाध्याय व ४-४) में प्रतिपादित किये।
आयं गो पृश्निर क्रमीदसवन्मातारं पुर: ।
पितरं च प्रयन्त्स्व ॥ – यजुर्वेद ३-६
मंत्र से स्पष्ट होता है कि पृथ्वी जल सहित सूर्य के चारों ओर घूमती जाती है।
भला आर्यों को ग्वार कहने वाले स्वयं जंगली ही हो सकते है। ग्रह-परिचालन सिद्धान्त को महाज्ञानी ही लिख सकते है।
3. वेद सूर्य को वृघ्न कहते है अर्थात पृथ्वी से सैकड़ो गुणा बड़ा व करोड़ो कोस दूर। क्या ग्वार जाति यह सब विज्ञान के गूढ रहस्य जान सकती है?
4. दिवि सोमो अधिश्रित -अथर्ववेद १४-९-९
जिस तरह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है, उसी तरह पृथ्वी भी सूर्य से प्रकाशित होती है।
5. एको अश्वो वहति सप्तनामा । -ऋग्वेद १-१६४-२
सूर्य की सात किरणों का ज्ञान ऋग्वेद के इसी मंत्र से संसार को ज्ञात हुआ ।
अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मय: । – अथर्ववेद १७-१०-१७-९
सूर्य की सात किरणें दिन को उत्पन्न करती है। सूर्य के अंदर काले धब्बे होते है।
6. यं वै सूर्य स्वर्भानु स्तमसा विध्यदासुर: ।
अत्रय स्तमन्वविन्दन्न हयन्ये अशक्नुन ॥ – ऋग्वेद ५-४०-९
अर्थात जब चंद्रमा पृथ्वी ओर सूर्य के बीच में आ जाता है तो सूर्य पूरी तरह से स्पष्ट दिखाई नहीं देता। चंद्रमा द्वारा सूर्य को अंधकार में घेरना ही सूर्यग्रहण है ।
महाभारत में भी खगोल विज्ञान से संबंधित जानकारी मिलती है। महाभारत में चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की चर्चा है। इस काल के लोगों को ज्ञात था कि ग्रहण केवल अमावस्या और पूर्णिमा को ही लग सकते हैं। इस काल के लोगों का ग्रहों के विषय में भी अच्छा ज्ञान था।
सभी वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र लुप्त है, शेष के प्राप्त होते हैं।
(१) ऋग्वेद का ज्यौतिष शास्त्र आर्चज्याेतिषम् : इसमें ३६ पद्य हैं।
(२) यजुर्वेद ज्यौतिष शास्त्र याजुषज्याेतिषम् : इसमें ४४ पद्य हैं।
(३) अथर्ववेद का ज्यौतिष शास्त्र आथर्वणज्याेतिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं।
* ऋषि लगध को वैदिक ज्योतिष का प्रणेता आचार्य माना जाता है।
* लगध ऋषि का प्रमुख नवोन्मेष तिथि (महीने का १/३०) एक मानक समय मात्रक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
* लगध मुनि द्वारा प्रोक्त वेदाङ्ग ज्यौतिषम् में याजुष ज्योतिष प्राप्त होता है।
* वेदाङ्ग ज्यौतिषम् के व्याख्याकारों ने उसी ग्रन्थ में परिशिष्ट रुप में आर्च ज्यौतिषम् और आथर्वण ज्यौतिषम् का संकलन किया है।
* लगध मुनि द्वारा लिखित वेदाङ्ग ज्यौतिषम् अबतक प्राप्त ज्यौतिषग्रन्थों में सबसे प्राचीन और अद्भुत ग्रन्थ है।
* लगधाचार्य ने परमाधिक दिनमान 36 घटी=14 घंटा, 24 मिनट के तुल्य जो उल्लेख किया है, तदनुसार यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि लगधाचार्य उत्तर भारत के उत्तर हिमालय की किसी चोटी के समीपस्थ गुफा में तपोनिष्ट थे।
- ✍🏻श्रीभागवतानन्द गुरु
लगध ऋषि- महान गणितज्ञ
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लगध ऋषि ने लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष को अपने ज्ञान से लाभान्वित किया था। इन्होंने वेदांग ज्योतिष नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह संभवतः गणित का प्राचीनतम ग्रंथ है। लगध ऋषि ने ही तिथि गणना के व्यवस्थित प्रारूप बनाया था। उन्होंने एक युग में पाँच वर्ष (संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर) मानकर प्रत्येक वर्ष को दो अयनों, छः ऋतुओं तथा बारह महीनों में विभाजित किया। अयनों के नाम उत्तरायन अाैर दक्षिणायन तथा ऋतुओं के नाम शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् अाैर हेमन्त हैं। बारह महीने क्रमशः तपः, तपस्य, मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभः, नभस्य, इष, उर्ज, सहः अाैर सहस्य हैं। इन्हें माघ , फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अाषाढ, श्रावण, भाद्र, अाश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष अाैर पाैष भी कहा जाता है। प्रत्येक महीने में शुक्ल अाैर कृष्ण नामक दो पक्ष होते हैं। उन्होंने दोनों पक्षों में पंद्रह-पंद्रह तिथियां एवं प्रत्येक महीने में १५ मुहूर्ताें का दिन अाैर १५ मुहूर्ताें का रात्रि निर्धारित किया। एक महीने में तीस दिन मानने की वर्तमान पद्धति उन्हीं की देन है। लगध ऋषि ने सौर और चंद्र वर्षों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए अधिमास की भी व्यवस्था दी थी, जिसके अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष में महीनों की संख्या बारह के स्थान पर तेरह कर दी जाती थी।
प्राकृतिक अवयवों का सूक्ष्मतम निरीक्षण-परीक्षण करते हुए मानव-जीवन पर उनके प्रभावों का अध्ययन और इन प्रभावों का कारण ज्योतिषशास्त्र का विषय है...! चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र की गति और इस गति से आए बदलाव का अध्ययन यहीं है। ज्योतिष व्यवहारशास्त्र है....! ज्ञान-राशि वेदपुरुष के नेत्र रूप में प्रतिष्ठित है... ज्योतिष! चलिए आप लोग को गाँव ले चलते हैं......
हम शाम को चूल्हा बारने की तैयारी में थे.. तभी अम्मा को पूछते हुए दीनानाथ कंहार आए.... अम्मा खरिहाने की ओर गई थीं.... हमको थोड़ा-सा लउकी-कोहड़ा का बिया(बीज) देकर तेज कदम से बखरिया को ओर बिया बांटने बढ़ गए....! इधर अम्मा.. लगभग दौड़ती हुई आईं... मुट्ठी में कुछ लिए हुए... कुछ अंचरा में गठियाये हुए.....! तरोई... सरपुतिया... सेम का बिया.... खुरपी लेकर... ओरउनी के कोने-कोने बोने लगीं बीज...! समझ नहीं आ रहा था... पूरा गाँव हड़बड़ी में बोए जा रहा है सब्जियों के बीज... कोई खास वजह...
अम्मा हाथ धोकर.. चाय के इंतजार में चूल्हा झांकते हुए बोलीं.... काल आद्रा लग जाएगा.... आद्रा नक्षत्र में बीज बोने से फल टिकता नहीं है... या फिर फल में कीड़े पड़ जाते हैं...! जिज्ञासा हुई कि यह बीज कब तक उगेंगे.....! अम्मा बोलीं....
"हथिया में हाथ-गोड़, चित्रा में फूल.. चढ़े सवाती झप्पा झूल.....!"
हथिया नक्षत्र में पौधे विकसित होंगे.... चित्रा नक्षत्र में फूलेंगे... और स्वाति नक्षत्र में फल लद जाएंगे....! मेरी अम्मा(दादी) ज्योतिषशास्त्र नहीं पढ़ीं हैं... सच बता दें... अँगूठा लगाती हैं... अस्सी की होने वाली हैं...! लेकिन मौसम और मनुष्य के बीच की समझ उनमें है...! अब जब लोक में अनुभव और परम्परा से सब सिद्ध है तो शास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ती है....? वार्तिककार ने यह भी बता दिया है कि शास्त्र का काम क्या है...
लोकतो$र्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियम:
अर्थात् लोकव्यवहार से अर्थ के निमित्त शब्द का प्रयोग सिद्ध होने पर शास्त्र धर्म का नियम करता है...। अब यहाँ ज्योतिष यदि लोकव्यवहार से सिद्ध है तो शास्त्र द्वारा किया गया धर्म-नियम किस अर्थ का सूचक है... पंतजलि धर्मनियम: शब्द पर भाष्य लिखते हुए कहते हैं कि...
1. धर्माय नियम धर्मनियम:
2. धर्मार्थो वा नियमो धर्मनियम: और
3.धर्मप्रयोजनो वा नियमो धर्मनियम:।
अब ज्योतिषशास्त्र में ग्रह, नक्षत्र, ऋतु, लग्न, स्थान, काल के अनुसार जिसमें जन-जन का कल्याण हो... ऐसे नियमों का विधान है...। अमुक तिथि में अमुक कार्य इष्ट फलदायी है... यह ज्योतिषशास्त्र बताता है...। इसी तरह जन्मस्थान, समय के आधार पर नामकरण विधान, शुभ मुहूर्त के अनुसार विवाह... यज्ञादि अनुष्ठान हेतु काल-निर्धारण सम्बन्धी नियम ज्योतिषशास्त्र में अनुशासित हैं। जिनका उद्देश्य जन-कल्याण है। इष्ट-फल की सिद्धि है...।
वेदाङ्ग ज्योतिष इस विद्या का प्राचीनतम लक्षण ग्रन्थ है, यह लगध प्रणीत है। इसका प्रथम पाठ आर्च ऋग्वेद से सम्बद्ध है, जिसमें छत्तीस श्लोक हैं। जबकि दूसरा पाठ याजुष यजुर्वेद से सम्बद्ध है.. और इसमें चौवालीस श्लोक हैं।
इसके पश्चात सिद्धांत युग है, इस युग में वराहमिहिर ने पांच सिद्धांत ग्रन्थों का सारांश अपने पंचसिद्धांतिका नामक ग्रन्थ में दिया है। यह पांच सिद्धांत इस प्रकार हैं.... 1. पितामह सिद्धांत 2.रोमक सिद्धांत 3.पुलिश सिद्धांत 4. वसिष्ठ सिद्धांत और 5. सूर्य सिद्धांत।
इसके बाद वैज्ञानिक मित्र आर्यभट्ट विरचित आर्यभटीय ग्रन्थ है, जिसमें कुल 121 श्लोक हैं। यह ग्रन्थ चार खण्डों में विभाजित है.... 1.गीतिकापाद 2.गणितपाद 3.कालक्रियापाद 4.गोलपाद। इसके बाद परम्परा में गति है... लाटदेव, भास्कर प्रथम, ब्रह्मगुप्त, कल्याणवर्मा, लल्ल, आर्यभट्ट द्वितीय, मुंजाल, उत्पल, पृथुदक स्वामी, श्रीपति, शतानन्द, भास्कराचार्य द्वितीय आदि प्रमुख वैज्ञानिक हुए। इसमें ब्रह्मगुप्त के सिंद्धान्तों में बीजगणित के स्रोत मिलते हैं।
भास्कराचार्य के बाद फलित, जातक, मुहूर्त विषय ग्रन्थ अधिक लिखे जाने लगे, वल्लालसेन जोकि राजा लक्ष्मणसेन(12वीं शताब्दी) के पिता थे, ने अद्भुतसागर नामक वृहत ग्रन्थ बनाया..। इस क्रम में प्रमुख ज्योतिषी मकरन्द, गणेश दैवज्ञ, नीलकण्ठ और कमलाकर हैं।
कालांतर में वेधशालाएं ज्योतिष गणना का प्रधान साधन बनीं। वैज्ञानिक वेधशाला का निर्माण जयपुर नरेश सवाई जयसिंह द्वितीय ने करवाया.... ये राजा राजनीति में उलझे वैज्ञानिक थे... इन्होंने आकाशीय पिण्डों की वेधप्राप्त तथा गणना-प्राप्त स्थितियों के अंतर को सुधारने के लिए जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, काशी तथा मथुरा में वेधशालाएं स्थापित कीं।
आधुनिककाल में ज्योतिष के प्रसिद्ध आचार्य बाबूदेव शास्त्री, केरो लक्ष्मण छत्रे, चन्द्रशेखर सिंह सामंत, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, केतकर, बाल गंगाधर तिलक, सुधाकर द्विवेदी हैं।
सुधी श्रोताओं और सचेष्ट वक्ता को अशेष शुभकामनाएं....!
✍🏻डॉ. कल्पना दीक्षित
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