२१जून, अन्तरराष्ट्रीय योगदिवस पर विशेष आलेख—एकान्त की ओर
श्री कमलेश पुण्यार्क 'गुरूजी'
बहुत सारे भ्रामक शब्दों की सूची में “ एकान्त ” भी एक है, जिसका हम प्रायः गलत अर्थ लगा लेते हैं। ऋषि, महर्षि, स्वामी, संन्यासी, पंडित, आचार्य आदि कुछ ऐसे शब्द हैं, जिन्हें हम सहज ही ग्रहण कर लेते हैं। स्वीकार कर लेते हैं। सम्मान सूचक शब्दों की सूची में सहजता से समाहित कर लिए हैं इन्हें। विप्रवंश जात होने के कारण या पूजा-पाठ- कर्मकाण्ड कराने वाले को पंडित कह देते हैं। जटा-जूट, चीवर-चीमटा, दण्ड-शूलधारी को स्वामी-संन्यासी मान लेते हैं। थोड़ा और आदर देने के ख्याल से ऋषि-महर्षि करार देते हैं । जबकि इन सभी शब्दों का बहुत ही गहन अर्थ है। इन शब्द-मर्यादा की कसौटी पर आज के समय में शायद ही कोई खरे उतरे। मजे की बात है कि सामान्य प्रयोग में आने वाला “कुशल” शब्द भी इसी सूची में है, जो ठीक-ठाक के अर्थ में रुढ़ हो गया है। जबकि कुश वनस्पति लाने में दक्ष व्यक्ति को कुशल कहा जाता है। इसी तरह मौन और चुप को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया जाता है। इन एक-एक शब्दों का विस्तृत विश्लेषण हो सकता है। किन्तु यहाँ इनमें से सिर्फ एक शब्द—एकान्त को लेकर बात आगे बढ़ाते हैं । इस एक के सहारे ही हो सकता है हम अनेक को लब्ध हो जाएँ।
आजकल अकेलापन और एकान्त को लेकर बड़ा ही भ्रम है जन- मानस में । क्यों कि अकेलापन को एकान्त मान लिए हैं। “असंगवास” को भी एकान्त समझ लिए हैं। सोशलमीडिया के दौर में आभासी दुनिया को ही सच मान वैठे हैं। मित्रता, प्रेम, कलह, अफवाह से लेकर आत्महत्या तक सबकुछ आभासी दुनिया के मंच पर घटित हो जा रहे हैं। हमारे मित्र, शत्रु, समर्थक, विरोधी की संख्या लाखों-करोड़ों में गिनी जा रही है। सौ और हजार तो आम बात है। ऐसे में बड़ा ही कठिन है, ये समझापाना कि यह संसार ही मिथ्या है—ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या...।
समझने और विचारने जैसी बात है कि भोग्य संसाधनों की बहुलता और सुलभता के बीच अवसाद (डिप्रेशन) और आत्महत्या जैसी घटनाएँ बिलकुल आम हो गयी हैं। भोलेभाले किसान, स्कूली बच्चे, कामकाजी या घरेलू महिलाएं, अफसर, उद्योगपति, नेता, अभिनेता यहाँ तक कि साधु-सन्त-महात्मा कहे-माने जाने वाले लोग भी आत्महत्यारे की सूची में हैं।
स्पष्ट है कि अर्थ की महत्ता गौण है यहाँ। ऋणबोझ से दबे किसान की आत्महत्या और परीक्षा में असफल विद्यार्थी की आत्महत्या का कारण कदापि एक समान नहीं हो सकता। घरेलू महिला की आत्महत्या और अफसर, उद्योगपति, नेता, अभिनेता, प्रवचनकर्ता, महात्मा की आत्महत्या कदापि एक जैसी नहीं हो सकती । किन्तु प्रत्यक्ष और दृश्य कारण भले ही भिन्न हों, इनके मूल में अदृश्य कारण तो बिलकुल एक है—इसे स्वीकारना होगा ।
कुछ नहीं बोल पाने की मनःस्थिति-परिस्थिति में हम चुप्पी साध लेते हैं। इस गुपचुप अवस्था को मौन कदापि नहीं कहा जा सकता । मौन बहुत ही महान उपलब्धि है मानव के लिए, जिसमें सुख-शान्ति की कौन कहे, आनन्द का सिंहद्वार खोलने की क्षमता है।
कमरे में अकेले बन्द होकर, आँखें मीच लेने को ही एकान्त समझ लेते हैं। हमारे आसपास कोई नहीं होता, जिससे हम संवाद-परिवाद कर सकें, तो स्वयं को अकेला कहने लगते हैं।
एकान्त के लिए जंगल, पहाड़, कन्दरायें ही अनिवार्य हैं, ऐसी बात नहीं। आभासी दुनिया में लाखों की भीड़ में भी जिस तरह अकेलेपन का भान होता है, उसी तरह तुमुल कोलाहल के बीच भी हम एकान्त सेवी हो सकते हैं। आवश्यकता है सिर्फ निरन्तर अभ्यास की। संन्यास ले लेना, गृहत्यागी हो जाना तो कर्तव्यों से पलायन है। मैदान छोड़कर भाग जाने की स्थिति है। च्युति और भटकाव का भय भी है। सद्गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए यम-नियमों के सहारे ऊर्ध्वगति करते हुए, आत्म-संन्यस्त हुआ जा सकता है। इसमें तनिक भी संशय नहीं ।
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