इतिहास के पन्नो से
१७ वीं सदी में इंगलिस्तान की हालत बयान करते हुए , इतिहासकार ड्रेपर लिखता है ,
"इंग्लैड में किसानों की झोपड़िया नरसलो और झाड़ियों की बनी होती थी , जिनके ऊपर गारा पोत दिया जाता था , घर मे घास जला कर आग पैदा की जाती थी , धुंए के निकलने के लिए कोई जगह नही होती थी । सड़को पर डाकू फिरते थे और नदियों पर समुद्री लुटेरे , कपड़ो और बिस्तर में जुए । आम तौर पर लोगो का आहार होता था , मटर , उड़द , जड़े और वृक्षो की छाले । जिस तरह का समान एक अंग्रेज के घर मे होता था , उससे मालूम होता है कि गांव के पास नदी के किनारे जो ऊदबिलाव मेहनत से मांद बनाकर रहता था उसकी और एक अंग्रेज किसान के हालात में कोई भेद न था ।
'शहर के लोगो की हालत भी गांव के लोगो से बहोत अलग न थी । शहरियो का बिछोना भूसे का एक थैला होता था और तकिये की जगह लड़की का एक गोला ।'
न कोई कारखाना था , और न ही कोई वैद्य , सफाई का भी कही कोई प्रबन्ध न था । अंग्रेज जाती अशिक्षित थी , कि पार्लियामेंट और हाउस ऑफ लार्ड के बहोत से प्रतिनिधि पढ़ लिख भी नही सकते थे । लन्दन की गलियों में लालटेन का कहि कोई निशान न था । टाइन नदी के तट पर रहने वाले लोग अमेरिका के आदिम निवासियों से कही भी कम न थे । उनकी आधी नंगी स्त्रियां जंगली गाने गया फिरा करती थी , पुरुष अपनी कटार घुमाते हुए नाचा करते थे ।
उच्च श्रेणियों में सदाचार की हालत यह थी कि जब भी किसी की मृत्यु होती थी , तो लोग यही मानते थे कि उसे किसी ने जहर दे कर मारा है । ईसाई पादरियों में भयंकर दुराचार फैला हुआ था , खुले तौर पर कहा जाता था कि इंगलिस्तान में एक लाख औरते ऐसी थी जिन्हें पादरियों ने खराब करके रखा हुआ था । कोई भी पादरी अगर बड़े से बड़ा जुर्म भी करता था तो उसे थोड़ा सा जुर्माना ही देना पड़ता था । मनुष्य हत्या के लिए पादरियों को केवल 6 शिलिंग (करीब 5 रुपये) जुर्माना देना होता था ।
✍🏻हिमांशु शुक्ला
ऐसा होता है धार्मिक अंधविश्वास,,
हर कोई ऐर-गैर मुँह उठाए किसी भी छोटी मोटी घटना पर #सनातन धर्म संस्कृति पर भौकने के लिए आ धमकता है,,
शिवलिंग पर #दूध चढ़ाओ तो अंधविश्वास,, मूर्तिपूजा करो तो अंधविश्वास,, #पितरों के लिए श्राद्ध करो तो ढोंग,, तिलक लगाने को पाखंड कहना,,यज्ञ करने पर घी और पदार्थो के नाश का ज्ञान,,ऐसी कितनी ही बातें हैं जब #कम्युनिस्ट,,विधर्मी लोग लांछन लगाने से बाज नहीं आते,,क्योंकि हिन्दू सॉफ्ट टारगेट लगते हैं,,
अमेरिका में एक #ईसाई धर्मगुरु हुए हैं Jim Jones,,,उसने एक नया पंथ शुरू किया था पीपल्स टेम्पलअमेरिका के पास #गुयाना के जंगलों में 3800 एकड़ में एक आश्रम बनाया,, नाम दिया #जोन्सटाउन,, आश्रम में बाहरी व्यक्ति के प्रवेश पर मनाही थी,,सिर्फ वे लोग ही वहां रह सकते थे जो जीसस क्राइस्ट को एकमात्र ईश्वर और जिम जोन्स को एकमात्र जीवित मसीहा मानते हैं,,
18 नवम्बर 1978 को विश्व का सबसे बड़ा सामुहिक #आत्महत्या का आयोजन हुआ था वहां पर,, उस धर्म गुरु ने कहा कि ये एकमात्र #अमर होने का रास्ता है,, जो इसको चुन लेगा वह अमरत्व को प्राप्त करेगा,, और उस दिन 913 लोगों ने #सायनाइट जहर पीकर एकसाथ आत्महत्या की,,
पिछले साल दिल्ली में 11 लोगों की आत्महत्या पर अमेरिका तक के अखबार #धार्मिक अंधविश्वास पर ज्ञान दे रहे थे,, वे अपने ही घर में हुई घटना को कैसे छुपा सकते हैं??
असली धार्मिक अंधविश्वास तो ये है कि #जन्नत में 72 हूर मिलेंगी तो लोगों के चिथड़े उड़ा दो,, असली धार्मिक अंधविश्वास तो ये है कि हजारों लोग एक धर्मगुरु के इशारे पर अमरत्व को प्राप्त करने के लिए #आत्महत्या का रास्ता चुने,,
ऐसी घटना जब भी,, जहां भी होती है मानवता के लिए एक धब्बा है,, लेकिन मैं कहना सिर्फ इतना चाहता हूं कि हम हर बात में दूसरों का मुंह देखना बंद करें,,
आपकी संस्कृति,, आपका धर्म पूर्णतया वैज्ञानिकता को लेकर चलने वाला है,, सर्वे भद्राणि पश्यन्ति का संदेश दिया है हमारे पूर्वजों ने,, यत्र विश्वम भवति एकनिड़यम,,और वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा यहीं से पनपी हैं,,
दूसरे तो इस पवित्र और मानव मात्र का कल्याण चाहने वाली संस्कृति को नष्ट करने पर तुले ही हैं,, जाने अनजाने हम उनका साथ न दें,, अपनी ही #परम्पराओं को,, रीति रिवाजों को गालियां न दें,,
अभी कावड़ पर और शिवलिंग पर दूध चढ़ाने को लेकर कुछ आर्य बन्धु भी ज्ञान देने लगेंगे,,
अगर कोई बात समझ में #नहीं आती है तो इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि वो अंधविश्वास है,,आपके पूर्वजों ने कुछ बहुत ही पवित्र उद्देश्य के लिए और आपके कल्याण के लिए उसे शुरू किया होगा कभी,,
मेरे भाई धार्मिक अंधविश्वास ये है। तिलक लगाने से या दूध चढ़ाने से मानवता की कुछ हानि नहीं होने वाली,,,
बात तो ये है कि अगर कभी सच्चा इतिहास लिखा जाए तो #इस्लाम सबसे ज्यादा #हत्याएं और #ईसाइयत सबसे ज्यादा #आत्महत्याएं करने और करवाने वाला मज़हब सिद्ध होगा,,,
अपनी संस्कृति,, अपने धर्म पर गर्व करें,, यह एकमात्र जीवन पद्धति है जो #सहअस्तित्व की बात करती है,,
जोन्सटाउन में 913 लोगों की मृत देह जो कई दिन तक उसी अवस्था में पड़ी रही,,,ईश्वर ऐसे धार्मिक अंधविश्वास से लोगों की रक्षा करे,, ॐ शांति,,
✍🏻स्वामी सूर्यदेव
कुछ आधारभूत बातों के विषय में स्पष्टता आवश्यक है .
“संस्कृति” शब्द भारत में अत्यंत प्राचीन है .स्वयं वेदों में उसका उल्लेख है.ऋग्वेद में उद्घोष है :सा प्रथमा संस्कृति: विश्ववारा”. इससे स्पष्ट है कि भारतीय और वैदिक कसौटी पर संस्कृति वैश्विक होती है .
यह ठीक है कि यह बात ऋग्वेद में कही गई और वेदों की रचना भारतीयों ने की है इसलिए इसे कहा जा सकता है कि यह भारतीय शब्द है परंतु इसका प्रथम रूप इसी रूप में व्यक्त हुआ है कि संस्कृति विश्वव्यापी होती है .
इसके विपरीत यूरोप में CULTURE शब्द का आधुनिक अर्थ में उपयोग 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध बल्कि 19वीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ है और वह भी न्रतत्वशास्त्रियों द्वारा २० वीं शती ईस्वी में व्यापक हुआ है . प्रत्येक Anthropologist jo यूरोप और अमेरिका के हैं ,उनके अलग-अलग Interpretation हैं पर सब का सार यह है कि किसी भी समाज या किसी समूह के खान-पान,रहन-सहन ,मान्यताओं , आदतों , प्रथाओं आदि के समुच्चय को Culture कहते हैं .उस शब्द का अनुवाद हमारे यहां संस्कृति कर दिया ,जो गलत है .
उसे कहना चाहिए खान पान, रहन सहन , प्रथाएं और मान्यताएं .यह हमारे यहाँ संस्कृति नहीं कहा गया था ,आहार विहार कहा था .
हम सभी जानते हैं कि अंग्रेजी में culture लगभग ४00 साल पुराना शब्द है ,जिसका अर्थ होता था निराई गुड़ाई, पॉलिश करना,बगीचे के खर पतवार हटाना . उससे ही एग्रीकल्चर ,हॉर्टिकल्चर , सेरिकल्चर आदि शब्द है .इससे अनुमान आप कर सकते हैं कि culture का वहां क्या संदर्भ है. भारत में कभी भी अपने शास्त्रों में कोई कृषि या उद्यान के कामों को संस्कृति का विशेषण जोड़कर नहीं बताया गया .यहाँ तो संस्कृति का अर्थ है श्रेष्ठ मान्यताएं और प्रवृत्तियां .
संस्कृति शब्द अच्छे गुणों और अच्छी विशेषताओं के अर्थ में लें तो संस्कृति का पर्याय भारत में है “धर्म“
प्राचीन प्रयोग होता रहा है : भारत का धर्म ,अमुक जनपद का धर्म .कुल समूह का धर्म, अमुक समाज का धर्म. उस से मिलता जुलता अर्थ वर्तमान कल्चर का है
अब अगर संस्कृति को हम कल्चर के अर्थ में और वह भी गुण सूचक सूचक अर्थ में प्रयुक्त कर रहे हैं तब पश्चिमी संस्कृति शब्द का उपयोग तमाम लफंगों और उचक्कों की उछलकूद और नमूना बाजी के लिए करना कहां तक उचित है? यह तो अकारण ही किसी एक समाज का अपमान करना है .
तो पहली बात कि उसे कोई यूरोपीय व्यक्ति culture नहीं कहता .
दूसरी बात यह है कि अपनी कल्चर को हम श्रेष्ठ कहें और वहां की विकृतियों को ,वहां के दोषों को उनकी संस्कृति कहें ,यह कहां तक उचित है? पहले तो यह सोच लीजिए.
क्योंकि इस कसौटी के भयंकर परिणाम निकलेंगे और निकल रहे हैं.
हमारे यहां भारतीय समाज तो विश्व का अद्वितीय वीर समाज है परंतु दुर्भाग्यवश 1947 में कायरों का एक झुंड अंग्रेजों से सौदेबाजी में सत्ता पाने के बाद भारत की वीरता से डरने लगा और उसने भारत को कमजोर बनाने की लगातार कोशिश की भारतीय जनता को कुचलने और दबाने का प्रयास निरंतर राज्यकर्ता करते रहे हैं, इसीलिए उन्होंने 1858 का इंडियन आर्म्स एक्ट अभी तक लागू रखा है ताकि भारतीयों का वीरता का अधिकार छिना रहे . तो इसका परिणाम यह है कि हम तो यूरोप और अमेरिका का कुछ बिगाड़ सकने की हैसियत में इन राज्यकर्ताओं कि रहते नहीं बन पाएंगे .कोई वीर राजपुरुष आएंगे, कोई विवेकवान राज्यकर्ता आएंगे ,तब बराबरी का रिश्ता बनेगा. अभी तो भारत के सभी राज्यकर्ता पश्चिमी यूरोप और अमेरिका से दबते हैं. अपने समाज में अपने चापलूसों और चाटुकारों और राज्य के द्वारा रचित संचार माध्यमों आदि के द्वारा चाहे जितनी अपनी झूठी प्रशंसा फैलाते रहे .
मोदी जी दबते नहीं, यही उनकी विशेषता है परंतु बराबरी करने की हैसियत में अभी तक नहीं आए .झूठ बोलने से कभी समाज और देश का भला नहीं होता इसलिए हमें मोदी जी की समुचित प्रशंसा करनी चाहिए लेकिन झूठी चापलूसी बहुत गलत है.
तो अगर हम अपने समाज के दोषों का बोझ पश्चिमी संस्कृति कहकर अन्य लोगों पर डालते रहेंगे , तब इससे कैसी भयंकर हानि संभव है, इसके कुछ उदाहरण तो रोज देखते हैं:
भारत के किसी भी एक कोने में थोड़े से लोग कोई अनाचार कर दे ,कोई अनुचित व्यवहार कर दें तो यूरोप में जो भारतविरोधी तत्व हैं ,वे चिल्लाने लगते हैं कि देखिए ,यह है भारतीय संस्कृति .
कानून में ऊंच नीच और छुआछूत का भेदभाव हमने दंडनीय अपराध घोषित कर रखा है ,पर भारत द्रोही इसकी चर्चा भी नहीं करते और किसी कोने में अगर थोड़ा सा कोई व्यक्ति ऐसा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कर दे तो कुछ तो अपने दलालों के जरिए और कुछ संचार माध्यमों के जरिए ये चिल्लाने लगते हैं कि यही है भारतीय संस्कृति.
कहीं कोई दूर जंगल में एक व्यक्ति किसी कारण से कोई बलि दे दे तो वह कहेंगे कि नरबलि भारतीय संस्कृति है जबकि इसका कारण यह है कि स्वयं यूरोप के सभी समाजों में नरबलि १७ वीं शताब्दी तक हो रही थी और इसे छिपाने के लिए ही वे ऐसा झूठ बोलते हैं पर भारत में तो ज्यादातर लोग सत्य स्थिति नहीं जानते और वे यूरोप के संचार माध्यमों के इतना दयनीय रूप से दास हैं कि वे स्वयं फिर वही पढ़ाने लगते हैं कि भारत में अंधविश्वास है .
यूरोप के अनंत अंधविश्वास की पुस्तकें अंग्रेजी में ही छपी है और स्वयं भारत के बाजार में दिल्ली में, मुंबई में उपलब्ध हैं .यूरोपीय अंधविश्वासों के बारे में पुस्तकों के भंडार हैं लेकिन उसे यह हिन्दू दोही कभी नहीं पढेंगे और जो वहां भारत की किसी अपवाद घटना को भारतीय संस्कृति का लक्षण बताया जाएगा बुरे अर्थ में उसे यह उनके भारतीय दलाल भी उछालने लगेंगे .इतने गए गुजरे हमारे वर्तमान तथाकथित प्रबुद्ध लोगों का एक भाग हो चूका है .
दूसरी बात यह है कि पश्चिमी संस्कृति शब्द का उपयोग यदि करते भी हैं तो गलत अर्थ में तो न करें .
जैसे बफे सिस्टम को कह देंगे कि पश्चिमी संस्कृति आ गयी . कितना बड़ा झूठ है यह . खड़े-खड़े सामूहिक भोजन तो दासों या कर्मकारों के लिए चला है . पहले उनसे बहुत दुर्व्यवहार करते थे , आप मार्क्स को ही पढ़ लीजिये , उन्होंने कितने विस्तार से यूरोप में १९ वीं शताब्दी ईस्वी में श्रमिकों और उनके बच्चों स्त्रियों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार विस्तार से बताये हैं तो उसकी तुलना में २० वीं शताब्दी ईस्वी में सुधार हुआ है और ये बफे सिस्टम चला कि दोपहर खड़े खड़े खा लो और लग जाओ काम में
परंतु हमारे यहां क्या हो रहा है ?संपन्न परिवारों और समूहों में भी भोजन का यह अत्यंत अर्ध सभ्य या असभ्य तरीका चल रहा है. सभी लोग बफेट पद्धति से सामूहिक भोजन कराते हैं और ऊपर से इसे पश्चिमी संस्कृति का अर्थ बताते हैं.
पश्चिमी और पूर्वी दोनों ही यूरोप में ,पहले तो वहां सब लोगों के पास कभी भोजन था ही नहीं .विश्व के संपर्क में आने के बाद वहां से खाद्य पदार्थ ले जाने पर ही यूरोप में ठीक से भोजन शुरू हुआ है क्योंकि वहां तो थोड़ा सा गेहूं और जौ और कुछ और छुटपुट चीजें छोड़ कर कुछ होता ही नहीं था तो अच्छा भोजन वहां एक सामान्य चीज नहीं थी .पहले कच्चा मांस खाते थे फिर मांस पका कर खाने लगे
ना वहां चीनी या शकर थी ,ना कॉफी , चाय ,ना अफीम , गांजा आदि महँगी नशे की चीजें भी नहीं थी तो चीनी चाय कॉफी पीना पिलाना तो नहीं होता था. आज भी वे तो नहीं बनाते हैं ये सब .थोड़ा बहुत खेती होती है.बस .
मसाले से संपन्न जो भोजन हम लोग करते हैं ,जिसे भोजन कहा जाता है ,उसकी संस्कृति तो यूरोप में थी नहीं .क्योंकि उनके पासवे चीजे ही नहीं थी .कितने प्रकार के अन्न नहीं थे ,फल नहीं थे .मसाले नहीं थे .मेवे भी नहीं थे तो वह भोजन की संस्कृति क्या जानेंगे ?अच्छा ,तो हमारे यहां कह दिया जाता है कि कांटा चम्मच से खाना पश्चिमी संस्कृति है. अरे मूरख , यह तो भीषण अज्ञान है .यूरोप में तो कोई संस्कृति कांटा चम्मच की कभी थी ही नहीं . यह तो चीन गए तब जाना कि अच्छा ऐसे खाते हैं . कांटा , छुरी , चम्मच तो चीनी चीजें हैं . तम्बाकू भी यूरोप में नहीं थी तो सिगरेट, चुरुट कुछ भी पश्चिमी या यूरोपीय संस्कृति नहीं है उन्होंने सिगरेट पीना तो भारत आने के बाद सीखा .
आप यह तो कह सकते हैं कि खड़े-खड़े मल त्याग अभी १९ वीं शताब्दी ईस्वि तक पश्चिमी ईसाई संस्कृति था.या स्त्रियों में आत्मा नहीं है , यह मानना यूरोपीय ईसाई संस्कृति थी या सदाचारिणी स्त्रियों को पादरियों द्वारा भयंकर यातना देना , वह भी सार्वजानिक रूप में घोषणा करके , यह ईसाई संस्कृति थी पर वह सब तो १०० साल से बंद है ,अब तो बड़ा सुंदर व्यवहार १०० वर्षों से हो रहा है
‘वस्तुतः उनकी उन विकृतियों को यूरोपीय देशों की संस्कृति कहना सही नहीं है .(यों मैं शुरू से कह रहा हूं कि पश्चिमी संस्कृति शब्द गलत है पर अभी समझाने के लिए इसका उपयोग कर रहा हूं )
यों तो यह कह सकते हैं कि नर-नारी के स्वाभाविक मिलन को, प्रेम और प्रणय पूर्ण समागम को पाप मानन पश्चिमी ईसाईयत है . इसी प्रकार पश्चिमी और पूर्वी दोनों ईसाइयों को संसार के बारे में मूलभूत ज्ञान प्राप्त करना नहीं आता था. संसार के संपर्क में आने के बाद नवजागरण के बाद वहां संसार के ज्ञान की भूख जगी लेकिन उस ज्ञान को स्वयं उन देशों के लोगों से प्राप्त कर इस तरह प्रस्तुत करना मानो उस ज्ञान के मूल स्रोत वे स्वयं हैं, ऐसी उद्दंडता यूरोप का लक्षण है या पश्चिमी सभ्यता है , आप कह सकते हैं पर इस से लाभ क्या होगा ?
सच तो यह है कि यूरोप के आधुनिक लोग स्वयं ईसाइयत और चर्च को नहीं मानते और द्विधा विभक्त हैं .चर्च की निंदा नहीं करते. चर्च के विरुद्ध कुछ बोलते नहीं परंतु चर्च के अनेक रीति रिवाजों से बचते हैं और जहाँ ईसाईयत विज्ञान की पूर्ण वर्जना करती थी , आज यूरोप के सभी प्रबुद्ध जां विज्ञान को ही प्रधानता देते हैं .
इस प्रकार पश्चिमी ईसाईयत से आधुनिक प्रबुद्ध यूरोप का बहुत बड़ा अंतर है और आधुनिक प्रबुद्ध यूरोपीय प्रबुद्ध भारत के निकट है. हम चाहे तो कह सकते हैं कि प्रबुद्ध यूरोपीय हिन्दू जैसा ही है . यूरोपियों की संस्कृति आज प्रबुद्ध संस्कृति है .
भारत में फैलने वाली हर विकृति को इस तरह पश्चिमी संस्कृति कह देना एक तो उनके प्रति अनादर है , दूसरे असत्य हैं, तीसरे उनको भी हमारे बारे में मनमानी कहने की छूट देने का अवसर देना है .
मेरा मानना है कि कम से कम जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के शीर्ष लोगों ने तथा कुछ बड़े अफसरों ने यह काम जानबूझकर शुरू किया ताकि एक तो वे जो भारत के धर्म का नाश कर रहे हैं ,उधर लोगों का ध्यान न जाए बल्कि उसको पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बताया जाए और दूसरे यूरोप वालों को यह मौका मिले कि इस बहाने वे भारतीय संस्कृति पर निरंतर आक्रमण करें और भारत के किसी दूरदराज कोने में भी कोई एक बुरी घटना घट जाए तो उसे भारतीय संस्कृति का लक्षण बताते रहें .
इस तरह सत्य की दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से और राष्ट्रहित तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों की दृष्टि से सभी कसौटियों पर पश्चिमी संस्कृति शब्द का प्रयोग हमारी विकृतियों के लिए करना अनुचित है ,हानिकारक है और अज्ञान का सूचक है .
अब हमारी नई पीढ़ी की समस्या है कि उसे यही सिखाया गया है कि जगह-जगह विद्यार्थी देर रात तक जगना .,भक्ष्य अभक्ष्य खाना पीना ,उटपतंग कपड़े पहनना ,आदि जो काम होते हैं, उसे पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहा जाए नहीं तो क्या कहा जाए ?
सीधी बात है , उसे अनाचार कहा जाये , अधपगलापन कहा जाये . मानसिक असंतुलन , कुंठा , अविकसित चित्त दशा आदि ही कहा जाये .
हमें दुनिया के किसी भी समाज का अनादर नहीं करना चाहिए.वेद कहते हैं :
मित्रस्याहम चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे , मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे :
हम मित्र भाव से समस्त विश्व को देखें और मित्र भाव से ही सम्यक मूल्यांकन करें , गुण दोष विवेचना करें
दुनिया को, दुनिया के किसी एक हिस्से को अपना शत्रु मानना अनुचित है , विवेचना निर्भय होकर करें अपना भी विवेचन करें, समीक्षा करें. लेकिन संसार में कोई सब हमारे शत्रु बैठे हैं , मित्र कोई है ही नहीं ,यह दृष्टि भारतीय नहीं है क्योंकि यह सत्य नहीं है .
संसार में अगर हमारे शत्रु है, तो मित्र भी खूब हैं . यूरोप के लोगों की बहुत बड़ी संख्या हमारी मित्र है ,शत्रु थोड़े कम है ,लेकिन अभी सत्ता प्रतिष्ठानों में हैं. सत्ता प्रतिष्ठानों में भी हमारे मित्र हैं और साधारण यूरोपीय तो बेचारे कुछ जानते ही नहीं. वे तो श्रम करने में और बाद में मनोरंजन करने में जीवन बिता देते है.
(आगे भी जारी....)
✍🏻रामेश्वर मिश्र पंकज
आइये आपको एक बड़ा सा झूठ सुनाते हैं | बरसों से सुनते आ रहे होंगे, एक बार फिर से मेरा दोहराना भी जरूरी है | आखिर समाज में मेरा भी तो योगदान बनता है !! वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म में होती है | इसाई में नहीं होती, मुस्लिम भी नहीं मानते, मतलब कुल मिला के ये पाप सिर्फ़ हम लोग ही करते है |
Knight in a shining armor सुना होगा शायद, तो भाई हर सिपाही Knight नहीं हो सकता था, उसके लिए पैदा होना पड़ता है एक ख़ास वंश में | अपनी वंशावली के दस्तावेज दिखाने पड़ते थे अगर किसी भी Tournament में हिस्सा लेना हो या युद्ध में सबसे आगे खड़ा होना हो तो | दस्तावेज कुछ वैसे ही होते थे जैसे आपने कभी गया, या बनारस, या फिर प्रयाग के ब्राम्हणों के वंशावली वाले दस्तावेज देखे होंगे |
इसके अलावा अमीर लोगों को, जमींदारों को Noble Man भी कहा जाता था, अगर आप सोच रहे हैं की अमीर होना एक मात्र शर्त थी Noble होने की तो आप फिर से गलत हैं | यहूदी कभी भी noble नहीं होता था, चाहे फिर वो King Richard को उधार / क़र्ज़ देता हो या फिर King William को इस से फ़र्क नहीं पड़ता | यहूदी अछूत और इसाई न्याय का हकदार नहीं होता था | अगर शक्स्पिअर की Merchant of Venice वाला Shylock याद हो तो आपको पता है की यहूदियों के साथ कैसा व्यवहार होता था | अगर कहीं Rebecca नाम सुना है और Walter Scott की लिखी Ivanhoe जैसी किताबें पढ़ी हैं तो आप अच्छे से जानते हैं की मैं क्या बात कर रहा हूँ |
कांग्रेस ने कई अलग अलग यूनिवर्सिटी / बोर्ड बनाये थे और ICSE या CBSE बोर्ड के छात्रों ने ये किताबें शायद पढ़ रखी होंगी |
अब जरा निचले स्तर पर आते हैं, Fool वैसा ही होता था जैसे भारतीय समाज में भांड होते हैं, नाचने गाने, दिल बहलाने वाले, थोड़े विदूषक जैसे | किसान होते थे, जिनके पास कभी अपनी ज़मीन नहीं होती थी | चरवाहा होता था भेंड़ पालने के लिए, यही छोटे सिपाही होते थे | Page वो बच्चे होते थे जिन्हें चिट्ठियां पहुँचाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, बाद में इनमे से कुछ का promotion कर के उन्हें मंत्री भी बनाया जाता था | एक Squire होता था, ये knight के सहयोगी होते थे, knight नहीं बन पाते थे लेकिन सामान्य सिपाहियों से ज्यादा सम्मानित होते थे |
अभी भी शायद आप कहना चाहेंगे की इनपे धर्म की मुहर नहीं होती थी | ये एक सामाजिक व्यवस्था है जैसी बातें आपके मन में आ रही होंगी | तो आपको फ्रांस की Joan of Arc की कहानी देखनी चाहिए | ये महिला तलवार उठा कर स्वतंत्रता संग्राम में लड़ी थी और इसे चर्च ने सलीब पे टांग के जला दिया था | इनपर इल्ज़ाम था की वो डायन है, क्योंकि उनके छूते ही घाव ठीक हो जाते हैं | उस ज़माने में Witch Hunt की लम्बी प्रक्रिया चली थी | अभी हाल में चर्च ने इन हरकतों के लिए माफ़ी मांगी है | इनके बारे में मगर बात करना पाप है | स्त्रियों को इसाई धर्म में समानता का अधिकार है | वोट देने का अधिकार ज्यादातर इसाई मुल्कों में महिलाओं को भारत के बाद मिला ये अलग बात है |
धर्म की मुहर वैज्ञानिक खोजों पर भी लगी है, चार्ल्स डार्विन की क़िताब उनकी ही यूनिवर्सिटी में प्रतिबंधित थी और गलीलियो को घोड़ों से बाँध कर उसके चार टुकड़े कर दिए गए थे |
ध्यान रहे भारतीय धर्म पिछड़े हैं और पाश्चात्य प्रगतिशील !!!
✍🏻आनन्द कुमार
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