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मां के महान प्यार से जन्मे महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल

मां के महान प्यार से जन्मे महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल

नीरज कुमार पाठक

मां मूलमती जब अंतिम बार बेटे रामप्रसाद से मिलने गोरखपुर की जेल में पहुंची तो राम प्रसाद बिस्मिल की आंखों में आंसू देखकर बोली-यदि तूं रोता हुआ फांसी के तख्ते पर चढेगा तो तूने क्रांति की राह ही क्यों चुनीं। इस पर पर बिस्मिल ने हंसकर कहा- मां मैं मौत से नहीं डरता लेकिन आग के पास रखा घी पिघल जाता है। आपका मेरा संबंध ही ऐसा है कि पास आने पर आंसू बह निकले। नहीं तो मैं बहुत खुश हूं। आपके महान प्यार ने मुझे इंसानी फर्ज तक पहुंचा दिया और तुम्हारी कोख को कलंकित नहीं किया। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें उज्ज्वल अक्षरों में तुम्हारा नाम भी लिखा जाएगा

महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल: 11-06-1897: 19-121927

आजादी के आंदोलन में समझौतहीन क्रांतिकारी, महान कवि एवं विचारक शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का अल्प जीवन संघर्ष, जुल्म व शोषण के खिलाफ लडने के लिए आज भी प्रेरित करता है। वे ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड फेंकने के महान उद्देश्य से सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चले। देश की आजादी के लिए उस अद्वितीय साहसी ने त्याग एवं बलिदान के इतने ऊंचे आदर्श स्थापित कर दिए जो अमिट इतिहास बन गए। गुलामी से मुक्ति की चाह में अपने यौवन का मूल्य पंख से भी हल्का समझा और बेमिसाल संघर्ष करने में अपना सबकुछ झोंक दिया। देश की बहादुर जनता 123वीं जयंती के अवसर पर उनको पूरे आदर व सम्मान के साथ याद कर रही है। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान और भूमिका को कभी भूलाया नहीं जा सकता है।

राम प्रसाद बिस्मिल के पूर्वज तोमरधार क्षेत्र की ग्वालियर रियासत के बरवाई गांव में रहते थे। पारिवारिक कलह से परेशान बिस्मिल के दादा दादी अपने दो लडकों मुरलीधर आठ वर्ष, कल्याणमल छह वर्ष को साथ लेकर इधर से उधर भटकते हुए शाहजहांपुर में आकर बस गए। बिस्मिल की दादी विचित्रादेवी ने लोगों के घरों में दिनरात कमरतोड मेहनत कर एक घर खरीदा। गुजरते वक्त के साथ इस घर में मुरलीधर की पत्नी मूलमती की कोख से 11 जून 1897 को एक शिशु को जन्म दिया, जो इतिहास पुरुष रामप्रसाद बिस्मिल नाम से दुनिया में विख्यात हुए। बिस्मिल की पढाई लिखाई शाहजहांपुर में ही हुई। उर्दू भाषा की पढाई के लिए वे एक मौलवी के स्कूल में भी भेजे गए। बाद में मां मूलमती ने अंग्रेजी भाषा पढने के लिए प्रेरित किया। बिस्मिल को अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और बंगला भाषा का अच्छा ज्ञान था।

स्वामी सोमदेव से प्रभावित होकर उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश पढा और अपनी मां से खूब वार्तालाप के बाद वे आर्यसमाज की ओर आकर्षित हुए। स्वयं बिस्मिल ने लिखा, यदि मुझे ऐसी मां ना मिलती तो मैं अति साधारण मनुष्यों की भांति संसार च्रक में फंसकर जीवन का निर्वाह कर रहा होता। शिक्षा के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसे ही सहायता की है, जैसे मेजिनी की उसकी मां ने की थी। जिस प्यार और दृढता से मेरी मां ने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। जो शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका श्रेय भी मां को है और उनकी दया से ही मैं देशसेवा में सलंग्न हो सका।

1916 में एक सशस्त्र क्रांतिकारी संस्था मातृदेवी का गठन किया गया। रामप्रसाद बिस्मिल और मुकुंदीलाल उसके संस्थापक सदस्य थे। यह दल शिक्षा के प्रचार-प्रसार का काम भी किया करता था। मैनपुरी षडयंत्र केस के नेता गेंदालाल दीक्षित के साथ मिलकर जंगल में पुलिस के साथ लड़े। 50 से अधिक अंग्रेज सैनिक मौत के घाट उतार दिए और 35 क्रांतिकारी भी शहीद हुए थे। उस मैनपुरी अभियोग में गेंदालाल के साथ बिस्मिल भी अभियुक्त थे। गेंदालाल दीक्षित को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया लेकिन बिस्मिल भूमिगत हो गए और पूरे प्रयास करने के बाद भी पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। उन्होंने गेंदालाल को जेल से बाहर निकालने की योजना बनाई परंतु सफलता नहीं मिली। वो लगभग दो वर्ष भूमिगत रहे। बाद में सरकार ने गिरफ्तारी वारंट हटा लिया तो बिस्मिल शाहजहांपुर आ गए लेकिन कोई भी व्यक्ति उनसे मिलने से डरता था कि कहीं पुलिस उन्हें भी पकड़कर न ले जाए।

1922 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन वापस लेने से क्रांतिकारियों को गहरा आघात लगा और उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) पार्टी की स्थापना कर मुख्यालय बनारस में बनाया। दल के लिए हथियार खरीदने का कार्य बिस्मिल का था। एक जनवरी 1924 को चार पेज का पीला पर्चा 'द रिवोल्यूशनरी' रंगून, बंबई, लाहौर, अमृतसर, कलकत्ता, बंगाल सब मुख्य शहर, पेशावर तक एक ही दिन दिवारों पर चिपकाया और वितरित किया। उस पर्चे में स्पष्ट बताया कि भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजाद करवाकर प्रजातंत्र की स्थापना करना है, जिसमें आदमी आदमी का शोषण न कर सके। रामप्रसाद बिस्मिल ने कहा युवक सच्चे देश सेवक बनें। पूर्ण स्वाधीनता उनका ध्येय हो और वे युवक वास्तविक साम्यवादी बनने का प्रयत्न करें। अधिक से अधिक भारतवासियों को सुशिक्षित करने में मदद करें ताकि जनता सच्चाई को समझकर उचित कदम आगे बढ़ा सके।

राम प्रसाद बिस्मिल, स्वामी सोमदेव, परमहंस रामकृष्ण, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद,स्वामी रामतीर्थ, महात्मा कबीर दास, मेजिनी, गदरी आर्ट परमानंद, महामना देशबंधु चितरंजन दास इत्यादि को पूरे आदर्श और सम्मान के साथ देखते थे। लाला हरदयाल ने भी विचार विमर्श किया । बिस्मिल ने रूस की महान अक्टूबर क्रांति से प्रभावित होकर 'बोलेरो विकरें के कार्य' नामक पुस्तक लिखी और साम्यवाद की वास्तविकता बताई। 'अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली' 'मन की लहर' कैथेराइन' 'स्वदेशी रंग' और 'क्रांतिकारी जीवन' यह पुस्तकें लिखी ताकि पुस्तकों को बेचने से जो आमदनी होगी उसे सशस्त्र क्रांति के लिए हथियार खरीदे जाएंगे कई पुस्तकों का अनुवाद किया। अनेक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में जनता को जागृत करने के लिए 'राम' 'अज्ञात', बिस्मिल नाम से लेख और कविताएं लिखी। जिसमें 'सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना है। सब पुस्तकें सरकार ने जब्त कर ली। आमदनी की बजाय घाटा हो गया। ऐसी स्थिति में नई योजना पर आगे बढ़े दल को सूचना मिली कि विदेश से कुछ हथियार आए हैं। उन्हें खरीदने के लिए पैसों की आवश्यकता थी। दल की आर्थिक स्थिति खराब थी कर्ज भी कोई नहीं देता था ऐसे में राम प्रसाद बिस्मिल ने 6 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में एक मीटिंग बुलाई। सब प्रमुख क्रांतिकारियों ने भाग लिया। मीटिंग में बिस्मिल की सुझाई गई रेलवे की संपत्ति लूटने की योजना मान ली गई। अशफाक उल्ला बिस्मिल की उस योजना से सहमत थे और कहा हमारा दल इतना मजबूत नहीं है कि सरकार को चुनौती दे सके। हमारा दल नष्ट हो जाएगा। अंत में गाड़ी लूटने का दिन 9 अगस्त 1925 निश्चित किया गया। वह ऐतिहासिक दिन बना।

9 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी, चंद्रशेखर आजाद, शचीचंद्रनाथ बख्शी, मन्यमनाथ गुप्त, मुकुंदी लाल, केशवचंद्र, मुरारी लाल, बनवारी लाल ये 10 क्रांति बिस्मिल के नेतृत्व मैं शाहजहांपुर से हथियार, छैनी, घन, हथोड़ा, तलवार आदि से लैस होकर पूरे उत्साह से गाड़ी में बैठे । यह गाड़ी सहारनपुर से चलती थी। इसमें सभी स्टेशन के टिकट की बिक्री का रुपया इकट्ठा होकर योजना के अनुसार

उत्तरप्रदेश को काकोरी स्टेशन से थोड़ी दूर जाने पर चेन खींचकर ट्रेन को लिया और धक्का देकर खजाने के सन्दूक को रेल के डिब्बे से नीचे गिरा दिया। गार्ड औंधे मुंह जमीन पर लम्बा पसर गया। सन्दूक की बनावट ऐसी थी उसमें पैसों का थैला डाला तो जा सकता था। लेकिन निकाल नहीं सकते थे। सन्दूक तोड़ी गई। उसमें 8600 रुपये मिले। भारत के आजादी आंदोलन के इतिहास में काकोरी ट्रेन डकैती ब्रिटिश साम्राज्य को खुली चुनौती थी। उस ऐतिहासिक डकैती से बौखलाकर सरकार ने आसपास के क्षेत्रों में गुप्तचर और मुखबिराें का जाल बिच्छा दिया। बदली परिस्थितियों पर विचार करनेे के लिए क्रांतिकारी की एक बैठक 1314 सितंबर 1925 को मेरे घर हुई। 26 सितंबर 1925 करे बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई। 40 से अधिक क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए जबकि 10 आदमी उस ट्रेन डकैती में शामिल थे। ऐसे आदमी भी पकड़े जिनका घटना से कोई संबंध नहीं था। पूरा प्रथा करने के बाद भी पुलिस चन्द्रशेखर आजाद को पकड़ न सकी और अश्फाक उल्ला विश्वासघात को शिकार हो गए। 4 जनवरी 1926 से मुकदमा शुरू हुआ। बनारसी लाल, इन्दुभूषण मुखबिर बन गए। बनवारी लाल इकबाली गवाह बन गया। सरकार ने इस केस में फर्जी गवाह खडे किए और 10 लाख से ज्यादा रुपया खर्च किया। 18 महीने चले मुकदमें के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिडी और रोशन सिंह को फांसी की सजा हुई। 6 अप्रैल 1927 को फैसला सुनाया गया। जबकि ठाकुर रोशन सिंह डकैती में शामिल ही नहीं थे। 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील की गई। भगत सिंह रामप्रसाद बिस्मिल को हर कीमत पर जेल छुड़ाना चाहते थे इसलिए विजय कुमार सिन्हा को सारी परिस्थितियाें का जायजा लेने के लिए भेजा। लेकिन हालत अनुकूल नहीं थे सरकार भगत सिंह को गहरी चोट लगी। प्रांतिय गर्वनर तथा फिर वाइसराय के पास दया प्रार्थाना की गई किंतु वाइसराय ने एक न सुनी। प्रिवी कौंसिल में अपील की गई और वहां से भी अपील खारिज हुई। दो बार काकाेरी केस के अभियुक्तों की फांसी की तारीख बदली गई। 19 दिसंबर1927 को साढ़े छह बजे प्रातकाल काकोरी के अभियुक्तों को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हुई।

18 दिसंबर 1927 को मां मूलमती अंतिम बार बेटे रामप्रसाद से मिलने गोरखपुर की जेल में पहुंची तो पुत्र की आंखों में आंसू देखकर बोली-यदि तूं रोता हुआ फांसी के तख्ते पर चढेगा तो तूने क्रांति की राह ही क्यों चुनीं। उस समय बिस्मिल की मां के साथ महान क्रांतिकारी शिव वर्मा भी साथ थे। इस पर पर बिस्मिल ने हंसकर कहा- मां मैं मौत से नहीं डरता लेकिन आग के पास रखा घी पिघल जाता है। आपका मेरा संबंध ही ऐसा है कि पास आने पर आंसू बह निकले। नहीं तो मैं बहुत खुश हूं। आपके महान प्यार ने मुझे इंसानी फर्ज तक पहुंचा दिया और तुम्हारी कोख को कलंकित नहीं किया। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें उज्ज्वल अक्षरों में तुम्हारा नाम भी लिखा जाएगा

अंतिम समय में अश्फाक उल्ला खां को याद करते हुए उन्होंने कहा- तुमने महान क्रांतिकारी बनकर दुनिया में मेरा मुख उज्ज्वल कर दिया है। हमने एक थाली में भोजन किया और सदैव तुमने मुझे राम कहा। हिंदू मुस्लिम एकता ही हम लोगों की यादगार व अंतिम इच्छा है। 19 दिसंबर 1927 को महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल देश की आजादी के लिए गोरखपुर जेल में हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढकर शहादत को प्राप्त हुए। उनका जीवन संघर्ष आज और हमेशा प्रासांगिक रहेगा।

आज शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की जयंती पर उनकी ही एक कविता से उनकी भावनाओं की विराटता को समझा जा सकता है।

तराना-ए-बिस्मिल

बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,

लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।

लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,

तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।

खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,

ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।

कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?

बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।

यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,

कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे
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