मेघु का लहलुटन(कहानी)
--:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र "अणु"

बात थोडी पुरानी है।अचानक याद आ गई।मेघु के पिता अपने समय के लम्हर लिखाड टाईप के आदमी थे।हमेशा कुछ न कुछ कहीं न कहीं लिखते पढते रहते थे।एक दिन एक स्वजातीय की दृष्टि पडी तो मेघु को प्रेस में काम दिलवा दिये।मेघु दिन रात काम करता लगन के साथ।,मय के साथ पेशा और परिवेशगत लोगो पर पकड बनता गया।बडी ख्याति मिली।पर मेघु अपने समाज परिवार के लोगों से दूरी बनाकर रखता।योग्य और जरूरतमंद स्वजातीय का भी वह कभी भला नहीं करता जबकि और लोगों को अपने साथ रखता।
वह जीस जगह पर था वहां का परिवेश उस पर रंग चढा दिया।पेशा में रंगबाज तो बना पर अपनी परंपरा में बदरंग बन गया।कुछ समय बाद मेघु की मृत्यु हो गई।परिवार पर वज्रपात हो गया।अनुकंपा के आधार पर बडे बेटे को वह मिला जो पिता ने कमाया था।
हलांकि वह व्यवहार और लगन उसके पास नहीं था।लोग उसे लहलुटन कहते थे।वह प्रेस में बडा पद पाया पिता के नाम पर।उसका काम चाटुकारो के माध्यम से चल निकला।हमेशा अपने साथ वह उन लोगों को रखने लगा जो लोग हमेशा हाथ बांध कर खडे रहते।इधर दिन प्रतिदिन लंगट का हाल बेहाल होते जा रहा था।
लंगट का हाल देख मंगत को दया आई।एक दिन बोला जाकर लहलुटन से मिलो वह तुम्हारे हीं विरादरी का है।बडा अच्छा पोस्ट पर है।तुम्हारे ही विषय का।एकबार जाकर मिलो तो तुम्हारा काम बन जायेगा।लंगट ने एक दिन ठान हीं लिया मिलना है तो मिलना है।और निकल गया लहलुटन से मिलने का विचार बनाकर।
नवंबर का महिना था।कडाके की ठंढ थी।एक मोटिहां कंबल लेकर निकला था।लंबे सफर पर ।दूरी डेढ सौ किलोमीटर की थी।जाकर भोर मेंं रेल से उतरा।स्टेशन पर समय गुजारा फिर दस बजे लहलुटन के औफिस पहुंचा और खबर दिलवाया।उधर से आवाज आई---थोडा बैठो।मिलते हैं।तबतक तीन घंटे गुजर गये।पर कोई खोज खबर नहीं।लंगट सोचने लगा---कहां आकर फँस गये।तब लहलोटन अंदर बुलाया।लंगट अंदर जाकर अपना परिचय दिया।वह सुनकर थोडा मुस्कुराया और सामने बेंच पर बैठने का इशारा किया।हलांकि औफिस में कुर्सी लगी थी और खाली पडी थी।लंगट को बडा बुरा लगा।पर देखते रहा।
एक आदमी लहलुटन के जूते का पालिश कर रहा है तो दूसरा सर का मालिश कर रहा है।तीसरा जी सर!जी सर कहकर खीसे निपोर रहा रहा और लहलुटन मजे से कुर्सी पर डंडपेल रहा है।लंगट को अजीब लगा।
दो घंटे बाद लहलुटन ने लंगट को कहा यहां जगह नहीं है तुम्हारे लिए।गलत जगह आ गये हो।और यदि है भी तो तुम्हारे लायक नहीं है।हमारे पास रहने का मतलब है हमारा सब काम करना होगा।जैसे ये लोग कर रहे है।पर ये काम तुम से होगा नहीं।अच्छा होगा तुम घर चले जाओ।
कोई काम नहीं मिला लंगट को इसका दुःख नहीं था पर ये दुःख जरूर था कि यह कैसा स्वजातीय है जो जानकर भी एक ग्लास पानी तक न पुछा।गाँव घर परिवार का समाचार तक न पुछ।
वहां से आने के बाद लंगट की लौट्री लग गई।वह लहलुटन से भी बडे पद पर कार्यरत हो गया।इधर लहलुटन के ऐयाशी से सब छुट गया और उसे अपने घर आना पडा।कोई भी काम उसे खोजने पर भी नहीं मिलता।थक हार कर वह स्वजातीय उत्थान में शामिल हुआ।वहां भी कोई उसकि बात का अहमियत नहीं देता।वह लोगों से कहता की अपने समाज के लोगों को चाहिए की अपने लोगों का मदद करे।जबकि वह अपने समय में किसी जरूरतमंद जो दरवाजे तक गया उसका भी मदद नहीं किया।मदद तो छोडिए कभी एक ग्लास पानी तक न पुछा।
समाज विरोधी लोगों के मुँह से समाज हितैषी का नारा सुनकर कान पक गया है।पर अब विश्वास करना ही मुश्किल है।
----:भारतका एक ब्राह्मण.
. संजय कुमार मिश्र "अणु"
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