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कोई आवईत जाईतो न हे!

कोई आवईत जाईतो न हे!

(मगही मन के पीर)
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हमरा तो कुछ बुझाईतो न हे।
इधर कोई आवईत जाईतो न हे।।
    सभे के चेहरा एकदमे उदास हे,
    जईसे लग हे भीतरहीं से हताश हे।
    न रोवईत बनी थे न हसईत का करीं-
    हमर खोपडी तो ठीक उलटल आकाश हे।
             कोई बइठ के दिमाग खाईतो न हे!!
             इधर कोई आवईत जाईतो न हे!!
हम तो कय दिन से घरवे में बंद ही,
पुछ न ताछ बस बनल गुलकंद ही।
पुछबो जे कर ही का बात हे बाबू-
घुर हे अईसे जईसे जनमे के बंड ही।
        हाथ गोड कनहु अब रोपाईतो न हे!
        इधर कोई आवईत जाईतो न हे!!
   बईठल बईठल घर में कमर भेल सोझा,
   बिखरल बधारे मे हे गेंहू न.बनल बोझा!
   खा गेली रखलका अब आगे का खायेम-
   मिललो हे दुभर कर देलक उ अलग्योझा।
              रोज रोज के अराम ई सोहाईतो न हे!
              इधर कोई आवईत जाईतो न हे!!
सुनली की सरकारी खजाना भेल खाली,
इ हे ला हल पिटल जाईत लोटा आउ थाली।
कहलन खदेरन की अइसन होलव लचारी-
छोड अंडा,मुर्गा,मछली बनल रह शाकाहारी।
                साग भात हमरा से निगलाईतो  न हे!
                 इधर कोई आवईत जाईतो न हे!!
    ----:भारतका एक ब्राह्मण.
       संजय कुमार मिश्र"अणु"


मजदूर!

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     जो सब तरह से मजबूर है-
     आज वही मजदूर है!!
पालने को परिवार, छोडा घर-द्वार,
कहीं करने लगा चाकरी,कहीं बना बनिहार,
मन में हौसला आंखों में नूर है!!
     उठाता रहता है भार,कर नियति को स्वीकार,
    विषम परिस्थितियों से करने को प्रतिकार,
   श्रमिक कर रहा जी हुजूर है!!
मानवों से उत्पीड़ित, धनी दानवों से उपेक्षित,
उलाहनें सुन रहा वह,है असभ्य अशिक्षित,
जबकि मानवता भरपूर है!!
          ---:भारतका एक ब्राह्मण.
           संजय कुमार मिश्र"अणु"