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नारायण कवच

नारायण कवच

भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। उसकी विधि इस प्रकार है:-
पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करें, फिर पवित्रि धारण करक उत्तर मुँह बैठ जायं। सबसे पहले कवच धारण पर्यन्त और कुछ न बोलने का निश्चय कर के पवित्रता से ‘ऊँ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र के ऊँ आदि आठ अक्षरों का क्रमश: पैरों, घुटनों, जांघों, पेट, हृदय, वक्ष:स्थल, मुख और सिर में न्यास करें अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के मकार से लेकर ॐकार पर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अङ्गो में विपरीत क्रम से न्यास करें। इसके बाद ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अङ्ग-न्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करें। तदनन्तर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बायीं तर्जनी तक दोनों हाथ की आठ अंगुलियों और दोनों अंगूठों की दो-दो गाँठों में न्यास करें। फिर 'ॐ विष्णवे नम:’ इस मन्त्र के पहले अक्षर 'ॐ’ का हृदय में, 'वि’ का ब्रह्मरन्ध्र में, 'ष’ का भौंहों के बीच में, 'ण’ का चोटी में, 'वे’ का दोनों नेत्रों में और 'न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करें। तदनन्तर 'ॐ म: अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करें।
इस प्रकार मन्त्र-स्वरूप होकर समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान का ध्यान करें और अपने को भी तद्रूप ही चिन्तन करें। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तप:स्वरूप नारायण कवच का पाठ करें:-

ॐ हरिर्विदध्यानम सर्वरक्षां
न्यस्ताङ्घ्रिपद्म: पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरादिचर्मासिगदेषुचाप-
पाशान् दधानोऽष्टगुणोंऽष्टबाहु:॥१॥

'भगवान श्रीहरि गरुड़ जी की पीठ पर अपने चरण कमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथों में शङ्ख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धणुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से, सब ओर से मेरी रक्षा करें।’
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति:
यादो गणेभ्यो वरुणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्
त्रिविक्रम: खेऽवतु विश्वरूप:॥२॥

'मत्स्यमूर्ति भगवान जल के भीतर जलतन्तुओं से और वरुण के पाश से मेरी रक्षा करें। माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करनेवाले वामन भगवान स्थल पर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रम भगवान आकाश में मेरी रक्षा करें।’
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभु:
पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारि:।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं
दिनों विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भा:॥३॥

‘जिनके घोर अट्टहास से सब दिशाएँ गुँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियों के शत्रु भगवान नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें।’
रक्षत्वशौ माध्वनि यज्ञकल्प:
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराह:।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्याद् भरताग्रजोऽस्मान्॥४॥

'अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को धारण करने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों पर और लक्ष्मण जी के सहित भरत के बड़े भाई भगवान रामचन्द्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें।’
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादात्
नारायण: पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगात् अथ योगनाथ:
पायाद्गुणेश: कपिल: कर्मबन्धात्॥५॥

‘ भगवान नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान कपिल कर्मबन्धनों से मेरी रक्षा करें।’
सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-
द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्य: पुरुषार्चनान्तरात्
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात्॥६॥

‘ परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें।’
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद्
द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद्
बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्र:॥७॥

‘ भगवान धन्वंतरि कुपथ्य से, जितेन्द्रिय भगवान ऋषभदेव सुख-दु:ख आदि भयंकर द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान लोकापवाद से, बलराम जी मनुष्य कृत कष्टों से और श्री शेष जी क्रोधवश नामक सर्पों के गण से मेरी रक्षा करें।’
क्रमश:

प्रस्तुति: ज्योतिर्विद् दिलीप पाठक
MAGADH ASTRO FOUNDATION