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हमारे कंधे से

हमारे कंधे से!(कविता)

     
            उनकी उँचाई-
            मेरे कंधे से है।
            पर ओ मुझे समते-
            अँधे से हैं!!
हम बोझ उठाते रहे,
और वे इठलाते रहे!
जब मेरी जरूरत हुई-
वे आँख चुराते रहे!
जैसे धंधे से है!
        हमें कुछ सिकायत नहीं है,
        जब उनको जरूरत नहीं है!
        ऐसे लोगों को खुब पहचानता हुँ-
        चाहे जो हो पर कुवत नहीं है!
        बिल्कुल गंदे से है!
हम चाहते रहें लोग बढे,
परस्पर ख्वाब गढें!
पर नेक नियति नहीं रही-
कंधे पर चढे-चढे!
हम नेक बंदे से है!!
        ---:भारतका एक ब्राह्मण.
         संजय कुमार मिश्र"अणु"