भगवान शिव की वेशभूषा के रहस्य
पंडित श्रीकृष्ण दत्त शर्मा, अवकाश
प्राप्त अध्यापक
सी 5/10 यमुनाविहार
दिल्ली
आपने भगवान शंकर का
चित्र या मूर्ति देखी होगी। शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक चन्द्र चिह्न होता
है। उनके मस्तक पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते
हैं।

कभी आपने सोचा कि इन सब शिव प्रतीकों के पीछे का रहस्य क्या है?
शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक
ढूंढ सकते हैं। आओ जानते हैं शिव प्रतीकों के रहस्य...
चन्द्रमा :शिव का एक नाम 'सोम'
भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। उनका दिन सोमवार है। चन्द्रमा
मन का कारक है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है।
हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है।
चन्द्र कला का महत्व :मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चान्द्रमास
पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि
आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है।

चन्द्रदेव से संबंध :भगवान शिव के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के बारे में
मान्यता है कि भगवान शिव द्वारा सोम अर्थात चन्द्रमा के श्राप का निवारण करने के
कारण यहां चन्द्रमा ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम
'सोमनाथ' प्रचलित हुआ।
त्रिशूल :भगवान शिव के पास हमेशा एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत
ही अचूक और घातक अस्त्र था। इसकी शक्ति के आगे कोई भी शक्ति ठहर नहीं सकती।
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त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक भी है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन।
त्रिशूल के 3 शूल सृष्टि के
क्रमशः उदय, संरक्षण और लयीभूत होने का प्रतिनिधित्व करते भी
हैं। शैव मतानुसार शिव इन तीनों भूमिकाओं के अधिपति हैं। यह शैव सिद्धांत के
पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधित्व करता है।
माना जाता है कि यह महाकालेश्वर के 3 कालों (वर्तमान, भूत, भविष्य)
का प्रतीक भी है। इसके अलावा यह स्वपिंड, ब्रह्मांड और शक्ति
का परम पद से एकत्व स्थापित होने का प्रतीक है। यह वाम भाग में स्थिर इड़ा,
दक्षिण भाग में स्थित पिंगला तथा मध्य देश में स्थित सुषुम्ना
नाड़ियों का भी प्रतीक है।
शिव का सेवक वासुकि :शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल
के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन
नागवंशियों का गढ़ था। नाग कुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। भगवान शिव के
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से स्पष्ट है कि नागों के ईश्वर होने के कारण शिव का नाग
या सर्प से अटूट संबंध है। भारत में नागपंचमी पर नागों की पूजा की परंपरा है।
विरोधी भावों में सामंजस्य स्थापित करने वाले शिव नाग या सर्प जैसे
क्रूर एवं भयानक जीव को अपने गले का हार बना लेते हैं। लिपटा हुआ नाग या सर्प
जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है।
नागों के प्रारंभ में 5 कुल
थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकि, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये
लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन
सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है, तो निश्चित ही ये
मनुष्य नहीं होंगे।
नाग वंशावलियों में 'शेषनाग'
को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के
सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकि हुए, जो शिव के
सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकि का कैलाश पर्वत के पास ही
राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों
में पाई जाती हैं।
उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत,
धृतराष्ट्र, अनत, अहि,
मनिभद्र, अलापत्र, कंबल,
अंशतर, धनंजय, कालिया,
सौंफू, दौद्धिया, काली,
तखतू, धूमल, फाहल,
काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न
इलाकों में इनका राज्य था।
डमरू :सभी हिन्दू देवी और देवताओं के पास एक न एक वाद्य यंत्र रहता
है। उसी तरह भगवान के पास डमरू था, जो
नाद का प्रतीक है। भगवान शिव को संगीत का जनक भी माना जाता है। उनके पहले कोई भी
नाचना, गाना और बजाना नहीं जानता था। भगवान शिव दो तरह से
नृत्य करते हैं- एक तांडव जिसमें उनके पास डमरू नहीं होता और जब वे डमरू बजाते हैं
तो आनंद पैदा होता है।
अब बात करते हैं नाद की। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि,
जो ब्रह्मांड में निरंतर जारी है जिसे 'ॐ'
कहा जाता है। संगीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके बीच विद्यमान केंद्रीय स्वर नाद है। नाद से ही वाणी के चारों रूपों
की उत्पत्ति मानी जाती है।
आहत नाद का नहीं अपितु अनाहत नाद का विषय है। बिना किसी आघात के
उत्पन्न चिदानंद, अखंड, अगम एवं अलख रूप
सूक्ष्म ध्वनियों का प्रस्फुटन अनाहत या अनहद नाद है। इस अनाहत नाद का दिव्य संगीत
सुनने से गुप्त मानसिक शक्तियां प्रकट हो जाती हैं। नाद पर ध्यान की एकाग्रता से
धीरे-धीरे समाधि लगने लगती है। डमरू इसी नाद-साधना का प्रतीक है।
शिव का वाहन वृषभ :वृषभ शिव का वाहन है। वे हमेशा शिव के साथ रहते
हैं। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को 4 पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके 4 पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
एक मान्यता के अनुसार वृषभ को नंदी भी कहा जाता है,
जो शिव के एक गण हैं। नंदी ने ही धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना की
थी।
जटाएं :शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश
उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है।
सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है
अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी
माने गए हैं।
गंगा :गंगा को जटा में धारण करने के कारण ही शिव को जल चढ़ाए जाने
की प्रथा शुरू हुई। जब स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारने का उपक्रम हुआ तो यह भी
सवाल उठा कि गंगा के इस अपार वेग से धरती में विशालकाय छिद्र हो सकता है,
तब गंगा पाताल में समा जाएगी।
ऐसे में इस समाधान के लिए भगवान शिव ने गंगा को सर्वप्रथम अपनी जटा
में विराजमान किया और फिर उसे धरती पर उतारा। गंगोत्री तीर्थ इसी घटना का गवाह है।
भभूत या भस्म :शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की
निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह
आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में
शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है।
यज्ञ की भस्म में वैसे कई आयुर्वेदिक गुण होते हैं। प्रलयकाल में
समस्त जगत का विनाश हो जाता है, तब केवल भस्म
(राख) ही शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती है।
तीन नेत्र :शिव को 'त्रिलोचन'
कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच
तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेकिन बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास
होगा।
संसार और संन्यास :शिव का यह नेत्र आधा खुला और आधा बंद है। यह इसी
बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की
जिम्मेदारियों को निभा सकता है।
त्र्यंबकेश्वर :त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के व्युत्पत्यर्थ के
संबंध में मान्यता है कि तीन नेत्रों वाले शिवशंभू के यहां विराजमान होने के कारण
इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्र) के ईश्वर कहा जाता है।
पीनिअल ग्लैंड :आध्यात्मिक दृष्टि से कुंडलिनी जागरण में एक चक्र
को भेदने के बाद जब षट्चक्र पूर्ण हो जाता है तो इसके बाद आत्मा का तीसरा नेत्र
मलशून्य हो जाता है। वह स्वच्छ और प्रसन्न हो जाता है।
कुमारस्वामी ने शिव के तीसरे नेत्र को प्रमस्तिष्क (सेरिब्रम) की
पीयूष-ग्रंथि (पीनिअल ग्लैंड) माना है। पीयूष-ग्रंथि उन सभी ग्रंथियों पर नियंत्रण
रखती है जिनसे उसका संबंध होता है। कुमारस्वामी ने पीयूष-ग्रंथि को जागृत,
स्पंदित एवं विकसित करने की प्रक्रियाओं का विवेचन किया है।
हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म :शिव अपनी देह पर हस्ति चर्म और
व्याघ्र चर्म को धारण करते हैं। हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर। हस्ती
अभिमान का और व्याघ्र हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को
दबा रखा है।
शिव का धनुष पिनाक :शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही
बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह
धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को
ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की
समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज को सौंप दिया गया था।
उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं
देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने
पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी
मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब
उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज को धनुष दे दिया। राजा जनक
के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप
राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया
था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान
राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।
शिव का चक्र :चक्र को छोटा, लेकिन
सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र
होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम
से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से
जुड़ा हुआ है।
यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान
शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान
शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था।
जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे
परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।
त्रिपुंड तिलक :माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन
लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण,
रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी है। यह त्रिपुंड सफेद चंदन का या
भस्म का होता है।
त्रिपुंड दो प्रकार का होता है- पहला तीन धारियों के बीच लाल रंग
का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का
त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा होता है सिर्फ तीन धारियों वाला तिलक या
त्रिपुंड। इससे मन एकाग्र होता है।
कान में कुंडल :शिव कुंडल : हिन्दुओं में एक कर्ण छेदन संस्कार है।
शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान
छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कर्ण छिदवाने से कई प्रकार
के रोगों से तो बचा जा ही सकता है साथ ही इससे मन भी एकाग्र रहता है। मान्यता
अनुसार इससे वीर्य शक्ति भी बढ़ती है।
कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने
एलोरा गुफा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफेंटा, आरकाट जिले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि अनेक
पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और
गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों
में यह बात पाई जाती है।
भगवान बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए
दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प
कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र
कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है।
रुद्राक्ष :माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं
से हुई थी। धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के
रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक
ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है