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राजनीतिक रूप से चेतनशील बिहार की दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक नियति आलेख:-रमेश कुमार चौबे


राजनीतिक रूप से चेतनशील बिहार की दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक नियति आलेख:-रमेश कुमार चौबे

बिहार की चुनावी राजनीति जाति-उपजाति,वर्ग-विभेद और धार्मिक सांप्रदायिक मतभेद के समीकरण पर आधारित रही है I राजनीतिक रूप से चेतनशील बिहार की दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक नियति के अचेतन में जातीय,धार्मिक व सांप्रदायिक राजनीतिक महत्वाकाक्षा हावी है जिसके कारण आज बिहार के अधिकांश लोग रोजगार की तलाश में अप्रवासी जिंदगी जीने को मजबूर हैं I

कालांतर को छोड़कर फ़िलहाल 30 वर्षों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि बिहार की राजनीतिक ध्रुव में विशुद्ध रूप से जातीय, धार्मिक आग उन्माद की आंच पर पकते रहने वाली खिंचड़ी है I मंडल कमंडल के आंदोलन के बाद बिहार की राजनीति के विभिन्न आयामों जातिउपजाति यहाँ तक कि उपजाति में भी उपजाति,दलित में भी महादलित की तलास,पिछड़ा में अतिपिछड़ा का खोज,धर्मगरीबी और राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण विगत 30 वर्षों के कालखंड में राजनीति को भी कलंकित किया है बल्कि समाज को खंडित विखंडित दण्डित किया है I

            आज क्या वही बिहार है जिसने समय-समय पर देश की राजनीति की दशा और दिशा निर्धारित करने में महती भूमिका का निर्वहन किया था I कदापि नहीं अपितु आज का बिहार बिखंडित राजनीतिक की उर्वर जन्मभूमि श्रोत है I

            इतिहास इस बात का साक्षी है कि बिहार बहुत ही लंबे समय से राजनीति के केंद्र में रहा है। इसे इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि पिछले सात दशकों में भारत में जो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव हुए हैंबिहार की धरती उसकी जननी रही है।

             जिस बिहार में नालंदा विक्रमशिला जैसा शैक्षणिक केंद्र था जिसपर आज भी बिहार की ख्याति गर्वान्वित होती है I बुद्ध महावीर की धरती जहाँ से बौद्ध धर्म और जैन धर्म की उत्पत्ति हुई और विश्व स्तर पर विस्तार हुआ और बुद्ध महावीर को भगवान् का अवतार माना गया I जहाँ पर प्रथम स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन का शंखनाद किया I महात्मा गाँधी की कर्मभूमि चंपारण इसी बिहार में है जहाँ से स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला भभक कर संपूर्ण देश में राजनीतिक चेतना का चैतन्य प्रतिस्फुतित किया और जिसके परिणाम स्वरुप देश आजादी का स्वाद चखा I ब्रिटिश शासनकाल में 1917 में किसानों की समस्यायों और उनके शोषण के विरुद्ध शुरू आंदोलन चंपारण आंदोलन के नाम से विख्यात हुआ I

              देश रत्न राजेंद्र प्रसाद जैसे अनेकानेक बुद्धिजीवियों की जननी बिहार देश के राजनीतिक क्षितिज पर कभी दीप्यमान हुआ करता था I कभी साहित्य संस्कृति संस्कार से समृद्ध बिहार आज राजनीतिक ग्रसित काल की ओर अग्रसर है I

          1990 के दशक में बिहार न केवल मंडल-कमंडल समर्थक और मंडल-कमंडल विरोधी आंदोलन के केंद्र में था उसी दौर से बिहार की राजनीति के दुर्दिन की शुरुआत हुई I अनेकानेक नरसंहार उसी दुर्दिन राजनीतिक संक्रमण काल में हुआ है I

1975 में बिहार आपातकाल-विरोधी आंदोलन का भी केंद्र रहा I जे.पी आंदोलन के नाम से मशहुर 1975 का राजनीतिक आंदोलन स्वतंत्रता के बाद देश पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी के निरंकुश सत्ता शासनकाल की जनविरोधी नीतियों के कारण भड़का हुआ आग था जिसका संयोजन जेपी यानि कि जयप्रकाश नारायण ने किया था और संगठित होकर अपना नेतृत्व देकर किया था जिसका परिणाम हुआ कि अपने आपको अजेय मानने वाली कांग्रेस का किला बिखर गया I           तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था जिसकी पुरे देश में राजनीतिक प्रतिक्रया हुई और उन्हें अपनी कुर्सी गवानी पड़ी बल्कि उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा ।
              मंडल कमंडल दौर के बाद अब तक बिहार में जिस तरह की राजनीतिक लड़ाई और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई है वह जातीय, उपजातीय, धार्मिक, सांप्रदायिक जैसी कुत्सित मनोवृति की परवान चढ़कर अपनी जड़ें गहरी करती हुई मजबूत बरगद वृक्ष का रूप धारण कर चुकि है I बिहार के समाज रूपी मुंज में नीतीश और लालू की कुटिल राजनीतिक जोड़ी ने मट्ठा डालकर समाज को खंडित हीं नहीं अपितु पूर्णरूप से विखंडित कर दिया है I 30 साल के इस राजनीतिक खंडकाल में बिहार में दबंग यादव जाति से लालू प्रसाद यादव और दबंग पिछड़ी जाति कुर्मी से नीतीश कुमार का हीं शासन रहा है I  इस बीच और कोई पिछड़ी अतिपिछड़ी जाति या फिर दलित या फिर मुस्लिम या किसी सवर्ण का राजनीतिक वर्चश्व नहीं रहा I अगर पिछड़ी जाति और दलित में नेतृत्व उभरने की कोशिश किया भी तो उसे लालू और नीतीश की राजनीतिक सोंच ने कुचल दिया बल्कि कायदे से मसल दिया I बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीबाबू से लेकर सतेन्द्र प्रसाद सिन्हा के कार्यकाल के बीच अनेक मुख्यमंत्री आये बल्कि पिछड़ा और दलित समाज से भी बने यहाँ तक कि अल्पसंख्यक समाज से भी बने लेकिन  उनलोगों के दामन में जातीयता, धार्मिकता, साम्प्रदायिकता के तुष्टिकरण का ऐसा बदनुमा दाग नहीं लगा जैसा दाग लालू और नीतीश की राजनीतिक सोंच पर लगा

         देश के अन्य राज्यों की तरह हीअतीत में बिहार की राजनीति में मुख्यतः काँग्रेस का हीं दबदबा रहा। बिहार में कई दशकों तक काँग्रेस का निर्बाध शासन रहा और यह 1990 तक जारी रहा। इस बीच सिर्फ पांच बार राज्य में कुछ समय के लिए गैर-काँग्रेसी शासन रहा। लेकिन 1990 के बाद की स्थिति ने राज्य की राजनीति की दिशा और दशा बदल दी है I मंडलोत्तर राजनीति ने राज्य में काँग्रेस के अवसान की शुरुआत कर दी कांग्रेस को अर्स से फ़र्स पर खड़ा कर दिया बल्कि बिहार में अपना वजूद कायम करने की फिराक में कांग्रेस नेतृत्वहीन अस्तित्वहीन दिशाहीन हो गई । लालूनीतीश,शरद और रामविलास पासवन ने कांग्रेस को मटियामेट कर दिया I  वामपंथ और मार्क्सवाद जुल्पुत्ति की तरह फ़फस कर भस्म हो गया I     

           बिहार की राजनीति के दो धुर विरोधीनीतीश कुमार और लालू प्रसाद के इर्द गिर्द घूम रही है I बिहार कभी अनेकों राजनीतिक नेतृत्व की उर्जावान श्रोत देने वाली भूमि आज इन दो ध्रुवों के बीच हीं घूम रही है I भाजपा अमलताश परजीवी की तरह अपने को बिहार में स्थापित की हुई है उससे आगे की सोंच उसके पास लगता है कि है ही नहीं I

              बिहार की राजनीति में अब कोई मानक सिद्धांत किसी के पास नहीं है I सत्तालोलुपता के कारण आपसी सांठ गाँठ कब किससे बन जाय इसी खुराक के फिराक में ये लोग रहते हैं I नीतीश कुमार भ्रष्टाचार के प्रति कोई हमदर्दी नहीं दिखाने का दिखावा करते हैं और अपने आपको धर्मनिरपेक्षता रूपी सोंच का मसीहा अपने आपको घोषित करते हैं I वहीँ लालू यादव मुस्लिम समीकरण बनाकर शेष जातियों से कुछ अवशेष लेकर अपना मजबूत किला बनाकर सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं I पिछड़ी जाति से उपेन्द्र कुशवाहा आशा के किरण रूप में दिखाई दिए तो वो भी घृणित जातीय राजनीतिक दलदल से ऊपर की सोंच विकसित ही नहीं कर पा रहे हैं I इस बीच जीतनराम मांझी कुछ सुलझे हुए सोंच के साथ प्रकट हुए तो उनमें भी पुत्रमोंह का जंजाल दिखाई दिया और उनकी दूरदर्शिता को ग्रहण लग गया I   

              राज्य की राजनीति में जाति एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । किसी जमाने में ऊंची जातियों की वर्चस्व वाली राजनीतिक संरचना के लिए जाने वाले बिहार में अब यादव और कुर्मी जाति ही राजनीतिक केंद्र है I बिहार के मतदाताओं में यादवों और मुसलमानों की संख्या काफी अधिक है। राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों को वोट बैंक की तरह देखती हैं और वो अब तक वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल हुए हैं I
               इस साल बिहार में अक्तूबर तक बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाले हैं I बिहार की जनता 15-15 साल का बड़ा भाई छोटा भाई का शासनकाल देख चुकि है I इस समयावधि में बिहार की बेरोजगारी की समस्याओं का कितना निदान हुआ बिहार के किसानों की समस्याओं का कितना निदान हुआ I बिहार के 65 प्रतिशत आबादी युवा मतदाताओं की आबादी है इस चुनाव में 65 प्रतिशत आबादी की अगले 5 साल तक और बर्बादी न हो सके इस बिंदु पर युवा जरुर मनन मंथन करके कोई सकारात्मक दिशा में अग्रसर होकर अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करेंगे I
                 बिहार में आज 50 वर्षों से अधिक आयु वर्ग के राजनीतिज्ञों का एकछत्र बर्चस्व रहा है या फिर पीढ़ी डर पीढ़ी वंशवाद का राजनीतिक दंश बिहार का युवा झेलने को मजबूर है I जिन लोगों को राजनीति से सन्यास लेकर युवा हांथों में राजनीतिक नेतृत्व सौपना चाहिए वे आज भी कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं मरते दम तक म्रत्यु शैया पर जाने तक सुख सुविधा भोग विलास छोड़ना नहीं चाहते उनसे राजनीतिक मर्यादा राजनीतिक वसूलों की उम्मीद बेमानी होगी I आज बिहार के सिद्धांत की राजनीति नैतिकता की राजनीति का पुर्णतः अवसान हो गया है I
               ऐसे में 65 प्रतिशत युवा वोटरों को जातीय धार्मिक सांप्रदायिक मानसिकता से ऊपर उठकर बिहार के नव निर्माण और बिहार के पुराने गौरवशाली परंपरा को पुनर्जागृत करने की आवश्यकता है I बिहार में आज गरीबी और अमीरी के रूप में मात्र एक हीं रेखा खींचकर इस गरीबी अमीरी के खाई को कमतर करने के लिए बेहतर काम करने वाली सोंच और राजनीतिक नेतृत्व की जरुरत है