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शंखनाद!!

शंखनाद!!

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बडे तामझाम के साथ,
हमलोग आये थे एक साथ-
अपने हक के लिए करने शंखनाद!
लेकर फरियाद!!
पर ये निर्दयी और निरंकुश,
खुद पर हीं होता रहा खुश,
कभी भाव हीं नहीं दिया-
बात करना तो दूर समझा मनहूस,
किया अनदेखा करने को बर्वाद!!
बीच में ये आई महामारी,
सबको बना दिया दरवारी,
लोग लडना छोडकर किये-
सहयोग की तैयारी,
वह तो यही चाहता हीं है जो किया,
बदले में वह आपको उपेक्षा दिया-
जो आप चाह रहे थे धन्यवाद!!
असमय में हमारे बहुत साथी,
कालकवलित हो गये,
पर वह संवेदनाहीन निर्दयी के पास-
कुछ लोग स्वयं स्खलित हो गये,
भाग गये छोडकर मैदान,
कर लिए योगदान-
जरा इसको भी रखो याद!!
ये जो सेनापति की संमति है,
वही सबसे बडी विपत्ति है,
हमसे कहने के लिए तो विरोध है-
पर सच में उसीके साथ सहमति,
हम रहे उलझे-
वे रहे सुलझे,
देकर अवसाद....बढाकर विवाद-
न चुनौती न संवाद!!
संघर्ष का मार्ग होता है कठिन,
देना पडता है वलिदान,
तब जाकर कहीं मिलता है,
न्याय और समाधान,
पर यहां तो दिखावटी टकराव है,
उसके हीं दलान पर -
इन सबका आखिरी और सुखद,
धूप छांव और ठहराव है-
पाने को स्वपोषक खाद!!
        -----:भारतका एक ब्राह्मण.
           संजय कुमार मिश्र"अणु"
                 ---:अध्यक्ष:--
     साहित्य कला परिषद् अरवल