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टुकड़े टुकड़े जिंदगी

टुकड़े टुकड़े जिंदगी 

मनोज कुमार मिश्र 

टुकड़े टुकड़े जिंदगी 

सहमे सहमे लोग
सूनी सूनी गालियां 
सूना सूना माहौल
पत्थरों सा शहर 
सुबह शाम दोपहर
खिड़की से झांकती 
आंखें वीराना मंजर
दस्तक भीषण काल की 
दुबके हुए लोग
ये कैसा संयोग 
कैसा प्रकृति प्रकोप
बेबस लाचार मानव 
सूझता नहीं छोर
फिर से सुनने लगा शहर 
चिड़ियों का शोर
नीरव निशब्द उद्यान में 
खिले पुष्पों का जोर
बरसों बाद फिर मिली
माँ की गोदी आज
थोड़ी देर सुस्ताया
बड़े दिनों के बाद 
पिता के साथ वक्त
गुजरा खुशगंवार 
मशीन बनी जिंदगी
की थम गई रफ्तार
खुद तक सिमटा आदमी 
घर मे सहमा माहौल
प्रश्न करती आंखे 
उत्तर नही किसी ओर
कट जाएगा ये वक्त भी 
मन में है आस
मानव की ये त्रासदी 
भूलेगा नहीं इतिहास